यात्राप्रकरणम्‌ - श्लोक ३५ ते ५६

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ दिशापरत्वे सम्मुखचन्द्र : । मेषे व सिंहे धनुषीन्द्रभागे वृषे च कन्या मकरे च याम्याम्‌ । तुले च कुम्भे मिथुने प्रतीच्यां कर्कालिमीने दिशि चोत्तरस्याम्‌ ॥३५॥

अथ चन्द्रफलम्‌ सम्मुखे हार्थलाभाय दक्षिणे सुखसम्पदे । पृष्ठतो मरणं दद्याद्वामे चंद्रे धनक्षय : ॥३६॥

अथ सम्मुखचंद्रे विशेषफलम्‌ । करणभगणदोषं वारसंक्रांतिदोषं कुतिथिकु लिकदोष यामयामार्द्धदोषम्‌ । कुजशनिरविदोषं राहुकेत्वादिदोषं हरति सकलदोषं चद्रमा सम्मुखस्थ : ॥३७॥

अथ कुंभमीनचंद्रे वर्जित कर्म । शय्यावितान प्रेताग्निक्रिया काष्ठतृणार्जनम्‌ । याम्यदिग्गमनं कुर्यान्न चद्रे कुंभमीनगे ॥३८॥

( दिक्‌चन्द्रमा ) मेष १ , सिंह ५ , धन ९ का चन्द्रमा पूर्वमें रहता है , वृप २ , कन्या ६ , मकर १० का दक्षिणमें , तुला ७ , कुम्भ ११ , मिथुन ३ का पश्चिममें और कर्क ४ , वृश्चिक ८ , मीन १२ का चन्द्रमा उत्तर दिशामें रहता है ॥३५॥

( चन्द्रफल ) संमुख चन्द्रमा धनका लाभ करे , दक्षिण भागमें मुख संपति करे पिछाडी मृत्यु करे और बांयां चन्द्रमा धनका नाश करे ॥३६॥

( सम्मुख चन्द्रमाका विशेष फल ) करणदोष , नक्षत्रदोष , वारदोष , संक्रांतिदोष , दुष्टतिथिदोष , कुलिकदोष , प्रहरार्द्ध वारवेलादोष , मंगल , शनि , रवि , राहु , केतुके दोष सम्मुख चन्द्रमा दूर करता है ॥३७॥

( पंचकवर्जितकर्म ) कुम्भ ११ , मीन १२ के चन्द्रमामें खाट बनाना , प्रेतका दाह , प्रेतक्रिया , काष्ठ , घास आदिका लेना , दक्षिणदिशामें गमन इत्यादि कार्य नहीं करने चाहियें ॥३८॥

अथ घातचन्द्र : । चंद्र १ भूत ५ ग्रहा ९ नेत्र २ रस ६ दिग्‌ १० वह्नि ३ सागरा : ७ । वेदा ४ ष्टक ८ शिवा ११ दित्या १२ घातचंद्रा : प्रकीर्त्तिता : ॥३९॥

प्रयाणकाले युद्धे च कृषौ वाणिज्यसंग्रहे । वादे चैव गृहारंभे घातचद्रं तु वर्जयेत्‌ ॥४०॥

अथ घाततिथ्यादि । घाततिथिं घातवारं घातनक्षत्रमेव च । यात्रायां वर्जयेत्प्राज्ञैरन्यकर्मसु शोभनम्‌ ॥४१॥

मेषे रविर्मघा प्रोक्ता षष्ठी प्रथमचंद्रमा : । वृषभे पंचमो हस्तश्चतुर्थी शनिरेव च ॥४२॥

मिथुने नवम : स्वाती अष्टमी चंद्रवासर : । कर्के द्विरनुराधा च बुध : षष्ठी प्रकीर्त्तिता ॥४३॥

सिंहे षष्ठश्चंद्रमाश्व दशमी शनिमूलके । कन्यायां दशमश्वंद्र : श्रवण : शनिरष्टमी ॥४४॥

तुले गुरुर्द्रादशी स्याच्छतं तृतीयचन्द्रमा : । वृश्विके रेवती सप्त ७ दशमी भार्गवस्तथा ॥४५॥

चापे चतुर्थो भरणी द्वितीया भार्गवस्तथा । मकरेऽष्टमी रोहिणी द्वादशी भौमवासर : ॥४६॥

कुंभ एकादशश्वार्द्रा चतुर्थी गुरुवासर : । मीने च द्वादश : सार्ध द्वितीया भार्गवस्तथा ॥४७॥

