फाल्गुन कृष्णपक्ष व्रत - शिवरात्रि

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


शिवरात्रि

( नानापुराणशास्त्राणि ) - यह व्रत फाल्गुन कृष्ण २ चतुर्दशीको किया जाता है । इसको प्रतिवर्ष १ करनेसे यह ' नित्य ' और किसी कामनापूर्वक करनेसे ' काम्य ' होता है । प्रतिपदादि २ तिथियोंके अग्नि आदि अधिपति होते हैं । जिस तिथिका जो स्वामी हो उसका उस तिथिमें अर्चन करना अतिशय उत्तम होता है । चतुर्दशीके स्वामी शिव है ( अथवा शिवकी तिथि चतुर्दशी है ) । अतः उनकी रात्रिमें व्रत किया जानेसे इस व्रतका नाम ' शिवरात्रि ' होना सार्थक हो जाता है । यद्यापि प्रत्येक मासकी कृष्णचतुर्दशी शिवरात्रि होती है और शिवभक्त प्रत्येक कृष्णचतुर्दशीका व्रत करते ही हैं, किन्तु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीके निशीथ ( अर्धरात्रि ) में ' शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः । ईशानसंहिताके इस वाक्यके अनुसार ज्योतिर्लिङ्गका प्रादुर्भाव हुआ था, इस कारण यह महाशिवरात्रि मानी जाती है । ' शिवरात्रिव्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम् । आचाण्डालमनुष्याणां भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥' - के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, अछूत, स्त्री - पुरुष और बाल - युवा - वृद्ध - ये सब इस व्रतको कर सकते हैं और प्रायः करते ही हैं । इसके न करनेसे दोष होता है । जिस प्रकार राम, कृष्ण, वामन और नृसिंहजयन्ती एवं प्रत्येक एकादशी उपोष्य हैं, उसी प्रकार यह भी उपोष्य है और इसके व्रतकालादिका निर्णय भी उसी प्रकार किया जाता है । सिद्धान्तरुपमें आजके सूर्योदयसे कलके सूर्योदयतक रहनेवाली चतुर्दशी ' शुद्धा '३ और अन्य ' विद्धा ' मानी गयी हैं । उसमें भी प्रदोष ( रात्रिका आरम्भ ) और निशीथ ( अर्धरात्रि ) की चतुर्दशी ग्राह्य होती है । अर्धरात्रिकी पूजाके लिये स्कन्दपूराणमें लिखा है कि ( फाल्गुन कृष्ण १४ को ) ' निशिभ्रमन्ति भूतानि शक्तयः शूलभृद यतः । अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेत् ॥' अर्थात् रात्रिके समय भूत, प्रेत, पिशाच, शक्तियाँ और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं; अतः उस समय इनका पूजन करनेसे मनुष्यके पाप दूर हो जाते हैं । यदि यह ( शिवरात्रि ) त्रिस्पृशा १ ( १३ - १४ - ३० - इन भौमवारका योग ( शिवयोग ) और भी अच्छा है । ' पारण ' के लिये ' व्रतान्ते पारणम् ', ' तिथ्यन्ते पारणम् ' और ' तिथिभान्ते च पारणम् ' आदि वाक्योके अनुसार व्रतकी समाप्तिमें पारण किया जाता है, किंतु शिवरात्रिके व्रतमें यह विशेषता है कि ' तिथिनामेव सर्वासामुपवासव्रतादिषु । तिथ्यन्ते पारणं कुर्याद् विना शिवचतुर्दशीम् ॥' ( स्मृत्यन्तर ) शिवरात्रिके व्रतका पारण चतुर्दशीमें ही करना चाहिये और यह पूर्वविद्धा ( प्रदोषनिशिथोभयव्यापिनी ) चतुर्दशी होनेसे ही हो सकता है । व्रतीको चाहिये कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीको प्रातःकालकी संध्या आदिसे निवृत्त होकर भालमें भस्मका त्रिपुण्ड्र तिलक और गलेमें रुद्राक्षकी माला धारण करके हाथमें जल लेकर ' शिवरात्रिव्रतं ह्येतत् करिष्येऽहं महाफलम् । निर्विघ्रमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते ॥' यह मन्त्न पढ़कर जलको छोड़ दे और दिनभर ( शिवस्मरण करता हुआ ) मौन रहे । तत्पश्चात् सायंकालके समय फिर स्त्रान करके शिव - मन्दिरमें जाकर सुविधानुसार पूर्व या उत्तरमुख होकर बैठे और तिलक तथा रुद्राक्ष धारण करके ' ममाखिलपापक्षयपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये शिवपूजनं करिष्ये ' यह संकल्प करे । इसके बाद ऋतुकालके गन्ध - पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरेके फूल, घृतमिश्रित गुग्गुलकी धूप, दीप, नैवेद्य और नीराजनादि आवश्यक सामग्री समीप रखकर रात्रिके प्रथम प्रहरमें ' पहली ', द्वितीयमें ' दूसरी ' तृतीयमें ' तीसरी ' और चतुर्थमें ' चौथी ' पूजा करे । चारों पूजन पञ्चोपचार, षोडशोपचार या राजोपचार - जिस विधिसे बन सके समानरुपसे करे और साथमें रुद्रपाठादि भी करता रहे । इस प्रकार करनेसे पाठ, पूजा, जागरण और उपवास - सभी सम्पन्न हो सकते हैं । पूजाकी समाप्तिमें नीराजन, मन्त्नपुष्पाञ्जलि और अर्घ्य, परिक्रमा करे तथा प्रत्येक पूजनमें ' मया कृतान्यनेकानि पापानि हर शङ्कर । शिवरात्रौ ददाम्यर्घ्यमुमाकान्त गृहाण मे ॥' - से अर्घ्य देकर ' संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शङ्कर । प्रसीद सुमुखो नाथ ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥' से प्रार्थना करे । स्कन्दपुराणका कथन है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीको शिवजीका पूजन, जागरण और उपवास करनेवाला मनुष्य माताका दूध कभी नहीं पी सकता अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता है । इस व्रतकी दो कथाएँ हैं । एकका सारांश यह है कि एक बार एक धनवान् मनुष्य कुसङ्गवश अपराधमें मार डाला गया, किंतु चोरीकी ताकमें वह आठ प्रहर भूखा - प्यासा और जागता रहा था, इस कारण स्वतः व्रत हो जानेसे शिवजीने उसको सदगति दी । दूसरीका सारांश यह है कि शिवरात्रिके दिन एक व्याधा दिनभर शिकारकी खोजमें रहा, तो भी शिकार नहीं मिला । अन्तमें वह गुँथे हुए एक झाड़की ओटमें बैठ गया । उसके अंदर स्वयम्भू शिवजीकी एक मूर्ति और एक बिल्ववृक्ष था । उसी अवसरपर एक हरिणीपर वधिककी दृष्टि पड़ी । उसने अपने सामने पड़नेवाले बिल्वपत्रोंको तोड़कर शिवजीपर गिरा दिया और धनुष लेकर बाण छोड़ने लगा । तब हरिणी उसे उपदेश देकर जीवित चली गयी । इसी प्रकार वह प्रत्येक प्रहरमें आयी और चली गयी । परिणाम यह हुआ कि उस अनायास किये हुए व्रतसे ही शिवजीने उस व्याधाको सद्गति दी और भवबाधासे मुक्त कर दिया । बन सके तो शिवरात्रिका व्रत सदैव करना चाहिये और न बन सके तो १४ वर्षके १ बाद ' उद्यापन ' कर देना चाहिये । उसके लिये चावल, मूँग और उड़द आदिसे ' लिङ्गतोभद्र ' मण्डल बनाकर उसके बीचमें सुवर्णादिके सुपूजित दो कलश स्थापन करे और चारों कोणोंमें तीन - तीन कलश स्थापन करे । इसके बाद ताँबेके नाँदियेपर विराजे हुए सुवर्णमय शिवजी और चाँदीकी बनी हुई पार्वतीको बीचके दोनों कलशोंपर यथाविधि स्थापन करके पद्धतिके अनुसार साङ्गोपाङ्ग षोडशोपचार पूजन और हवनादि करे । अन्तमें गोदान, शय्यादान, भूयसी आदि देकर और ब्राह्मणभोजन कराके स्वयं भोजनकर व्रतको समाप्त करे । पूजनके समय शङ्ख, घण्टा आदि बजानेके विषयमें ( योगिनीतन्त्नमें ) लिखा है कि ' शिवागारे झल्लकं च सूर्यागारे च शङ्खकम् । दुर्गागारे वंशवाद्यं मधुरीं च न वादयेत् ॥ ' अर्थात् शिवजीके मन्दिरमें झालर, सूर्यके मन्दिरमें शङ्ख और दुर्गाके मन्दिरमें मीठी बंसरी नहीं बजानी चाहिये । शिवरात्रिके व्रतमें कठिनाई तो इतनी है कि इसे वेदपाठी विद्वान् ही यथाविधि सम्पन्न कर सकते हैं और सरलता इतनी है कि पठित - अपठित, धनी - निर्धन - सभी अपनी - अपनी सुविधा या सामर्थ्यके अनुसार शतशः रुपये लगाकर भारी समारोहसे अथवा मेहनत - मजदुरीसे प्राप्त हुए हो पैसेके गाजर, बेर और मूली आदि सर्वसुलभ फल - फूल आदिसे पूजन कर सकते हैं और दयालु शिवजी छोटी - से - छोटी और बड़ी - से - बड़ी - सभी पूजाओंसे प्रसन्न होते हैं ।

