अथ तृणदारुगृहारम्भे मासदोषाभाव : । पाषाणेष्टयादिगेहादि निंद्यमासे न कारयेत् । तृणदारुगृहारम्भे मासदोषो न विद्यते ॥२०॥
निंद्यमासेऽपि चांद्रस्य मासेन शुभदं गृहम् । चरलग्ने चरांशे च सर्वथा परिवर्जयेत् ॥२१॥
अथ गृहारम्भे वृषचक्रम् । अरम्भे वृषभं चक्रं स्तंभे ज्ञेयं तु कूर्मकम् । प्रवेशे कलशं चक्रं वास्तुचक्रं बुधै : स्मृतम् ॥२२॥
वास्तुचक्रं प्रवक्ष्यामि यच्च व्यासेन भाषितम् । यद्दक्षे वर्तते भानुस्तदादित्रीणि मस्तके ॥२३॥
चतुष्कमग्रपादे स्यात्पुनश्वत्वारि पश्विमे । पृष्ठे च त्रीणि ऋक्षाणि कुक्षौ चत्वारि दक्षिणे ॥२४॥
चत्वारि वामत : कुक्षौ पुच्छे भत्रयमेव च । मुखे भत्रयमेवं स्युरष्टाविंशतितारका : ॥२५॥
पाषाण मिट्टी आदिका घर निंदित मासोंमें नहीं करे और तृण दारु ( काष्ठ ) आदिके गृहारंभमें मासदोष नहीं हैं ॥२०॥
निंदित मासमें भी चांद्रमासके हिसावसे गृहारंभ शुभ है , परंतु , चरलग्न और चर नवांशक सर्वथा ही वर्जनीय है ॥२१॥
( वास्तुचक्र ) गृहारंभमें वास्तुचक्र देखना , स्तंभस्थापनमें कॄर्मचक्र और गृहप्रवेशमें कलशचक्र देखना चाहिये , यह तीन प्रकारके वास्तुचक्र है ॥२२॥
अव व्यासजीकरके कहा हुआ वास्तुचक्र कहते हैं , सूर्यके नक्षत्रसे ३ नक्षत्र वास्तुके मस्तक ( शिर ) के है , फिर ४ अगाडीके पगों ( पैरों ) के हैं , पछाडीके पगोंके हैं , ३ पीठके हैं , ४ दक्षिणकूखके हैं , ४ वामकूखके हैं , ३ पुच्छके हैं , फिर ३ मुखके हैं इप्ततरह २ . ८ नक्षत्र जानने ॥२३॥२४॥२५॥
अथ फलम् । शिरस्ताराग्निदाहाय गृहोद्वासोऽग्रपादयो : । स्थैर्यं स्यात्पश्विमे पादे पृष्ठे चैव धनागम : ॥२६॥
कुक्षौ स्याद्दक्षिणे लाभो वामकुक्षौ दरिद्रता । पुच्छे स्वामिविनाश : स्यान्मुखे पीडा निरंतरम् ॥२७॥
अथ खणनमुहूर्त्त : । तत्र तावद्भूशयनविचार : । प्रद्योतनात्पंच ५ नगां ७ क ९ सूर्य्य १२ नवेंदु १९ षडविंश २६ मितानि भानि ॥ शेते मही नैव गृह विदध्यात्तडागवापीखननं न शस्तम् ॥२८॥
द्वितीय : प्रकार : । बाणा : ५ सप्त ७ शिवा ११ निधि ९ स्तिथि १५ नखा २० द्वाविंश २२ वह्नयम्बका २३ अष्टाविंशति २८ वासरे च शयने संक्रातिघस्त्रं त्यजेत् ॥२९॥
अधोमुखे च नक्षत्रे शुभेऽह्नि शुभवासरे । चंद्र्तारानुकूल्ये च खननारंभणं शुभम् ॥३०॥
शिरके ३ नक्षत्रोंमें गृहारंभ करे तो घर अग्निसे दग्ध हो , अगाडीके पगोंके ४ नक्षत्रोंमें धनप्राप्ति हो ॥२६॥
दक्षिण कूखके ४ नक्षत्रोंमें लाभ हो , वाम कूखके ४ नक्षत्रोंमें दरिद्र हो , पुच्छके ३ नक्षत्रोंमें स्वामीका नाश हो और मुखके ३ नक्षत्रोंमें गृहारंभ करे तो पीडा हो ॥२७॥
( खननेका सुहूर्त्त ) ( भूमिशयनका विचार ) सूर्यके नक्षत्रसे ५ । ७ । ९ । १२ । १९ । २६ इतने नक्षत्रोंमें भूमि सोती है सो घर नहीं करना और तालाब , बावडी , कूवा आदि खोदना नहीं चाहिये ॥२८॥
( दूसरा प्रकार ) सूर्यकी संक्रांतिसे ५ । ७ । ११ । ९ । १५ । २० । २२ । २३ । २८ । इतने दिनोंमें पृथ्वी सोती है सो गृहारंभ नहीं करना ॥२९॥