( घातंचंद्रविचार - इशमें यह वचन है ) मेषराशिको जन्म १ का चन्द्रमा घातक है , वृषको पांचवां , मिथुनको भौवां , कर्कको दूसरा , सिंहको छठा , कन्याको दशवां , तुलाको तीसरा , वृश्विकको सातवां , धनको चौथा , मकरको आठवां , कुंभको ग्यारहवां , मीनको बारहवां चन्द्रमा घातक है ॥३९॥

धानद्यर्थ यात्रामें , युद्धमें , खेती करनेमें , वाणिज्य संग्रहमें और विवादमें तथा गृहारंभमें घातक चन्द्रमा वर्जना चाहिये ॥४०॥

( घाततिथ्यादि ) घाततिथि , घातवार , घातनक्षत्र संपूर्ण यात्रामें ही वर्जित हैं परंतु अन्यकार्योंमें तो श्रेष्ठ जानने ॥४१॥

मेषराशिको आदित्यवार , मघानक्षत्र , षष्ठीतिथि , जन्मका चन्द्रमा घातक जानना , वृषराशिको पांचवं चन्द्रमा , हस्त , चतुर्थी , शनिवार घातका हैं ॥४२॥

मिथुनको नौंवां चन्द्रमा , स्वाती , अष्टमी , सोमवार घातक हैं । कर्कको दूसरा चन्द्रमा , अनुराधा , बुध , षष्ठी तिथि घातक हैं ॥४३॥

सिंहको छठा चन्द्रमा , दशमी , शनि , मूल नक्षत्र और कन्याको दशवं चन्द्रमा , श्रवण , शनिवार , अष्टमी घातक हैं ॥४४॥

और तुलाको गुरुवार , द्वादशी , तीसरा चंद्रमा , शतभिषा नक्षत्र घातक है , वृश्चिकको रेवती , दशमी , सातवां चन्द्रमा , शुक्रवार घातक हैं ॥४५॥

धनको चौथा चन्द्रमा , भरणी , द्वितीया , शुक्रवार घातक हैं और मकर राशिको आठवां चन्द्रमा , रोहिणी , द्वादशी , मंगलवार घातक हैं ॥४६॥

कुंभको ग्यारहवां चन्द्रमा , आर्द्रानक्षत्र , चतुर्थी , गुरुवार घातक हैं और मीन राशिको बारहवां चद्रमा , आश्लेषानक्षत्र , द्वितीया , शुक्रवार घातक हैं ॥४७॥

अथ दिशीशा ग्रहा : । रवि : शुक्रो महीसुनु : स्वर्भानुर्भानुजो विधु : । बुधो बृहस्पतिश्वेति दिशामीशास्तथा ग्रहा : ॥ दिगीशाहे शुभा यात्रा पृष्ठाहे मरणं ध्रुवम्‌ ॥४८॥

अथ दिग्द्वारराशय : । पूर्वादिदिक्षु मेषाद्या : क्रमाद्दिग्द्वारराशय : । न तच्छुद्धिवशात्सर्वे तद्दिग्यातु : शुभप्रदा : । तद्वर्गाश्व तदंशाश्व ज्ञातव्या वै तथाविधा : ॥४९॥

( दिगीश ग्रह ) रवि पूर्वका अधिपति १ , शुक्र अग्नि कोणका २ , मंगल दक्षिणका ३ , राहु नैऋत्यकोणका ४ , शनि पश्चिमका ५ , चन्द्रमा वायव्य कोणका ६ , बुध उत्तरका ७ , बृहस्पति ईशान कोणका ८ अधिपति है । दिशाके मालिकके वारको यात्रा करे तो शुभ है , और पीठके वारकी यात्रामें मरण होता है ॥४८॥

( दिग्द्वारराशि ) मेष १ , सिंह ५ , धन ९ पूर्वकी दिग्द्वार राशि हैं , वृष २ , कन्या ६ , मकर १० दक्षिणकी दिग्द्वार राशि जाननी , मिथुन ३ , बुला ७ , कुंभ ११ पश्चिमकी दिग्द्वार रशि हैं और कर्क ४ , वृश्विक ८ , मीन १२ उत्तरकी दिग्द्वार राशि जाननी । दिग्द्वारकी शुद्धिके विना और दिग्द्वार राशिके तथा इनके नवांशक बलके विना यात्रा शुभफलदायक नहीं होती है ॥४९॥

