यात्राप्रकरणम्‌ - श्लोक ११५ ते १५६

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ यात्रायां शकुना : । तत्र तावच्छुभा : ॥ दधि दूर्वाऽक्षता रौप्यं पूर्णकुंभोऽथ सर्षपा : । दीपो गोरोचनादर्शप्रज्वलद्धव्यवाहना : ॥११५॥

वेदघोष : शुभा वाचो जयमङ्गलसंयुता : । शंखदुंदुभिवीणादिमृदुमर्दलनि : स्वना : ॥११६॥

सिद्धमन्नं च तांबूलं मीनो दुग्धं घृतं मधु । मदिरा रुधिरं मांसं भक्ष्यं नानाविधं फलम्‌ ॥११७॥

इक्षव : सितपूष्पाणि पद्ममुद्धृतगोमयम्‌ । घ्वज : सिंहासनं छत्रं कृपाणांकुशमायुधम्‌ ॥११८॥

दोलावितानसद्वस्त्रं रत्नालंकारदीपिका : । विप्रो भूपो गुरुर्वृद्ध : पुत्रपौत्रादिभिर्वृत ॥११९॥

दैवज्ञ : कन्यका योषा सुभगा पुत्रसंयुता । वारांगना तपस्वी च वदान्योऽथ नर : शुचि : ॥१२०॥

रजको धौतवस्त्रं च शवं रोदनवर्जितम्‌ । तोयार्थी पूर्णकुम्भश्वानुग : पृष्ठे मृदोंऽजनम्‌ ॥१२१॥

गजो वाजी रथो धेनु : सवत्सा तु विशेषत : । श्वेतो वृषोऽन्यवणोंऽपि बद्ध एकस्तदा शुभ : ॥१२२॥

वर्णी स्वमित्रमुष्णीषं दर्भो हंसो मयूरक : । नकुलश्व भरद्वाजश्वाषश्छागस्तथैव च ॥१२३॥

चित्तोत्साहकरं वस्तु शुभान्येतानि दर्शनात्‌ ॥ कीर्त्तनाच्छ्रवणं श्रेष्ठं श्रवणात्तु विलोकनम्‌ ॥१२४॥

दर्शनात्स्पर्शनं चैषां दध्यादीनां गमादिषु । शुभदं दर्शनं येषामभिवाद्यैव तान्नर : ॥१२५॥

कृत्वा दक्षिणत : सर्वान्‌ गच्छन्‌ सिद्धिमवाप्नुयात्‌ । पुरत : शब्द एहीति शस्यते नतु पृष्ठत : ॥१२६॥

गच्छेति पश्वाच्छुभद : पुरस्ताच्च विगर्हित : । रिक्त : कुम्भो‍ऽनुकूलस्थ : शस्तोऽम्भोऽर्थी यियासत : ॥१२७॥

चौर्य्यविद्यावणिज्यार्थमुद्यतानां विशेषत : ॥१२८॥

शुभाशुभानि कर्माणि निमित्तानि स्युरेकत : ॥ एकतस्तु मनो यातुस्तद्धि शुद्धं जयाबहम्‌ ॥१२९॥

( यात्राके श्रेष्ठ शकुन ) दही , दूर्वा , चावल , चांदी , जलपूर्ण कुंभ , सरसों , दीपका , गोरोचन , दर्पण , जलती हुई अग्नि ॥११५॥

वेदका शब्द , श्रेष्ठ वचन , जयमंगलशब्द , शंख , दुंदुभी , बंसरी , ढोल आदिका शब्द ॥११६॥

पक्कान्न , तांबूल , मच्छी , दुग्ध , घृत , शहद , मदिरा , रुधिर , मांस , भक्ष्य पदार्थ , नानातरहके फल ॥११७॥

ईख , श्वेतपुष्प , कमल , उठाया हुआ गोमय , ध्वजा , सिंहासन , छत्र , खड्‍ग , अंकुश , आयुध ॥११८॥

पालखी , चांदनी , श्रेष्ठ वस्त्र , रत्न , आभूषण , दीवट या लालटेन ब्राह्मण , राजा , गुरु , वृद्ध , पुत्रपौत्रसहित मनुष्य ॥११९॥

