( राग - काफी; ताल - दीपचंदी )
गुनीजन अपना है रे भाई । काय करूं लोक दुनियाई ॥ध्रु.॥
ज्या गुनमें मन मगन होत है । जो गुन ज्याके मनमें ।
बहुत गारमें हीरा जैसा तैसा हय सो जनमें ॥१॥
गुन न जाने सा लोक बिराने । ऐसी बात है मनकी ।
रसिक कहे समजो रे भाई । धन्य धन्य गुनिजनकी ॥२॥
खंड खंड बन बहुत तरूवर । कल्पतरू सो नहीं ।
रसीक कहे समजो रे भाई । ऐसी बात दुनियाई ॥३॥


( राग - पूर्वी; ताल - त्रिवट )
प्रगट कोन करे । राम । प्रगट कोन करे ॥ध्रु.॥
आगम निगम शेष बिरंची । ताकू भूलि परे ॥१॥
अलख निरंजन सबजनमां ही । देखत रूप सरे ॥२॥
दास कहे गम सतसमागम । अंतरमो हि धरे ॥३॥


( रा - कानडा; ताल - त्रिवट )
कोई एक गैबी आया बे । देखत जब तब भात ॥ध्रु.॥
आलम दुनिया समजत नहीं । आलम दुनिया चलावे ॥१॥
रजबिन झारकी पात न हाले । अजब सूरत पाख ॥२॥
जोग चलावे भोग चलावे । बुझत हरिजन थाक ॥३॥
बंदेकमीन कमीन हि किया । धन्य सुरिजनहार ॥४॥

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Last Updated : December 09, 2016

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