देवशोधन नाम - ॥ समास आठवां - दृश्यनिरसननाम ॥

श्रीसमर्थ ने ऐसा यह अद्वितीय-अमूल्य ग्रंथ लिखकर अखिल मानव जाति के लिये संदेश दिया है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पीछे श्रोताओं ने पूछा था । दृश्य मिथ्या फिर क्यों दिखता । इसका उत्तर जो कहा जाता । सावधानी से सुनो ॥१॥
देखा सो माना सत्य ही । यह ज्ञाता का देखना नहीं । जड़ मूढ़ अज्ञान जीव ही । इसे सत्य मानते ॥२॥
एक दिखाई दे इस कारण से । ग्रंथ कोटि को झूठे ठहराये । संत महंतो की कथायें । उन्हें भी मिथ्या माना ॥३॥
मुझे दिखता वही खरा । यहां चलेना दूसरा । ऐसे संशय का भार । भरो ही नहीं ॥४॥
मृग ने देखा मृगजल । वहां दौडता पागल । जल नहीं मिथ्या सकल । उस पशु से कौन कहें ॥५॥
रात्रि स्वप्न देखा । बहुत द्रव्य हांथ आया । बहुत जनों से व्यवहार किया । उसे सच्चा कैसे मान लें ॥६॥
कुशल चित्रकार विचित्र । उसने निर्माण किया चित्र । देखते ही उठे प्रीति मात्र । परंतु वहां मृत्तिका ॥७॥
नाना वनिता हांथी घोडे । रात्रि देखने पर मन डूबे । दिन में देखो तो चिथडे । ऊबानेवाले ॥८॥
काष्ठ पाषाण के पुतले । नाना मनोहर निर्माण किये । परम सुंदर लगे । मगर वहां पाषाण ॥९॥
नाना गोपुरों पर पुतले रहते । वक्रांग कर वक्रदृष्टि से देखते । लाघव देखते ही वृत्ति भरे । परंतु वहां त्रिभाग ॥१०॥
खेलते नेमस्त दशावतारी । वहां आतीं सुंदर नारी । नेत्र घुमाते कला कुसलाई । मगर वे सारे पढे पुरुष ॥११॥
सृष्टि बहुरंग असत्य । बहुरूपों के कृत्य । तुझे लगे दृश्य सत्य । मगर यह अविद्या ॥१२॥
मिथ्या सांच सरीखा देखा । परंतु यह चाहिये विचार करना । दृष्टि की तरलता से भासा । उसे सच कैसे मानें ॥१३॥
ऊपर देखो सीधा आकाश । उदक में देखो उल्टा आकाश । बीच में चांदनी का प्रकाश । मगर वह भी सारा मिथ्या ॥१४॥
नृपति ने शिल्पकार बुलाया । जिसके उस जैसे पुतले बनाये । देखो तो वैसे ही लगे । मगर सारे मायिक ॥१५॥
नेत्रों में कोई पुतली न रहे । जहां ज्यों देखे वहां वही दिखे । आंखों में प्रतिबिंच भासे । वह साच कैसे ॥१६॥
जितने बुलबुले उठते । उतनों में रूप दिखते । क्षण में ही फूट जाते । रूप मिथ्या ॥१७॥
लघुदर्पण दो चार हांथ में । उतने मुख प्रतिबिंबित होते । पर वे मिथ्या आदि अंत में । मुख एक ही ॥१८॥
नदी तीर से भार जाता । दूसरा भार उल्टा दिखता । अथवा प्रतिध्वनि का उठता । गजर अचानक ॥१९॥
वापी सरोवर के तीर । वहां पशु पक्षी नर वानर । नाना पात्र वृक्ष विस्तार । दिखते दोनो ओर ॥२०॥
एक शस्त्र वेग से हिलता । दो दिखते तत्त्वतः । नाना तंतुटंकार में दिखता । द्विधा का भास ॥२१॥
अथवा दर्पण के मंदिर में । बैठी सभा दूसरी दिखे । बहुत दीपों की माला से । बहुत छाया दिखीं ॥२२॥
ऐसे यह बहुविध होये । साच सरीखा दिखे । मगर इसे सत्य कहकर कैसे । विश्वास रखें ॥२३॥
माया मिथ्या बाजीगरी । दिखे साच की तरह ही । फिर भी जानकार ने इसे खरी । मानना ही नहीं ॥२४॥
झूठ को माने सच जैसे । फिर होते पारखी किस कारण से । एवं ये सारे खेल अविद्या के । ऐसे ही होते ॥२५॥