ज्योतिपी ,, कन्या , पुत्रसहित सुहागिन , स्त्री , वेश्या , तपस्वी , दानी , शुद्ध पुरुष ॥१२०॥

धोबी , धोया वख , रोदनरहित मुर्दा , पृष्ठ भागमें जलकी कामनावाला , जलपूर्ण कुंभ , मिट्टी , अंजन ॥१२१॥

हस्ती , घोडा , रथ , बछडासहित धेनु , श्वेतवृषभ , रस्सीसे बंधा हुआ वृषभ इत्यादि सन्मुख मिलें तो श्रेष्ठ ॥१२२॥

ब्रह्मचारी , विप्र , मित्र , पगडी , दर्भ , हंस , मथूर , नकुल , भारद्वाजपक्षी , पपैह्य : बकरा ॥१२३॥

चित्तकी प्रसन्नता करनेवाली वस्तु इत्यादि सम्मुख देखनेमें शुभदायक हैं । कहनेसे सुनना श्रेष्ठ जानना और सुननेसे देखा हुआ शकुन श्रेश्ठ होता है ॥१२४॥

देखनेसे यात्रामें दही आदिको स्पर्शकरना श्रेष्ठ है और जिनको देखना ही शुभ माना गया है जैसे मारवाड देशमें सोनचिडी , श्वेतचिडी जंगलकी देखनेमें ही श्रेष्ठ हैं सो उनको नमस्कार करलेना चाहिये ॥१२५॥

यह संपूर्ण वस्तु कही हुई सम्मुख मिलें तो गमन समयमें दक्षिण भागमें लेनेसे सिद्धि होती है , अगाडीको आओ ऐसा शब्द कोई संमुख कहे तो श्रेष्ठ है और पीछेसे आओ ऐसा शब्द कोई कहे तो श्रेष्ठ नहीं है ॥१२६॥

पीछेसे चलो ऐसा शब्द शुभ है और आगेसे नेष्ट , जलरहित कुंभलिये हुए गैलसे जलकामनाके वास्ते आता हो तो श्रेष्ठ जानना चाहिये ॥१२७॥

यह शकुन चौरको , विद्याका मना और वाणिज्य कामनावालेको विशेषतासे श्रेष्ठ जानना ॥१२८॥

जितने शुभ अशुभ कर्म हैं तथा शकुन हैं सो एक तरफ और जानेवालेका प्रसन्न चित्त एक तरफ है , परंतु चित्त प्रसन्नतासे जैसा कार्य सिद्ध होता है वैसा अन्यबातोंसे नहीं होता है ॥१२९॥

अथ दु : शकुना : । कार्पासं कृष्णधान्यं च लोहकारश्व रोदनम्‌ । लोहं च रक्तपुष्पाणि गुडस्तैलं क्षुतं तथा ॥१३०॥

पिण्याकं तृणतक्राणि भस्मास्थि लवणं तुष : । पाषाणेंधनचर्माणि सधूमो वह्निरौषधम्‌ ॥१३१॥

मत्तो वांत : खलो हिंस्त्री मुण्डितश्व बुभुक्षित : । जटिलश्च तथा रोगी संन्यासी मलिनो रिपु : ॥१३२॥

खंजो नग्नांगहीनश्च तैलाश्र्यक्तोऽथ गर्भिणी । कषायवस्त्रधारी च मुक्तकेशोऽथ पाश वान्‌ ॥१३३॥

वन्ध्या च श्रृंखले चौर : षंढो यानपलायनमं‌ । खरोष्ट्रमहिषारूढा : कुवाक्र्यश्रवणं तथा ॥१३४॥

कृष्णसर्पोऽथ मंडूक : सरटो ग्रामसूकर : । कृपण : पतितो व्यंए : कुब्जोंऽधो बधिरां जड : ॥१३५॥

आर्द्रावासोऽथ विधवा स्वर्णकारो रजस्वला । उपानत्कर्दमांगी च पुरीषं च वसा तृणम्‌ ॥१३६॥