अथ लग्नविचार : । चरलग्ने प्रयातव्यं द्विस्वभावे तथा नरै : । लग्ने स्थिरे न गतव्यं यात्रायां क्षेममीप्सुमि : ॥५०॥

द्वितीय : प्रकार : । लग्ने कार्मुक ९ मेष १ तौलिनि ७ गमे कार्यं विलंबान्नृणां पंचत्वं मकरे तथैव च घटे ११ तद्वत्फलं वृश्विके । सिंहे कर्कटके वृषे परिगत : सर्वार्थसिद्धिं लभेत्कन्यामीनगतस्तथैव मिथुने सौख्यं शुभान्नं वसु ॥५१॥

अथ स्थिरलग्नपरिहार : । दिग्द्वारभे लग्नगते यात्राऽर्यविजयप्रदा । लग्ने दिक्प्रतिलोमे सा हानिदा शत्रुभीतिदा ॥५२॥

जन्मराशौ लग्नगते तदीशे वा विलग्नगे । अभीष्टफलदा यात्रा राशीशश्वेच्छुभो ग्रह : ॥५३॥

अथ त्याज्यलग्नौ । कुंभ : कुंभनवांशश्व लग्ने त्याज्य : प्रयत्नत : । मीनलग्ने तदंशे वा यातुर्मार्गोऽतिदु : खद : ॥५४॥

अथ समयबलयात्रा । पूर्वाह्णेऽप्युत्तरां गच्छेत्प्राचीं मध्यंदिने तथा । दक्षिणां चापराह्ने तु पश्चिमामर्द्धरात्रिके ॥५५॥

न तत्रांगारको विष्टिर्व्यतीयातो न वैधृति : । सिद्धयंति सर्वकार्याणि यात्रायां दक्षिणे रवौ ॥५६॥

( लग्नविचार ) चरलग्नमें अर्थात्‌ मेष १ , कर्क ४ , तुला ७ , मकर १० लग्नोंमें और द्विस्वभाव अर्थात्‌ मिथुन ३ , कन्या ६ , धन ९ , मीन १२ लग्नोंमें यात्रा करनी चाहिये , परंतु स्थिरलग्नोंमें अर्थात्‌ वृष २ , सिंह ५ , वृश्चिक ८ , कुंभ ११ इन लग्नोंमें कदापि कल्याणकी कामनावाला गमन नहीं करे ॥५०॥

( दूसरा प्रकार ) धन ९ , मेष १ , तुला ७ इन लग्नोंमें गमन करनेसे कार्य विलंवसे सिद्ध होता है और मकर १० , कुम्भ ११ , वृश्चिक ८ यह लग्न मृत्युकारक हैं , सिंह ५ , कर्क ४ , वृष २ इनमें गमन करनेसे संपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होते हैं , और कन्या ६ , मीन १२ , मिथुन ३ लग्नोंमें जानेसे सुख , अन्न , धनप्राप्ति होवे ॥५१॥

( स्थिरलग्न परिहार ) यद्यपि लग्न स्थिर हो परंतु दिग्द्वारलग्न हो तो विजय , लाभकी देनेवाली यात्रा होती है और लग्न यदि चर भी है परंतु दिक्प्रतिलोम अर्थात्‌ पीठ पीछेके लग्नमें गमन करनेसे हानि और शत्रुभय होता है ॥५२॥

यदि जन्मकी राशि यात्राके लग्नमें हो अथवा राशिका पति लग्नमें हो तो जानेवालेके मनोरथकी सिद्धि देनेवाली यात्रा होती है , परंतु राशिका पति शुभग्रह होना चाहिये ॥५३॥

( त्याज्यलग्न ) कुम्भलग्न और कुम्भका नवांशक यात्रके लग्नमें सर्वथा त्याग देना चाहिये और मीन लग्न अथवा मीनका नवांशक भी जानेवालेको मार्गमे दुःख देता है इसलिये त्याज्य है ॥५४॥

( समयबल यात्रा ) उत्तर दिशामें प्रात : काल गमन करे , पूर्वको मध्याहमें और दक्षिणको अपराह्णमे अर्थात्‌ तीसरे प्रहर और पश्चिमको अर्द्धरात्रिमें गमन करना चाहिये ॥५५॥

इस प्रकार समय बलको देखके गमन करनेसे मंगलका , दोष , भद्रा , व्यतीपात , वैधृतिका दोष भी नहीं लगता है और संपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं , क्योंकि उसवक्त रवि दक्षिण ( दहना ) रहता है ॥५६॥

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Last Updated : November 11, 2016

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