मनुष्यों की बाजीगरी । बहुत जनों को लगे खरी । अंत में देखें तो निश्चित ही । मिथ्या होती ॥२६॥
राक्षसों की माया भी वैसी । देवों को भी लगे सांच जैसी । पंचवाटिका में मृग का जैसे । पीछा किया राम ने ॥२७॥
पूर्वकाया पलटते । एक से ही बहुत होते । रक्त बिंदी से जन्म लेते । रजनीचर ॥२८॥
नाना पदार्थ फल हुये । द्वारका में प्रवेश पाये । कृष्ण ने कितने दैत्य वध किये । कपटरूपी ॥२९॥
कैसे कपट रावण का । सिर बनाये माया का । कालनेमी के आश्रम का । अपूर्व कैसा ॥३०॥
नाना दैत्य कपटमति । देवों से भी ना खत्म होती । तब निर्माण होकर शक्ति । ने संहार किया ॥३१॥
ऐसी राक्षसों की माव । न जान सकते देव । कपट विद्या का लाघव । अघटित जिनका ॥३२॥
मनुष्यों की बाजीगरी । राक्षसों की आडम्बरी । भगवंत की नाना प्रकारी । विचित्र माया ॥३३॥
यह सच सरीखी ही दिखे । विचार करने पर न रहे । मिथ्या ही फिर भी भासे । निरंतर देखने पर ॥३४॥
सच कहे तो भी यह नाश पाये । मिथ्या कहें तो भी यह दिखे । दोनों पदार्थों में अविश्वास से । कहे वो मन ॥३५॥
परंतु नहीं यह साचार । माया का मिथ्या विचार । दिखता यह स्वप्नाकार । जान रे बापा ॥३६॥
तथापि जो तुझे । भास ही सत्य लगे । फिर यहां गल्ती हो जाये। सुन रे बापा ॥३७॥
दृश्य भास अविद्यात्मक । तेरा देह भी तदात्मक । इस कारण यह अविवेक । वहां संचारित हुआ ॥३८॥
दृष्टि ने दृश्य देखा । मन भास पर बैठा । फिर वह लिंगदेह हुआ । अविद्यात्मक ॥३९॥
अविद्या ने अविद्या देखी । इस कारण बात पर विश्वास कर ली । तेरी काया सारी व्याप्त हुई । अविद्या से ॥४०॥
वही काया मैं स्वयं । यह देहबुद्धि के लक्षण । इसी कारण से हुये प्रमाण । दृश्य सारे ॥४१॥
इधर सत्य माना देह । उधर दृश्य सत्य का निर्वाह । दोनों में संदेह । फैला प्रबलता से ॥४२॥
देहबुद्धि की बलवत् । और ब्रह्म देखने गया ढीठ । उस दृश्य ने रूद्ध की बाट । परब्रह्म की ॥४३॥
वहां दृश्य को सच माना । निश्चय ही दृढ हुआ । देखो तो कितना चूक गया । अकस्मात् ॥४४॥
अब रहने दो कथन ये । बह्म न मिले मैंपन से । देहबुद्धि के लक्षणों में । दृश्य भाते ॥४५॥
अस्थि के देह में मांस के नयन । कहे ब्रह्म का गोला करूंगा दर्शन । वह ज्ञाता नहीं अंधा है पूर्ण । केवल मूर्ख ॥४६॥
दृष्टि को दिखे मन को भासे । वह कालांतर में नाश पाये । इस कारण दृश्यातीत रहे । परब्रह्म वह ॥४७॥
परब्रह्म वह शाश्वत । माया वही अशाश्वत । ऐसा कहा है निश्चितार्थ । नाना शास्त्रों में ॥४८॥
अब आगे निरूपण । देहबुद्धि के लक्षण । भूला जो सो मैं कौन । कहा है ॥४९॥
मैं कौन यह जानियें । मैंपन त्यागकर अनन्य होयें । तब समाधान वह सहजता से । दृढ हो शरीर में ॥५०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे दृश्यनिरसननाम समास आठवां ॥८॥

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Last Updated : December 01, 2023

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