रजस्वला पुष्प कृष्णोक्षा महिषो वृष : । स्वगेहदहनं युद्धं मार्जार : स्वगृहे कलि : ॥१३७॥

गोक्षुतं प्राणिनामंयशिर : श्रोत्रप्रकंपनम्‌ । मार्जारान्मार्गरोधश्व स्स्वलनं रिक्तकुंभक : ॥१३८॥

एते दुःशकुना याने सर्वकार्यनिषेधका : । छिक्का बिडालसर्पाश्र्यां मार्गरोधो म्रुतेर्वच : ॥१३९॥

मार्जारं माहिषं युद्धं शुन : कर्णप्रकंपनम्‌ । अतिधूमाचितो वह्नि : षडेते मरणप्रदा : ॥१४०॥

क्व यासि तिष्ठ आगच्छ किं ते तत्र गतस्य तु । अन्ये शब्दाश्व येऽनिष्टास्ते विपत्तिकरा अपि ॥१४१॥

( अथ दुष्ट शकुन ) कपास , तिल , उडद आदि कृष्ण अन्न , लोहार , रुद्रन , लोह , रक्तपुष्प , गुड , तैल , छीक ॥१३०॥

तिल , खल , तृण , तक्र , भस्म , हड्डी , लूण , तुष , पत्थर काठ , चर्म , धूँवांसहित अग्नि , औषधी इत्यादि सम्मुख निषिद्ध हैं ॥१३१॥

उन्मत्त , वमनकृत्‌ , खल , हिंसक , शिर मुंडा हुआ , बुभुक्षित अर्थात्‌ भूखसे मरता हुआ . जटाधारी , रोगी , संन्यासी , मलिन , शत्रु ॥१३२॥

खोडा . नंगा , अंगहीन , तैल लगाया हुआ . गर्भिणी स्त्री , भगवा भेषधारी , खुला केशवाला , रस्सी लिये हुए ॥१३३॥

वंध्या स्त्री , बेडी डाला हुआ खोटी जबानका सुनना ॥१३४॥

काला सर्प . मंडूक , सरट , ( किरडा ), ग्रामके सूकर , कृपण , पतित , काना , अंधा , कुवडा , बोला ( बहरा ), मूर्ख ॥१३५॥

गीला वस्त्र पहरे हुए , विधवा स्त्री , सुनार , रजस्वला , जूता , कादो लगा हुआ . विष्ठा , चबीं , सूका तृण ॥१३६॥

काला वृषभ , भैंसा , सांड , अपने घरका दग्ध होना , लडाई होना , मार्जार , घरमें कलह ॥१३७॥

गौकी छींक , श्वान आदि जीवोंका शिर तथा कान हिलाना , मार्जारका आगे हाकर जाना , अखडना ( ठोकर लगना ), रीता घडा मिलना ॥१३८॥

इत्यादि दुष्ट शकुन यात्रामें कार्यका नाश करते हैं और छींक होना , बिलाव या सर्प मार्गको रोके , मृत्युका वचन सुने ॥१३९॥

मार्जार महिषका युद्ध होता हो या कुत्ता कानोंको फट्‌ फट्‌ करता हो , बहुतसे धुंएँकी अग्नि आती हो तो यह मृत्युके देनेवाले खोटॆ शकुन जानने चाहिये ॥१४०॥

कहां जाता है , खडा रह , पीछा , आव , वहां जानेमें क्या तेरा प्रयोजन है इत्यादि बहुतसे अनिष्ट शब्द विषत्तिके करनेवाले जानने चाहियें ॥१४१॥

अथ पक्षिशुभशकुनानि । सूकरी कोकिला पल्ली छुच्छुका पिंगला रला । पोतकी च शिवा सर्वे पुमाख्या वामगा : शुभा : ॥१४२॥

मध्याद्वोत्तग्त : श्रेष्ठौ चाषबश्रू च वामगौ । खरोलूकश्रृगालानां वामे पृष्ठे शुभ : स्वन : ॥१४३॥

