आनन्दभैरवी उवाच
आनन्दभैरवी ने कहा --- हे प्राणेश ! अब सब प्रकार के प्राणायाम का निरूपण कर रही हूँ उसे सुनिए । जिस प्राणायाम में तत्त्वयुक्त जप और ध्यान है उसे कहती हूँ । प्राणायाम क्रिय़ा में शोभा पाने वाले इस उल्लास के कई प्रकार हैं । इसके ब्रह्मा , विष्णु और ईश्वर - ये देवता वे तो मध्यम से भी मध्यम हैं । हे नाथ ! साधक सत्त्व में रज तम गुणों को स्थापित कर तथा काम क्रोधादि दोषों को त्याग कर प्राणायाम करे तो वह योगी योगवेत्ता हो जाता है ॥१ - ३॥
राजाओं में रजोगुण रहता है उससे भी अधिक तमोगुण रहता है , उससे भी अधिक तमोगुण पशुओं में रहता है , किन्तु साधुओं में मात्र सतोगुन की स्थिति रहती है । विष्णु में सत्त्वगुण है वे वेद के स्वरुप निर्मल तथा द्वैत से वर्जित हैं । आत्मोपलब्धि के विषय हैं , तीनों मूर्तियों के मूल हैं , अतः उनका ही आश्रय लेना चाहिए ॥४ - ५॥
सत्त्वगुण का आश्रय लेने से साधक पाप रहित और सभी सिद्धियों का पात्र होता है , किं बहुना ब्रह्मचर्य व्रत से वह शीघ्र जितेन्द्रिय हो जाता है । हे नाथ ! प्राणवायु को भी वश में कर लेने से संसार के सभी चराचर वश में हो जाते हैं । इसलिए प्राणवायु को वश में करने के लिए जप और ध्यान भी करते रहना चाहिए । प्राणवायु को वश में करने के लिए जप और ध्यान दो ही विधियाँ हैं । उनका प्रकार आगे कहूँगी । इनके कारण ही साधक योगी बन जाता है इसमें संशय नहीं ॥६ - ८॥
जप के प्रकार - १ , व्यक्त रुप से होने वाला , २ . अव्यक्त रूप से होने वाला तथा ३ . अत्यन्त सूक्ष्म रुप से होने वाला --- जे जप के तीन भेद हैं । व्यक्त जप वह है जिसे वचन रूप से उच्चारण किया जाय , उपांशु ( जिहवा संचालन ) से जो जप किया जाय वह अव्यक्त है और मन से किया जाने वाला जप अत्यन्त सूक्ष्म है । अब ध्यान के विषय में कहती हूँ । उस ध्यान के २१ प्रकार हैं । ध्यान से जप कर सिद्धि होती है और जप से वास्तविक सिद्धि होती है इसमें संशय नहीं ॥९ - १०॥
हे शङ्कर ! सर्वप्रथम मैं विद्यामहादेवी का ध्यान कहती हूँ । यह कुण्डलिनी , ही महाविद्या हैं जिनके मूलाधार रूप कमल में मन का निवास है । यह मन ही समस्त धर्म कर्म सर्वदा किया करता है जहाँ - जहाँ वह जाता है वायु भी उसी स्थान पर उसके साथ जाता है ॥११ - १२॥
अतः मूलाधार में वायु स्वरूप मन को स्थापित कर नासा के अग्रभाग के बाहर १२ अंगुल पर्यन्त वायु धारण करे । मन में रहने वाले धर्म के स्वरुपभूत ( इष्टदेव ) की मन में कल्पना करे । मन भी उस स्वरुप के अनुसार ही चलता है जहाँ उसकी गति है । मन में रहने वाला विकार एक ही है , इसमें संशय नहीं । हे देवेश ! परब्रह्म के रूप की कल्पना तो अज्ञानियों की है । वस्तुतः ब्रह्म का स्वरूप अव्यक्त है और वह ब्रह्म शरीर में व्यवस्थित रुप से वर्तमान है । वह धर्म कर्म से सर्वथा निर्लेप है । अतः मनोगम्य होने से साधक यति को उसका भजन करना चाहिए ॥१३ - १६॥
उससे परिवेष्टित स्वयंम्भू लिङ्ग है , जो सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है और आकाश के समान निर्लिप है तथा जो परम ज्ञान को निरन्तर बढा़ता रहता है , उसका भजन करना चाहिए । साधक उस मूलाधार में कुण्डली तथा तत् परिवेष्टित स्वयंभू लिङ्ग के उभय योग का ध्यान करे । इस प्रकार के कुण्डलिनी के ध्यान मात्र से वह सिद्ध साधक षट्चक्रों का भेदक हो जाता है । पर और अवर गुरुओं की प्रेमास्पदा , आनन्दस्वरूपा , मूलाधार रुप भूलोक में रहने वाली योगी जनों की योगमाता कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥१९ - २१॥
