अथ लग्नानि । सिंहे सूर्य : शिवी द्वंद्वे लग्ने स्थाप्य : स्त्रियां ६ हरि : । कुंभे वेधश्वरे क्षुद्रा ह्मंगदेव्य : स्थिरेऽखिला : ॥१९५॥
अथ लग्नादिस्थग्रहफलम् । लग्नस्था : सूर्यचंद्रारराहुकेत्वर्कसूनव : । वर्तृर्मृत्युप्रदाश्वान्ये धनधान्यसुखप्रदा : ॥१९६॥
द्वितीये नेष्टदा : पापा : शुभाश्वंद्रश्व वित्तदा : । तृतीये निखिला : खेटा पुत्रपौत्रसुखप्रदा : ॥१९७॥
चतुर्थे सुखदा : सौम्या : क्रूराश्वंद्रश्व : दु : खदा : । हानिदा : पंचमें कूरा : सौम्या पुत्रसुखप्रदा : ॥१९८॥
पूर्ण : क्षीण : शशी तत्र पुत्रद : पुत्रनाशन : । षष्ठे शुभा : शत्रुदा : स्यु : पापा : शत्रुक्षयप्रदा : ॥११९॥
पूर्ण : क्षीणोऽपि वा चंद्र : षष्ठेऽखिलरिपुक्षयम् । करोति कर्तुरचिरादायु : पुत्रधनप्रद : ॥२००॥
व्याधिदा : सप्तमे पापा : सौम्या : सौम्यफलप्रदा : । अष्टमस्थानगा : सर्वे कर्तुर्मृत्युमय्प्रदा : ॥२०१॥
धर्मे पापा घ्नंति सौम्या : शुभदा : शुभद : शशी । भंगदा : कर्मगा : पापा : सौम्याश्चन्द्रश्च कीर्तिदा : ॥२०२॥
लाभस्थानगता : सर्वे भूरिलाभ प्रदा ग्रहा : । व्ययस्थानगता : शश्वद्वहुव्ययकरा ग्रहा : ॥२०३॥
गुणाधिकबरे लग्ने दोषाल्पत्वतरे यदि । सुराणां स्थापनं तत्र कर्तुरिष्टार्थमिद्धिदम् ॥२०४॥
हंत्यर्थहीना कर्त्तरं मन्त्रहीना तु ऋत्विजम् । स्त्रियं लक्षणहीना तु न प्रतिष्ठासमो रिपु : ॥२०५॥
गृहे स्वे यो विधि : प्रोक्तो विनिवेशप्रवेशयो : । स एव विदुषा कार्य्यो देवतायतनेष्वपि ॥२०६॥
( प्रतिष्ठाके लग्न ) सूर्यको सिंहलग्नमें स्थापन करे , शिवको मिथुनमें , विष्णुको कन्यामें , ब्रह्माको कुंभमें , क्षुद्रदेवताओंको चर लग्नमें , कुलकी देवी आदिको स्थिरलग्नमें स्थापन करना श्रेष्ठ है ॥१९५॥
( लग्न आदि १२ भावोंका फल ) प्रतिष्ठाके लग्नमें सूर्य , चन्द्रमा , मंगल , राहु , केतु , शनैश्वर हो तो कर्ताकी मृत्यु करें और गुरु , शुक्र , बुध हों तो धन धान्य सुख दें ॥१९६॥
दूसरे पापग्रह हों तो अशुभ करें और शुभग्रह चन्द्रमा हो तो भी धन देवे । और तीसरे स्थानमें संपूर्ण ही ग्रह पुत्र पौत्र सुखको देते हैं ॥१९७॥
चौथे शुभग्रह सुख देते हैं , पापग्रह दुख करें , पांचवें पापग्रह हानि करें , सौम्यग्रह तथा पूर्णचन्द्रमा पुत्रका सुख देते हैं , क्षीण चन्द्रमा पुत्र नाश करता ॥१९८॥
छठे शुभग्रह शत्रुका भय करें , पापग्रह शत्रुका नाशकरें और चन्द्रमा छ्ठे पूर्ण हो या क्षीण हो तो संपूर्णशत्रुओंका नाश करके कर्ताको आयु , पुत्र , धन देता है ॥१९९॥२००॥
सातवें पापग्रह रोग करें , शुभग्रह शुभफल देवें , आठवें सम्पूर्ण ग्रह मृत्युभयको देते हैं ॥२०१॥
नौवें पापग्रह नाश करें , शुभग्रह शुभफल देवें और दशवें पापग्रह भंग देवें , चन्द्रमा क्रीतिं करें ॥२०२॥