श्रीकंठो वानरो भास : श्रेतस्तु चटको रुरु : । श्वा ऋक्षो वायस : श्रेष्ठा : स्त्रीसंज्ञाश्वापि दक्षिणे ॥१४४॥

प्रदक्षिणगता : शस्ता याने तु मृगपक्षिण : । श्रृगाल : सारमेयश्व दक्षिणाद्वामग : शुभ : ॥१४५॥

( पक्षीके शकुन ) सूरडी ( शूकरी ), कोकिला , छिपकली , छुछुका , पिंगला , रला , पोतकी , शिवा ( गीदडी ) और संपूर्ण पुरुषसंज्ञक जानवर वामभागमें श्रेष्ठ हैं ॥१४२॥

पपैया , नोलिया इनका बीचसे वाम भागको जाना श्रेष्ठ माना है , खर , उलूक , गीदड , इतने जानवरोंका शब्द ( बोलना ) वागभागमें और पीठमें श्रेष्ठ है ॥१४३॥

मयूर , वानर , भास ( शिकरा ), पक्षी , श्वेतचिडी अर्थात्‌ जिसको सोनचिडी तथा भवानी भी कहते हैं , रुरुजातिका मृग , श्वान , रिच्छ , कागला और स्त्रीसंज्ञक जानवर दक्षिणभागमें लेनेसे श्रेष्ठ हैं ॥१४४॥

यात्रामें मृग तथा पक्षी प्रदक्षिणा ( दहना ) आवे तो श्रेष्ठ है , गीदड , श्वान , यह दक्षिण भागसे वामभागमें आवें तो शुभ हैं ॥१४५॥

अथ दुष्टशकुनपरिहार : । द्दष्टे निमित्ते प्रथमे अमंगल्यविनाशनम्‌ । केशवं पूजयेद्विद्वान्‌ स्तवेन मधुसूदनम्‌ ॥१४६॥

द्वितीये तु ततो द्दष्टे प्रतीपे प्रविशेद्‌गृहम्‌ । अत्यावश्ये तु सघृतं स्वर्णं दत्त्वा व्रजेत्सुखम्‌ ॥१४७॥

अथ छिक्काशकुने विशेष : ॥ छिक्काशब्दं प्रवक्ष्यामि पूर्वस्यामशुभं फलम्‌ । आग्नेय्यां शोकदु : खं स्यादरिष्टं दक्षिणे तथा ॥१४८॥

नैऋत्यां च शुभं प्रोक्तं पश्विमेम मिष्टभक्षणम्‌ । वायव्ये धनलाभस्तु उत्तरे कलहस्तथा ॥१४९॥

ईशान्यां च शुभं ज्ञेयमात्मछिक्का महद्भयम्‌ । ऊर्ध्वं चैव शुभं ज्ञेयं मध्ये चैव महद्भयम्‌ ॥१५०॥

बुधौश्छिक्कारव श्रुत्वा पादच्छायां च कारयेत्‌ । त्रयोदशयुतां कृत्वा चाष्टभिर्भागमाहरेत्‌ ॥१५१॥

लाभ : सिद्धिर्हानिशोकौ भयं श्रीदु : खनिष्फले । क्रमेणैव फलं ज्ञेणं गर्णेण च यथोदितम्‌ ॥१५२॥

( दुष्टशकुनपरिहार ) यदि प्रथम ही अशुभ शकुन हो तो कृष्ण भगवानका पूजन करे और सहस्त्रनामसे स्तुति करके गमन करे ॥१४६॥

यदि दूसरा शकुन भी खोटा हो तो पीछा घरको आजाना चाहिये , यदि अतिही जरूरत हो तो घृतसहित सूवर्णका दान करके गमन करे ॥१४७॥

( छींकका विचार ) गमन समयमें पूर्वको छींक हो तो अशुभ फल है , ; अग्निकोणमें हो तो शोक , दु : ख हो , दक्षिणमें हो तो अरिष्ट हो ॥१४८॥

नैऋत्य कोणमें हो तो श्रेष्ठ जनना , पश्चिममें हो तो मिष्टान्न मिले , वायव्य कोणमें हो तो लाभ हो , उत्तरमें हो तो कलह होवे ॥१४९॥

