आभ्यन्तर शौच

प्रस्तुत पूजा प्रकरणात भिन्न भिन्न देवी-देवतांचे पूजन, योग्य निषिद्ध फूल यांचे शास्त्र शुद्ध विवेचन आहे.


मिट्टी और जलसे होनेवाला यह शौच-कार्य बाहरी है । इसकी अबाधित आवश्यकता है, किंतु आभ्यन्तर शौचके बिना यह प्रतिष्ठित नहीं हो पाता । मनोभावको शुध्द रखना आभ्यन्तर शौच माना जाता है। किसीके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा आदिके भावका न होना आभ्यन्तर शौच है । श्रीव्याघ्रपादका कथन है कि यदि पहाड़-जितनी मिट्टी और गंगाके समस्त जलसे जीवनभर कोई बाह्य शुध्दि-कार्य करता रहे, किंतु उसके 'आन्तरिक शौच' न हो तो वह शुध्द नहीं हो सकता । अत: आभ्यन्तर शौच अत्यावश्यक है । भगवान्‍ सबमें विद्यमान हैं । इसलिये किसीसे द्वेष, क्रोधादि क्यों करे ? सबमें भगवान्‍का दर्शन करते हुए, सब परिस्थितियोंको भगवान्‍का वरदान समझते हुए, सबमें मैत्रीभाव रखे । साथ ही प्रतिक्षण भगवान्‍का स्मरण करते हुए उनकी आज्ञा समझकर शास्त्रविहित कार्य करता रहे ।

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Last Updated : November 25, 2018

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