करोड़ों विद्युल्लता के समान देदीप्यमान , सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म मार्ग में गमन करने वाली , ऊपर की ओर के चलने वाली और सर्वश्रेष्ठ अरुण वर्ण के शरीर वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । प्रथन गमन के समय कौलीय रुप धारण करने वाली , ज्ञान मार्ग का प्रकाश करने वाली और ऊपर से नीचे की ओर आने के समय अमृत से व्याप्त विग्रह वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । धर्म से उदय होने वाली , किरणों से व्याप्त , जगत् के स्थावर - जङ्गम स्वरुप वाली , सभी के अन्तःकरण में निवास करने वाली , निर्विकल्पा चैतन्य एवं आनन्द से सर्वथा निर्मल स्वरूप वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥२२ - २४॥
आकाश में उड़ने वाली नित्य स्वरूपा , समस्ता वर्ण स्वरूपा , ब्रह्मा , विष्णु , शिवादि , देवताओं से ध्यान करने योग्य श्रीकुण्डली का ध्यान करना चाहिए । प्रणव के मध्य में रहने वाली , शुद्ध स्वरुपा , शुद्ध ज्ञानाश्रया , सबका कल्याण करने वाली , चन्द्र मण्डल का भेदन करने वाली एवं सिद्धि स्वरुपा कुल कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥२५ - २६॥
मूलाधार के कमल पर निवास करने वाली , आद्या जगत् की कारणभूता , समस्त जगत् से प्रेम करने वाली , स्वाधिष्ठानादि पद्मों में रहने वाली , सर्वशक्तिमयी परा कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । आत्म विद्या , शिवानन्दा पीठ में निवास करने वाली , अत्यन्त सुन्दरी , साँप के समान आकृति वाली , रक्तवर्णा रूप से सबको संमोहित करने वाली कुल कुण्डलीनी का ध्यान करना चाहिए ॥२७ - २८॥
कामिनी , कामरुप में रहने वाली मातृका स्वरुपा , आत्मविद्या देने वाली , कुलमार्ग के उपासकों को आनन्द देने वाली महाकाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । पवित्र योगसाधन काल में इस प्रकार मूलपद्म में कुण्डलिनी का ध्यान कर धर्म के उदय हो जाने पर ज्ञानरूपी पर कुण्डलिनी की सिद्धि करनी चाहिए ॥२९ - ३०॥
कुण्डलिनी की भावना के करने से ही खेचरता तथा अष्टसिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं और साधक ईश्वरत्व प्राप्त कर लेता है , । किं बहुना वह राजा भी हो जाता है । योगाभ्यास में महोदय वायु भावना से सिद्ध होता है । इन प्राण नाम के वायु को रोकना बडा़ कठिन कार्य है । अतः धीरे - धीरे इसका संचालन करे । मूलपद्म में रहने वाली कुण्डली को प्रतिक्षण ऊपर की ओर खींचते रहना चाहिए तभी प्राणरूप महावायु निश्चित रूप से वश में हो जाती है ॥३२ - ३३॥
ब्रह्माण्ड में , क्षेत्र में , पीठ में तथा उत्तम तीर्थ में , शिला में , शून्य स्थाना में रहने वाले जितने तत्व भी हैं वे सभी प्राणवायु से सिद्ध हो जाते हैं । वस्तुतः जितने तीर्थ ब्रह्माण्ड में है उतने ही तीर्थ इस शरीर में भी हैं , वे सभी प्राण से जुड़े हुए हैं , किन्तु निरञ्जन परब्रह्म प्राण से सर्वथा परे हैं । जब तक इस शरीर में प्राण हैं , तब तक मरने का भय किस प्रकार हो सकता है । प्राण के जाते ही चेतना में रहने वाले सभी देवता भी ( शरीर से ) चले जाते हैं ॥३४ - ३६॥
सभी का मूलभूत कुण्डलीभूत देवता है , जो आनन्द युक्त एवं चेतनामयी है इस प्रकार यही वायु रूपा कुण्डलिनी सबकी रक्षा करती है । समस्त जगत् में चेतना रुपी कुण्डलिनी योग की अधिष्ठातृ देवता है जो आत्मा और मन से संयुक्ता रह कर मोक्ष प्रदान करती है । इसलिए मन्त्रज्ञ साधक भावज्ञान की सिद्धि के लिए उसका ध्यान करे । यदि कोई योग चाहता हो तो वह भोग और मोक्ष में रहने वाली उस भवानी का ध्यान करें ॥३७ - ३९॥
वायु के रोकने के समय चेतनामयी कुण्डली का ब्रह्मरन्धा पर्यन्त ध्यान करें क्योंकि वह कामिनी योगी की रक्षा करती है । वायुरूपा , परादेवी , नित्या , योगीश्वरी , जया , निर्विकल्पा , त्रिकोण में रहने वाली कुलेश्वरी कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । वह अनन्ता करोड़ों सूर्य के समान आभा वाली और ब्रह्मा , विष्णु , शिव स्वरूपा वह अनन्तज्ञान निलया हैं । मुमुक्षु जन उसी का भजन करते हैं । वह मूर्खों के चित्त में घोर अज्ञानान्धकारा में पड़ी रहती हैं । सर्पासन परा सवार रह्ती हैं , सोई रहती है और मूलाधार में स्थित रहने वाली वह ईश्वरी साधक का पालन करती है ॥४० - ४३॥
