माघी अमा
( वायु, देवी, ब्रह्म, हारीत, व्यासादि ) - अमा और पूर्णिमा ये दोनों पर्वतिथियाँ हैं । इस दिन पृथ्वीके किसी - न - किसी भागमें सूर्य या चन्द्रमाका ग्रहण हो ही जाता है । इसस धर्मप्राण हिंदू इस दिन अवश्य दान - पुण्यादि कर्म करते हैं । हिमपिण्ड चन्द्रका आधा भाग काला और आधा सफेद है । सफेदपर सूर्यकिरण पड़नेसे वह प्रकाशित होता है । जब चन्द्रमा क्षीण होकर दीखता नहीं, तब उस तिथिको अमा कहते हैं और पूर्ण चन्द्रसे पूर्णिमा होती है । जिस अमामें चन्द्रकी कुछ सफेदी हो, वह ' सिनीवाली ' और कोयलके शब्द करने जितनी हो वह ' कुहू ' होती है । इसी प्रकार पूर्ण चन्द्रकी पूर्णिमा ' राका ' और कलमात्र कमकी ' अनुमती ' होती है । सिनीवाली और कुहूके भेदसे अमा तथा राका और अनुमतीके भेदसे पूर्णिमा दोनों दो प्रकारकी हैं । चन्द्रमा सूर्यसे नीचा है; अतः पूर्णिमाको इसका काला भाग और अमाको सफेद भाग सूर्यकी ओर रहनेसे पृथ्वीपर किये गये दान, पुण्य और भोजनादिके बाष्पसम्भूत अंश सूर्यकी किरणोंसे आकर्षित होकर चन्द्रमण्डलमें ( जहाँ पितृगण रहते हैं ) चले जाते हैं । इसी कारण अमाको पितृ - श्राद्धादि करनेका विधान किया गया है । अमाके दिन चन्द्रका प्रकाशमान भाग सूर्यके आगे आ जानेसे सूर्यग्रहण और पूर्णिमाको नीचे गये हुए सुर्यसे उठी हुई पृथ्वीकी छाया चन्द्रके सामने आ जानेसे चन्द्रग्रहण होता है । ' लोकान्तरमें कहीं भी ग्रहण हुआ होगा ' - इस सम्भावनासे धर्मज मनुष्य अमा और पूर्णिमाको स्त्रान - दानादि पुण्य कर्म किया करते हैं । ग्रहण तब होता है, जब सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी ( तीनों ) एक सीधमें आते है; अन्यथा नहीं होता । व्रतादिमें अमावस्या परविद्धा ( प्रतिपदायुक्त ) लेनी चाहिये । चतुर्दशीयुक्त यानी पूर्वविद्धा अमा निषिद्ध मानी गयी है । ' पूर्वाह्णो वै देवानाम् , मध्याह्नो मनुष्याणामपराह्णः पितृणाम् ' के अनुसार दिनको ( लगभग १० -१० घड़ीके ) तीन भागोमें विभाजित मानकर जप, ध्यान और उपासना आदिके कार्य प्रथम तृतीयांश ( लगभग १० घड़ी दिन चढ़ेतक ) करने चाहिये । संस्कारादि एवं आयुर्बलवित्तादिप्राप्तिके प्रयोगादि ' मनुष्यकार्य ' दूसरे तृतीयांश ( मध्य दिनकी लगभग १० घड़ी ) में करने चाहिये और श्राद्ध, तर्पण एवं हंतकारादि ' पितृकार्य ' तीसरे तृतीयांश ( दिनास्तसे पहलेतककी लगभग १० घड़ी ) में करनें चाहिये ।