ग्यारहवें सम्पूर्ण ग्रह बहुत लाभ करें और बारहवें सम्पूर्ण ग्रह खरच करावें ॥२०३॥
लग्नमें अधिक गुण हो और दोष थोडा हो तब देवोंके स्थापनकर्ताको सिद्धि देते हैं ॥२०४॥
जो प्रतिष्ठा धन विना की हो सो यजमानको मारती है , मंत्रविधिसे रहित हो सो आचार्य ऋत्विजोंको और लक्षणहीन हो सी यजमानकी स्त्रीको मारती है कारण कि प्रतिष्ठाकर्मके बराबर कोई शत्रु नहीं है इसवास्ते कर्ताको लोभ नहीं करना चाहिये ॥२०५॥
जो विधि घरके प्रवेशमें लिखी है सो ही विधि देवोंकी प्रतिष्ठामें करनी चाहिये ॥२०६॥
अथ तडागाद्युत्सर्गकाल : । अधुना कथयिष्यामि वापीकूपक्रियाविधिम् । तडागपुष्करोद्यानमंडपानां यथाक्रमात् ॥२०७॥
आयव्ययादिसंशुद्धिं मासशुर्द्धि तथैव च । यथा गेहे देवगेहे तथैवात्र विचारयेत् ॥२०८॥
( तडाग आदिकी प्रतिष्ठाका मु . ) अब बावडी , कूवा . कूवा , तालाव , तलाई . बगीचा , मंडप आदिका मुहूर्त्त कहते हैं ॥२०७॥
ग्यारवें , बारहवें आदि स्थानोंकी शुद्धि और मास , तिथि आदिकी शुद्धि जैसी पहले नूतनघरकी तथा देवप्रतिष्ठाकी जो कही है सो ही देखनीं चाहिये ॥२०८॥
अथ वाप्यादीनामुत्सर्गे शुभदिनादि । वापीकूपतडागानां तस्मिन् काले विधि : स्मृत : । सुदिने शुभनक्षत्रे प्रतिष्ठा शुभदा स्मृता ॥२०९॥
कर्कटे पुत्रलाभश्व सौख्यं तु मकरे भवेत् । मीने यशीऽर्थलाभस्तु कुम्भे च सुबहुदकम् ॥२१०॥
वृषे च मिथुने वृद्धिवृश्विके लक्षण भवेत् । पितृतृप्तिश्व कन्यायां तुलायां शाश्वती गति : ॥२११॥
सिंहे मेषे हये नाशं जलस्य द्विज इच्छति ॥ तस्मिन् सलिलसम्पूर्णे कार्त्तिके च विशेषत : ॥२१२॥
तडागस्य विधि : कार्य : स्थिरनक्षत्रयोगत : । मुनय : केचिदिच्छति व्यतीते चोत्तरायणे । न कालनियमस्तत्र सलिलं तत्र कारणम् ॥२१३॥
अथ नक्षत्राणि । रोहिणी चोत्तरात्रीणि पुष्यं मैत्रं च वारुणम् । पिव्यं च वसुदैवत्यं भगणो वारिबन्धने ॥२१४॥
और शुभ दिन शुभ नक्षत्रोंमें तालाब आदिका उत्सर्ग श्रेष्ठ होता है ॥२०९॥
कर्कके सूर्यर्म उत्सर्ग करे तो पुत्रका लाभ हो , मकरमें सुख हो , मीनके सूर्यमें यश धनका लाभ हो , कुम्भकेमें बहुत जल रहे ॥२१०॥
वृष मिथुनकेमें जलकी वृद्धि हो , वृश्विककेमें अच्छा जल रहे , कन्याकेमें पितरोंकी तृप्ति हो , तुलाकेमें सदैव जल रहे ॥२११॥
सिंह , मेष , धनके सूर्यमें जलका नाश होता है और तालाब जलसे भरगया हो और कार्त्तिकमें विशेष करके स्थिरनक्षत्रोंके योगसे तडागकी प्रतिष्ठा करना शुभ है और कई आचार्य उत्तरायणके अन्तमें भी शुभ मानते हैं , परन्तु यहां कालका नियम नहीं है जब जलसे भरजावे तब ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥२१२॥२१३॥
रो , उ . ३ , पु , अनु , शत , मघा , धनिष्ठा यह नक्षत्र जलाशयों के उत्सगमें श्रेष्ठ हैं ॥२१४॥