१. चतुर्दश्यां तु कृष्णायां फाल्गुने शिवपूजनम् ।

तामुपोष्य प्रयत्नेन विषयान् परिवर्जयेत् ॥ ( शिवरहस्य )

२. ' नित्यकम्यरुपस्यास्य व्रतस्येति ।' ( मदनरत्न )

३. तिथीशा वह्निको गौरी गणेशोऽहिर्गुहो रविः ।

शिवो दुर्गान्तको विश्वे हरिः कामः शिवः शशी ॥ ( मु० चि० )

४. ' सूर्योदयमारभ्य पुनः सूर्योदयपर्यन्ता ' शुद्धा ' तदन्या ' विद्धा ', सा प्रदोषनिशीथोभयव्यापिनी ग्राह्या ।' ( तिथिनिर्णय )

त्रयोदश्यस्तगे सूर्ये चतसृष्वेव नाडिषु ।

भूतविद्धा तु या तत्र शिवरात्रिव्रतं चरेत् ॥ ( वायुपुराण )

५. त्रयोदशी कला ह्येका मध्ये चैव चतुर्दशी ।

अन्ते चैव सिनीवाली ' त्रिस्पृशा ' शिवमर्चयेत् ॥ ( माधव )

६. चतुर्दशाब्दं कर्तव्यं शिवरात्रिव्रतं शुभम् । ( कालोत्तरखण्ड )

७. यतः प्रतिचतुर्दश्यां पूज यत्नेन मे कृता ।

तथा जागरणं तत्र संनिधी मे कृतं तथा ॥ ( स्कन्दपुराण )

N/A

References : N/A
Last Updated : January 01, 2002

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP