छब्बीसवाँ पटल - पंञ्चमकार माहात्म्य

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


अब हे शङ्कर ! अन्तःकरण में किए जाने वाले पञ्च मकार के जयन को सुनिए । हे नाथ ! पञ्चमकार के द्वारा किए जाने वाले अन्तर्याग में दृढ़तापूर्वक आपकी और हमारी एकता का इस प्रकार ध्यान करे , जिस प्रकार दिन और रात्रि की एकता का । पञ्चमकार में प्रथम सुरा ( मद्य ) शक्ति हैं । मांस शिव हैं , उनका भक्त स्वयं भैरव है , जब शिव - शक्ति रुप मार और सुरा एक में हो जाते हैं तो आनन्द रुप मोक्ष उत्पन्न होता है , ऐसा निर्णय है ॥१३० - १३२॥

इस शरीर के मध्य में आनन्द में ब्रह्म की किरण व्यवस्थित है । इसलिए आनन्द रुप ब्रह्मकिरण के अभिव्यञ्जक द्रव्य से ब्रह्मादि का तर्पण करना चाहिए । आनन्द सारे जगत् का सार है , शरीर में रहने वाला ब्रह्म का स्वरुप है , उसका अभिव्यञ्जक द्रव्य है , योगी जन उन्हीं द्रव्यों से ब्रह्मा का पूजन करते हैं ॥१३३ - १३४॥

साधक षट् पट्‍माधार के मध्य में रहने वाले तीनों लिंगों के तथा इन्दुमण्डल ( चन्द्रमण्डल ) को भेदन करते हुए पीठ स्थान में पहुँच कर सहस्त्रदल कमल रुप महापद्‍मवन में प्रवेश करे । वहाँ जा कर मूलाम्भोज युक्त ब्रह्मरन्ध्र को संचालन करते हुए प्राण वायु का परमोदय होता है ॥१३५ - १३६॥

कुण्डलिनी शक्ति चिच्चन्द्र है । उसकी समरसता महान् ‍ अभ्युदयकारक है । साधक व्योम पङ्कज से चूते हुए आनन्द पान में निरत हो जावे । हे नाथ ! सज्जन योगियों के लिए वाह्म और अभ्यन्तर में होने वाला यही मधु पान है और बाह्मा मद्यपान तो योगियों के योग का घातक है । इतर ( दूसरा ) तो महायान है । भ्रान्ति तथा मिथ्या दोष से विवर्जित महावीर तो योग के अष्टाङ्ग की समृद्धि के लिए प्रथम (= योग पङ्कजनिष्यन्दपरामृत ) सुधा का पान करता है ॥१३७ - १३९॥

योगवेत्ता साधक तो ज्ञान खड्‍ग से पुण्यापुण्य रुप पशु को मार कर अपने चित्त को परशिव में समर्पण करता है । वही मांसाशी है । इतर तो पशुओं के ह्त्यारे हैं । शरीर में रहने वाली महावहिन में शरीरस्थ जल में रहने वाली जलती हूई मानास इन्द्रिय गणों को रोके - यही मत्स्य - भोजन ( अलौकिक ) है और प्रकार का मत्स्य भोजन तो अशुभ है । महीगत स्निग्ध सौम्य से उत्पन्न होने वाली मुद्रा महाबल प्रदान करती है । उन सभी को ब्रह्म किरण में आरोपित कर सुधी साधक कुण्डलिनी को तृप्त करे । इस प्रकार की मुद्रा के द्वारा किया जाने वाला भोजन आनन्द का वर्द्धक होता है ॥१४० - १४३॥

और ( लौकिक ) मुद्रायें तो भोग के लिए बनाई गई हैं , योगियों के लिए तो उक्त मुद्रा ही हैं । परशक्ति के साथ आत्मा को मिथुन में संयुक्त करने वाले आनन्दसे मस्त हो जाते हैं वही ( अलौकिक ) मैथुन है जिसे मुक्त साधक लोग करते हैं और ( लौकिक ) मैथुन तो स्त्री का सहवास करने वाले करते हैं । इस प्रकार कहे गए पञ्चमकार से कुण्डलिनी का पूजन करे ॥१४४ - १४५॥

यहीं तक पुरश्चरण के गूढार्थ का सारभूत मन्त्र प्रपूजन है - निद्रालस्य को त्याग कर इस योग का सदाभ्यास करे । कालरुपी महामत्त मजराज से बचने के लिए यह प्राण वायु करे । निरन्तर इस क्रिया द्वारा जो प्राणवायु को अपने वश में कर लेता है वह योग में समृद्ध होता है तथा कालसिद्धि प्राप्त करता है ॥१४६ - १४८॥

N/A

References : N/A
Last Updated : July 30, 2011

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP