अथ तडागादिखनननक्षत्राणि । मूलाग्नेयममाद्विदैवभरणीसार्प्पाणि पूर्वात्रयं ज्योतिर्विद्भिरधोमुखं च नवकं भानामिदं कीर्त्तितम् ॥ वापीकूपतडागगर्तपरिखाखातो निधेरुद्धृति : क्षेपो द्यूतबिलप्रवेशगणितारंभा ; प्रप्तिद्धयंति व ॥११३॥
अथ तडागारंभनत्राणि । मैत्रेन्दुपोष्णोत्तररोहिणीषु देवेज्यवारीश्वरवारिभेषु । प्रारंभणं सर्वजलाशयानां कार्य्यं सितेंद्वंशकवारलग्ने ॥११४॥
( तालाब कूवा बावडी कुंड आदि खोदनेके नक्षत्र ) मू , कृ . म . वि . भ . आश्ले , पूर्वा ३ , यह अधोमुख संज्ञाके नक्षत्र हैं सो इनमें बावडी , कूवां , तालाब , गर्त , खाई , खजाना आदिका खोदना और जूवा , बिलमें प्रवेश करना , गणित विद्यारंभ कहना श्रेष्ठ है ॥११३॥
( तालाबले चिननेके " चेजाके " नक्षत्र ) अनु , मृ . रे . उ . रो . पुष्य , श . इन नक्षत्रोंमें और शुक्र चन्द्रमाके नवांशक , वार , लग्नमें तालाब आदिका आरंभ श्रेष्ठ है ॥११४॥
अथ तडागचक्रम् । सूर्यभाच्चंद्रभं यावद्रणयेत्सर्वथा बुध : । दिक्षु दिक्षु द्वयं न्यस्य मध्ये पंच नियोजयेत् ॥११५॥
षट्कं दद्यादारिवाहे फलं तस्य विचारयेत् । पूर्वस्यां वारिशोष : स्यादाग्नेय्यां सलिलं बहु ॥११६॥
दक्षिणस्यां वारिनाशो नैऋत्याममलं जलम् । पश्विमायां जलं स्वादु वायव्यां वारिशोषणम् ॥११७॥
उत्तरस्यां स्थिरं तोयमैशान्यां कुत्सितंजलम् । मध्ये पूर्णजलं ज्ञेयं वाहे चामृतसंज्ञकम् ॥११८॥
( तडागचक्र ) सूर्यके नक्षत्रसे चन्द्रमाके नक्षत्रतक गिन , दो दो नक्षत्र तालाबकी पूर्व आदि आठ दिशाओंमें स्थापन करे , फिर पांच बीचमें धरे ॥११५॥
छह जलके वहनेकी तरफ धरके फल विचारे , पूर्वके २ नक्षत्र जल सुकावें , अग्निकोणके २ बहुत , जल रखें ॥११६॥
दक्षिणके २ जलका नाश करें , नैऋत्यके २ जल साफ रक्खें , पश्चिमके २ जल स्वादु रक्खे , वायुकोणके २ जल सुकावें , उत्तरके २० बहुतदिनोंतक जल रक्खें , ईशानके २ नक्षत्र मलिन जल करें , और मध्यके ५ नक्षत्र तालाबको जलसे पूर्ण रक्खें , जलप्रवाहके स्थानके ६ नक्षत्र अमृतजल करें ॥११७॥११८॥
अथ पुरग्रामप्राकारादिनिर्माणमुहूर्त्त : । प्राकारपत्तनग्रामानीर्मितौ सूत्रसाधनम् । प्रशस्तं स्याच्छुभे काले गेहारम्भोक्तभादिषु ॥११९॥
अथ देवालयमठाद्यारम्भ : । गृहारम्भोक्तनक्षत्रैर्मठं कुर्यात्तु साश्विभै : । सर्वदेवालयं तैस्तु पुनर्भश्रवणान्वितै : ॥१२०॥
अथ जैनालयाद्यारंभमुहूर्त्त : । पूर्वार्द्राभरणीधिष्ण्ये रोहिण्यां च स्थिरोदये । शुभाहे जैनगेहस्य प्रपादर्यो : कृति : शुभा ॥१२१॥
अथ गृहप्रवेश : । प्रवेशं नवगेहस्य कुर्यात्मौम्यायने नर : । प्रारम्भोदितमासेऽपि कृत्वा प्राग्वास्तुपूजनम् ॥१२२॥
( नगर शहर ग्रामकी सफील ( दिवाल ) बनानेका मु . ) यदि पुर , ग्राम , गढ आदिके बाहरकी भीत ( दिवाल ) बनाना हो और सूत्र साधन करना हो तो गृहारंभके पूर्वोक्त श्रेष्ठ नक्षत्र मुहूर्त्तमें कराने शुभ हैं ॥११९॥
( देवमंदिर , मठ , धर्मशाला आदिके बनानेका मु , ) यदि देवोंके मंदिर बनाने हों तो गृहारंभके नक्षत्रोंमें और पुनर्वसु , श्रवण नक्षत्रोंमें बनाने और मठ बनाना हो तो अश्विनीसहित गृहारंभके नक्षत्रोंमें बनाना श्रेष्थ है ॥१२०॥
( जैनोंके आलयादि बनानेका मुहूर्त्त ) पूर्वा ३ , आ . भ . रो . इन नक्षत्रोंमें , स्थिर लग्नोंमें और श्रेष्ठ दिनमें जैनमतवालोंका मंदिर , जलकी पो ( प्याऊ ) गुफा करनी शुभ हैं ॥१२१॥
इति गृहाद्यारंभ । ( गृहप्रवेशका विचार ) नवीन घरका प्रवेश उत्तरायण सूर्यमें और गृहारंभके महीनोंमें वास्तुक पूजन करके करना श्रेष्ठ है ॥१२२॥
गृहप्रवेशे ग्राह्यमासविचार : । माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठा : शस्ता नवे गृहे । जीर्णादौ श्रावणो मार्ग : कार्त्तिकोऽपि प्रशस्यते ॥१२३॥
माघेर्थलाभ : प्रथमप्रवेशे पुत्राथलाभ : खलु फाल्गुने च । चैत्रेऽर्यहानिर्धनधान्यलाभो वैशाखमासे पशुपुत्रलाभ : ॥१२४॥
ज्येष्ठे च मासेषु परेषु नूनं हानिप्रद : शत्रुभयप्रदश्व । शुक्ले च पक्षे सुतरां विवृद्धयै कृष्णे च यावद्द शमी च तावत् ॥१२५॥
अथ नूतनगृहप्रवेशे त्याज्यमासा : । कुलीर ४ कुम्भ ११ कन्यार्के ६ मागोंज्जें च मधौ शुचौ । नववेश्मप्रवेशं तु सर्वथा परिवर्जयेत् ॥१२६॥
अथ जीर्णगृहादौ विशेष : । पुनर्विनिर्मिते जीर्णे गृहेऽप्युक्तस्तथव हि । आवश्यके प्रवेश ना कुर्यादस्तविचारणाम् ॥१२७॥
गृहप्रवेशमें शुभमास ) माघ , फाल्गुन , वैशाख , ज्येष्ठ यह मास नवीन घरके प्रवेशमें शुभ हैं और श्रावण , मार्गशिर , कार्त्तिक पुराने घरके प्रवेशमें श्रेष्ठ जानने ॥१२३॥
माघमं प्रवेश करे तो धनका लाभ हो , फाल्गुनमें पुत्रका , धनका लाभ करे चैत्रम धनकी हानि हो , वैशाखमें धन धान्यका लाभ हो और ज्येष्ठमें पशु पुत्रका लाभ हो , बाकीके महीने हानि करते हैं और शत्रुका भय करते हैं और शुक्ल पक्षमें तथा कृष्णपक्षकी दशमीतक नवीन घरका प्रवेश करे तो वंशकी वृद्धि हो ॥१२४॥१२५॥
( नवीन घरके प्रवेशमें निषिद्ध मास ) कर्क , कुंभ , कन्या इनके सूर्यमें और मार्गशिर , कार्त्तिक , चैत्र , आषाढ इन महीनोंमें नवीन घरका प्रवेश सर्वथा नहीं करना चाहिये ॥१२६॥
पुराने घरको फिर नवीन करते हए तथा पुराने घरमे प्रवेश करे तो अति जरूरत होनेसे शुक्र आदिके अस्तका और महीनोंका विचार नहीं करना चाहिये ॥१२७॥