फिर हे प्रभो शङ्गर ! दिव्य कुमारी के सहस्त्रनाम वाले स्तोत्र से स्तुति कर देवी , को संतुष्ट करे । जो जप कर्म में पञ्चङ्ग पूर्ण यज्ञ ( द्र० . २५ . ७८ - १०६ ) स्नान , सन्ध्या , तर्पण , ध्यान एवं कुमारी भोजनपूर्वक सहस्त्रनाम से स्तुति करता है तथा प्राणायाम के साथ पुरश्चरण कार्य करता है उनके शरीर रुपी गृह में पूजा ग्रहण करने के कारण प्राणवायु स्थिर रहता है । हे प्रभो ! जो अन्तरस्थ इस कर्म को नहीं करता उन्हें सिद्धि कैसे मिले ? ॥१०६ - १०८॥
इससे यह सिद्ध होता है कि कुण्डलिनी अन्तर्यजन से ही संतुष्ट मन वाली होती है , जब कुण्डली महादेवी संतुष्ट हो गई तो उसी समय मनुष्य सिद्धि का भाजन बन जाता है । प्रत्यक्ष रुप से पर देवता स्वरुपा जगद्धात्री का अभिषेचन कर मूलाम्भोज से सहस्त्रार चक्र में जाने वाली उस कुण्डलिनी का बिन्दुधारा द्वारा पूजन करे ॥१०९ - ११०॥
चन्द्रमा के द्वारा गिरती हुई , अमृत से सुशोभित धारा से पार्वती को अभिषिक्त कर मूलमन्त्र का स्मरण करते हुए सुधी साधक उनका पूजन करे । उनके पूजा के विषय में एकत्रित किए गए पुष्पों से ध्यान कर तत्क्षण तन्मय हो जावें , उनमें तन्मय हो जाने वाली बुद्धि को न्यास कह्ते हैं । इसलिए जो वह हैं , वही मैं हूँ । अतः इस सोऽहं भाव से उनका पूजन करे ॥१११ - ११२॥
परमानन्द स्वरुप उस पराकाश में रहने वाली उस महाशक्ति का ध्यान करे जिस चिच्छक्ति में समस्त मन्त्राक्षर ओत प्रोत हैं । ऐसा करने से वह महाविद्या , पूजा , होमादि , के बिना ही अपनी आत्मीयता प्रगट कर देती है । हे प्रभो ! योगियों का यही अन्तर्याग है ॥११३ - ११४॥
ऐसा साधक अन्तरात्मा , महात्मा और परमात्मा कहा जाता है उसके स्मरण मात्र से मनुष्य उत्तम योगी बना जाता है ।
१ . अमाय ( माया से रहित ), २ . अहङ्कार , ३ . अराग , ४ . अमद , ५ . अमोह , ६ . अदम्भ , ७ . अनिन्दा औरा ८ . अक्षोभ , ९ . अमात्सर्य , १० . अलोभ , पूजा में योगियों के लिए ये दश पुष्प कहे गए हैं । इसके अतिरिक्त अहिंसा सर्वोत्कृष्ट पुष्प है , इन्द्रिय निग्रह दूसरा पुष्प है , दयाअ तीसरा पुष्प है , क्षमा चौथा पुष्प है , ज्ञान पाँचवा पुष्प है --- इस प्रकार कुल १५ पुष्पों से परदेवता का पूजन करे ॥११५ - ११८॥