ईशान कोणमें हो तो शुभ है , यदि खुद जानेवालेको ही छीक होजावे तो महान्‌ भय हो , ऊपरको छींक हो तो श्रेष्ठ जाननी और बीचमें हो तो महान्‌ भय होता है ॥१५०॥

प्रथम छींकाका शब्द सुनते ही शरीरकी छायाको पैरोंसे मापे और जितने पैंड होंवें उनमें फिर तेरह मिलाके आठका भाग देवे ॥१५१॥

यदि एक बचे तो लाभ हो , दो बचे तो सिद्धि , तीन बचे तो हानि , चार बचे तो शोक , पांच बचे तो भय , छ : बचे तो श्री , सात बचे तो डु : ख , आठ बचे तो कार्य निष्फल हो । इस प्रकार गर्गाचार्यने छींकका फल कहा है ॥१५२॥

अथ यात्रानिवृतौ प्रवेशे मुहूर्त्त : । कुर्यात्प्रवेशं यात्राया निवृत्तौ निजमंदिरे । श्रेष्ठे वारे गुरौ शुक्रे बुधे चन्द्रे शनैश्वरे ॥१५३॥

चित्रोत्तरानुराधाख्ये रोहिणीरेवतीमृगे । त्यक्त्वा रिक्ताममां सूर्यं भौमं लग्नं चरं लवम्‌ ॥१५४॥

स्वस्य नाश : प्रवेशे स्यात्पूर्वासु भरणीमघे । आर्द्राऽऽश्लेषाभिधे मूले ज्येष्ठायां पुत्रनाशनम्‌ ॥१५५॥

कृत्तिकायां गृहे दाहो विशाखायां मृति : स्त्रिया : । स्थिरेंऽगेशे शुभैरर्थं केंद्रकोणत्रिलाभगै : ॥१५६॥

पापैर्लाभत्रिषट्‌संस्थै : शुद्धे तुर्ये ४ तथाऽष्टमें । प्रवेशो हि शुभो नृणां विजनुर्भाष्टमे स्मृत : ॥१५७॥

इति श्रीरत्नगढनगरनिवासिना पंडितगौडश्रीचतुर्थीलालशर्मणा विरचिते

मुहूर्त्तप्रकाशे अद्‌भुतनिबन्धे सप्तमं धनाद्यर्थयात्राप्रकरणम्‌ ॥७॥

( यात्राप्रत्यावृत्तिमें प्रवेश मुहूर्त्त ) यात्रासे निवृत्ति होके अपने घरमें गुरु , शुक्र , बुध , चन्द्र , शनिवारको प्रवेश होना श्रेष्ठ है ॥१५३॥

चित्रा , तीनों उत्तरा , अनुराधा , रोहिणी , रेवती , मृगशिर इन नक्षत्रोंमें और रिक्ता ४ । ९ । १४ अमावस्याके विना अन्यतिथियोंमें और सूर्यवार , मंगलवार , चरलग्न १।४।७। १० त्यागके गृहमें प्रवेश होना श्रेष्ठ है ॥१५४॥

यदि तीनों पूर्वा , भरणी , मघामें प्रवेश हो तो आपका नाश हो और आर्द्रा , आश्लेषा , मूल , ज्येष्ठामें प्रवेश हो तो पुत्रका नाश हो ॥१५५॥

कृत्तिकामें हो तो अग्निसे घर जले , विशाखामें हो तो स्त्रीकी मृत्यु हो , स्थिरलग्न हो या लग्नेश स्थिरराशिपर हो और शुभग्रह केंद्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोण ९ । ५ तीसरे ग्यारहवेंमें हो तो धन प्राप्ति होती है । पापग्रह ११ । ३ । ६ हों तथा चौथा आठवां स्थान ग्रहरहित हो और जन्मराशि आठवें नहीं हो तो घरमें प्रवेश होना शुभ है ॥१५६॥

इति मुहूर्त्तप्रकाशे सप्तम यात्राप्रकरणम्‌ ॥७॥

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Last Updated : November 11, 2016

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