देवशोधन नाम - ॥ समास नववां - सारशोधननाम ॥
श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
गुप्त है उदंड धन । क्या जानते सेवकजन । उन्हें है वह ज्ञान । बाह्यात्कार का ॥१॥
गुप्त रखा उदंड अर्थ । और प्रकट दिखते पदार्थ । सयाने खोजते स्वार्थ । अभ्यंतर में है ॥२॥
वैसा दृश्य यह मायिक । देखते रहते सकल लोक । मगर जो जानते विवेक । वे तदंतर जानते ॥३॥
द्रव्य रखकर जल भरा । लोग कहते सरोवर भर गया । उसका अभ्यंतर समझा । समर्थ जनों को ॥४॥
वैसे ज्ञाते समर्थ । उन्होंने ही पहचाना परमार्थ । अन्य वे करते स्वार्थ । दृश्य पदार्थों के ॥५॥
काबाडी काबाड ढोते । श्रेष्ठ रत्न भोगते । ये जिनका वे ही मधुरता लेते । कर्मयोग से ॥६॥
एक काष्ठ स्वार्थ करता । एक गोबर के कंडे जमाता । वैसे नहीं नृपति रहता । सारभोक्ता ॥७॥
जिसके पास है विचार । वे सुखासन पर हुये सवार । अन्य जन वे पास का भार । ढोते हुये मर गये ॥८॥
कोई दिव्यान्न भक्षण करते । कोई विष्ठा सेवन करते । अपने आचरण का लेते । साभिमान ॥९॥
सार सेवन करते श्रेष्ठ । असार लेते वृथापृष्ठ । सारासार की बात । सज्ञान जानते ॥१०॥
गुप्त पारस चिंतामणि । प्रकट कंकड कांच के मणि । गुप्त हेमरत्नखानी । प्रकट पाषाण मृत्तिका ॥११॥
अव्हाशंख अव्हाबेल । गुप्त वनस्पति अमोल । रेंडी धतूरा की टकसाल । प्रकट सीप ॥१२॥
कहीं दिखे ना कल्पतरू । उदंड थूहर का विस्तारू । देखने पर नहीं मैलागरू । बेर बबूल उदंड ॥१३॥
कामधेनू जानिये इंद्र । सृष्टि में गौवत्स अपार । महद्भाग्य भोगते नृपवर । इतर कर्मानुसार ॥१४॥
नाना व्यापार करते जन । सभी कहते सकांचन । परंतु कुबेर की महिमान । नहीं किसी को ॥१५॥
वैसा ज्ञानी योगेश्वर । गुप्तार्थ लाभ का ईश्वर । इतर वे उदरार्थी किंकर । नाना मत ढूंढते ॥१६॥
तस्मात् सार वह दिखे ना । और असार वह देखते जन । सारासार विवंचना । साधु जानते ॥१७॥
इतरों को यह क्या कहना। खरा खोटा किसने जाना । साधु संतों के चिन्हा । साधु संत जानते ॥१८॥
दिखे ना जो गुप्त धन । उसके लिये करना पडे अंजन । गुप्त परमात्मा सज्जन । के संगति में खोजें ॥१९॥
राजा के सन्निध रहता । सहज ही श्रीमंती पाता । वैसे ही यह सत्संग जो धरता । सद्वस्तु पाता ॥२०॥
सद्वस्तु से सद्वस्तु लब्ध । अव्यवस्थित को अव्यवस्थित । प्रशस्त को प्रशस्त । विचार मिलते ॥२१॥
इस कारण यह दृश्यजात । सारी ही है अशाश्वत । परमात्मा अच्युत अनंत । वह इस दृश्य से अलग ॥२२॥
दृश्य से अलग दृश्यांतर में । सर्वात्मा वह सचराचर में । विचार देखने पर अंतरंग में । निश्चय दृढ होता ॥२३॥
संसार त्याग न करते हुये । प्रपंच उपाधि न छोडते हुये । जन्म में सार्थकता आये । विचारों से ही ॥२४॥
यह प्रचीति का बोलना । विवेक से प्रचीति देखना । प्रचीति देखे वह सयाना । अन्यथा नहीं ॥२५॥
सप्रचीत और अनुमान । उधार और नगद धन । मानसपूजा प्रत्यक्षदर्शन । इनमें महदतंर ॥२६॥
आगे होगा जन्मांतर । में यह तो प्रत्यक्ष उधार । वैसा नहीं सारासार । तत्काल ही मिले ॥२७॥
तत्काल ही लाभ होता । प्राणी संसार से छूटता । संशय सारा ही टूटता । जन्ममरण का ॥२८॥
इसी जनम इसी काल में । संसार से हो जाये निराले । निश्चलता से मोक्ष पाते । स्वरूपाकार में ॥२९॥
इस बात का करे अनुमान । वह सिद्ध ही पायेगा पतन । मिथ्या कहे उसे आन । उपासना की ॥३०॥
यह यथार्थ ही है कहना । विवेक से शीघ्र मुक्त होना । रहकर कुछ भी ना रहना । जनों के बीच ॥३१॥
देवपद है निर्गुण । देवपद में अनन्यपन । यही अर्थ देखने पर पूर्ण । समाधान दृढ होता ॥३२॥
देह में ही विदेही होना । करके भी कुछ ना करना । जीवन्मुक्त के लक्षण । जीवन्मुक्त जाने ॥३३॥
वैसे यह खरा न लगे । अनुमान से सदह बढे । संदेह का मूल टूटे । सद्गुरुवचनों से ॥३४॥
इति श्रीदासबोध गुरुशिष्यसंवादे सारशोधननाम समास नववां ॥९॥
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Last Updated : December 01, 2023
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