तडागाद्युत्सर्गे वारविचार : । जलशोषो भवेत्सूर्ये भौमे रिक्तं विनिर्दिशेत् । मंदे च मलिनं कुर्याच्छेषा वारा : शुभावहा : ॥२१५॥
अथ लग्नानि । सर्वेषु लग्नेषु शुभं वदंति विहाय सिंहा ५ लि ८ धनुर्धरां ९ श्व । ग्रहै : सदाऽऽलोकनयोगसौम्ययोगात्प्रकुर्याज्जलभांशवर्गे ॥२१६॥
केंद्रत्रिकोणेषु शुभस्थितेषु पापेषु केंद्राष्टमवर्जितेषु । सर्वेषु कार्येषु शुभं वदंति प्रासादकूपादितडागवाप्याम् ॥२१७॥
अथानिष्टयोगा : । चतुर्थाष्टमगै : पापैर्लग्नगे वा खलग्नहे । चंद्रेऽष्टमे तदा कर्ता म्रियते मासमध्यत : ॥२१८॥
केंद्रे पापग्रहैर्युक्ते अष्टमे च व्यये १२ ऽपि वा । धर्म ९ स्थानगतैर्वाऽपि तज्जलं क्षीयतेऽचिरात् ॥२१९॥
केंद्रगै : सौरिभौमाकैंरष्टमस्थे निशाकरे । तज्जलं वर्षमध्ये तु न तिष्ठति जलाशये ॥२२०॥
एक : पापोऽष्टमस्थोऽपि चतुर्थे सिंहिकासुत : । नवमे भूमिपुत्रस्तु तज्जल विषवस्मृतम् ॥२२१॥
आदित्यवारको प्रतिष्ठा करे तो जल सूख जावे , भौमवारको जलशून्य रहे शनिवारको मलिन जल रहे , अन्य वार शुभ जानने ॥२१५॥
सिंहु , वृश्विक , धन लग्नके विना अन्य संपूर्णलग्नोंमें शुभग्रहोंकी द्दष्टि होनेसे और जलराशिके नवांशकमें जलका उत्सर्ग करना शुभ है ॥२१६॥
शुभग्रह केंद्र १।४।७।१० त्रिकोण ९।५ में हों और पापग्रह केंद्र अष्टमके विना अन्य स्थानोंमें हों तो मंदिर , कूप , बावडी , तालाब आदिका उत्सर्ग श्रेष्ठ होता है ॥२१७॥
यदि पापग्रह चौथे आठवें लग्नमें हों और चंद्रमा आठवें हो तो कर्ताकी एकमासके भीतर मृत्यु होती है ॥२१८॥
केंद्र १।४।७।१० में या आठवे , बारहवें , नौवें पापग्रह हों तो तडागका जल शीघ्र ही नष्ट होता है ॥२१९॥
केंद्र १।४।७।१० में शनि , मंगल आदित्य हों और आठवें चंद्रमा हो तो एकवर्ष भी जल नहीं रहता ॥२२०॥
यदि पापग्रह एक भी आठवें हो या चौथे राहु हो , मंगल नौवें हो तो तालाबका जल विष सद्दश हो जाता है ॥२२१॥
अथ शुभयोग : । एकोऽपि जीवज्ञसितासितानां स्वोच्चस्थितानां भवने स्वकीये । केंद्रत्रिकोणोपगतो नराणां शुभावहं तत्सलिलं स्थिरं स्यात् ॥२२२॥
अथ नवदुर्गपुरप्रवेशमुहूर्त्त : । रोहिणीरेवतीहस्तत्रये पुष्ये श्रवस्त्रये । अनुराधोत्तरे नव्ये पुरे दुर्गे प्रवेशनम् ॥२२३॥
इति रत्नगढनगरनिवासिना पंडितगौडश्रीचतुर्थीलालशर्मणा विरचिते
मुहूर्त्तप्रकाशेऽद्भुतनिबंधेऽष्टमं वास्तुप्रकरणम् ॥८॥
( शुभयोग ) यदि केंद्रमें या त्रिकोणमें गुरु , बुध , शुक्र , पूर्णचंद्रमा इनमेंसे एक भी हो और उच्चराशि या स्वगृहराशिका हो तो कर्ताको शुभ करे और तलाबमें जल स्थिर रहे ॥२२२॥
( नवीन किलेके प्रवेशका मु ) रो , रे , ह , चि , स्वा , पुष्य , श्र , ध , श , अनु , उ , ३ इन नक्षत्रोंमें नवीन किलेका प्रवेश करना शुभ अहि ॥२२३॥
इति मुहूर्त्तप्रकाशे , अष्टमं वास्तुप्रकरणम् ॥८॥