मू , आश्ले . म . पू . ३ वि . भ . कृ . इन अधोमुख नक्षत्रोमें और शुभ दिन वारोंमें चंद्र तारा बलवान् होनेसे घरके खोदनेका आरंभ करना श्रेष्ठ है ॥३०॥
अथ गृहारंभखनने शेषचक्रम् । कन्या ६ सिंहे ५ तुला ७ यां भुजगपतिमुखं शंभुकोणेऽग्निखातं वायटये स्यात्तदास्यं त्वलि ८ हय ९ मकरे १० चेशखातं वदति । कुम्भे ११ मीने १२ च मेषे १ निऋतिदिशिमुखं खातवायव्यकोणे चाग्न्ये कोणे मुखं वै वृष २ मिथुन ३ गते कर्कंटे ४ रक्षखातम् । अथ सुगमतया गृहे खातदिक्स्षष्टीकरणम् । आग्नेय्यां खननं कुर्यात्सिंहाद्राशित्रये ५ । ६ । ७ रवौ । ऐशान्यां च तथा चोक्तं वृश्विकादित्रये ८ । ९ । १० रवौ ॥ कुंभादित्रितये ११ । १२ । १ वायौ नैऋत्यां वृषभत्रये २ । ३ । ४ ॥३१॥
अथ देवालयादिषु विशेष : । देवालये त्रये मीना १२ द्रेहे सिंहा ५ द्रवौ स्थिते । जलाशये मृगाद्वास्तीर्मुखमीशाद्विलोमत : ॥३२॥
अथ गृहारभे लग्नानि तत्फलं च । नाश दिशंति मकरा १० लि ८ कुलीर ४ लग्ने मेषे १ घटे ७ धनुषि ९ कर्मसु दीर्घसूत्रम् । कन्या ६ झषे १२ मिथुनगे ३ ध्रुवमर्थलाभ ज्योतिर्विद : कलश ११ सिंह ५ वृषेषु २ सिद्धिम् ॥३३॥
अथ लग्नबलविचार : । द्विस्वभावे स्थिरे लग्ने शुभैर्व्यष्टांत्यगैर्ग्रहै : । पापैरायारिगै : कुर्यान्मदिरारंभणं बुध : ॥३४॥
जन्मभाच्चोपचयभे लग्ने वर्ग्गे तथैव च । प्रारंभणं प्रकुर्वीत नैधनं परिवर्जयेत् ॥३५॥
पापैस्त्रि ३ षष्ठी ६ य १२ गतै : सौम्यै : केंद्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोण ९ । ५ गै : । निर्माणं कारयेद्धीमानष्टमस्थै : खलैर्मुति : ॥३६॥
( खोदनेमें शेषका चक्र ) कन्या , सिंह , तुलाके सूर्यमें शेषका मुख ईशानकोणमें होता है इसवास्ते अग्निकोणमें खोदना चाहिये और वृश्चिक , धन , मकरके सूर्यमें वायुकोणमें मुख है सो ईशानकोणमें खोदना ; कुम्भ , मीन , मेषके सूर्यमें नैफत्य कोणमें मुख है सो वायुकोणमें खोदना शुभ है , और वृष , मिथुन , कर्कके सूर्यमें अग्निकोणमें मुख है सो नैऋत्यकोणमें खात , करना श्रेष्ठ है ॥३१॥
( मंदिर आदिके खननेका विचार ) देवमंदिरके आरंभमें मीनके संक्रांतिसे और घरके आरम्भमें सिंहसे और तालाब आदि जलाशयोके आरूम्भमें , मरके सूर्यसे तीन तीन राशियोंमें ईशान आदि विदिशाओंमें वामक्रमसे वास्तुका मुख जानना ॥३२॥
( गृहारंबका लग्न ) मकर , वृश्विक , कर्क लग्नमें गृहारम्भ करे , तो नाश हो : मेष तुला , धनमें दीर्घसूत्री ( आलसी ) हो ; कन्या , मीन , मिथुनमें धनका लाभ हो और कुम्भ , सिंह , वृष लग्नमें करे तो सिद्धि होवे ॥३३॥
द्विस्वभाव या स्थिर लग्न हो और बारहवें आठवें स्थानके विना शुभग्रह , ग्यारहवें , छठे पापग्रह हो तो गृहारभ करना शुभ है ॥३४॥
जन्मराशिसे ३ । १० । ११ । ६ इन राशियोंके लग्नमें तथा नवांशकमें घरका आरंभ श्रेष्ठ है परंतु आठवीं राशि वर्जनी चाहिये ॥३५॥
पापग्रह तीसरे छठे ग्यारहवें होवे और शुभग्रह केंद्र १।४।७।१० त्रिकोण ९।५ में हों तो गृहारंभ करना श्रेष्ठ है और आठवें पापग्रह हो तो मृत्यु होती है ॥३६॥