उस सर्व प्राणियों की ईश्वरी , ज्ञान और अज्ञान का प्रकाशन करने वाली , धर्म और अधर्म के फल से व्याप्त करुणामय विग्रह वाली नित्या भगवती का स्वर्ण के समान आभा वाले कलिकाल में उप्तन्न योगेन्द्र ध्यान करते हैं ॥४४ - ४५॥
चैतन्य और आनन्द से परिपूर्ण , वकार से सकार वर्ण वाली , विद्युल्लता से आवृत सुवर्ण के अलङ्कार से भूषित इस प्रकार के रुप में मेरा जो ध्यान करते हैं वे मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार जो कुलमार्ग का प्रकाश करने वाली कुण्डलिनी विद्या का ध्यान वर्ण पर्यन्त करते हैं वे मुक्त हो जाते हैं इसमें संशय नहीं ॥४६ - ४७॥
जो पापराशि से मुक्त हैं , जिनके मन में धर्म ज्ञान हो गया है , वे अवश्य ही कुण्डलिनी का ध्यान कर उस पराकुण्डलिनी की स्तुति करते हैं । कुल कुण्डलिनी का ध्यान भोगा और मोक्ष दोनों प्रदान करता है और जो उसका ध्यान करते हैं वह इस भूतल में महायोगी हैं इसमें सन्देह नहीं ॥४८ - ४९॥
दिव्य , वीर और पशुभाव से कुण्डलिनी का ध्यान तीन प्रकार का कहा गया है । प्रथम पशुभाव , फिर वीरभाव , फिर दिव्यभाव , इस क्रम से प्राप्त होने पर योगिराज सिद्ध हो जाता है । हे प्रभो ! अब पशु भावादि कहने के बाद दिव्य ध्यान कहूँगी पहले सामान्य पशुभाव का ध्यान , फिर वीरभाव का ध्यान तदनन्तर दिव्यभाव का
ध्यान करे ॥५० - ५१॥
करोड़ों चन्द्रामा के समान सुशीतल , तेज का बिम्ब , सर्वथा स्थिर सहस्त्रों ज्वालामाला से युक्त , सैकड़ों कालाग्नि के समान भयङ्कर , कराल दाँतों से एवं महाभयानक जटामण्डल से मण्डित , घोर रूपा , महारौद्री सहस्त्रा करोड़ विद्युत के समान चञ्चल , करोड़ों चन्द्रमा के समान मनोहर , सर्वत्र व्याप्त रहने वाली , महाभयानक , अनन्त जगत् की सृष्टि एवं अनन्त सृष्टि का पालन तथा अनन्त सृष्टि के संहार में उन्मत्त रहने वाली सर्व व्यापक रुप से रहने वाली , आद्या , आदि नील कलेवर वाली तथा अनन्त सृष्टि की निलयभूता उस महाविद्या का मुमुक्ष जन ध्यान करते हैं ॥५२ - ५५॥
अब वीर ध्यान कहती हूँ , जिसके करने से वीर वल्लभ होता है और जो वीरों का वल्लभ हो जाता है , वह योगी भी मुक्त कहा जाता है । वीराचारा में सत्त्वगुण की प्रधानता रहती है , दिव्यभाव से साधक निर्मल होता है । इन भावों को प्राप्त कर योगी तत्क्षण महावीर बन जाता है ॥५६ - ५७॥
हे नाथ ! बिना वीराचार के दिव्याचार प्राप्त नहीं होता , इसलिए वीराचार करने के बादा दिव्यभाव का आचरण करना चाहिए । वीराचार करोड़ गुना फल देने वाला है और उसका साधन एकमात्र जप है जिससे करोड़ों करोड़ों जन्म के पापों एवं दुःखों का नाश हो जाता है । अन्ततः वही भक्त भी होता है ॥५८ - ५९॥
कुलाचार , समाचार ( समयाचार ) और वीराचार महान् फल देने वाला है । इसलिए मेरा ध्यान अर्थात् कुल ध्यान करके ही साधक सिद्धि प्राप्त करता है । जो महावीर मूलाधार के पद्म में स्थिर रहने वाली कुल कुण्डलिनी देवी के रूप में ध्यान करते हैं , वे ध्यान कर महावीर एवं योगिराज हो जाते हैं ॥६० - ६१॥
काली , कौला , कुलमार्ग की ईश्वरी , कलकल कलिजों के ध्यान के लिए कालानल का सूर्य , कलि युग की उल्का , काल को कवलित करने वाली , किलिकिलि की कलिका केलि में अपने लावण्य़ से लीला करने वाली , सूक्ष्म नामा से अभिहित होने वाली , सूक्ष्म नाम से अभिहित होने वाली , संक्षय नाम से अभिहित होने वाली , क्षयकुल कमल में तेजोरूप से विराजमान , आदि और अन्त में रहने वाली , उन चारुवर्णा सुन्दरी को प्रणत रहने वाले भक्त जन निरन्तर भजते हैं ॥६२॥
अट्ठाराह भुजाओं वाली , नीले कमल के समान मनोहर नेत्रों वाली , मदिरा के सागर से उत्पन्न होने वाली , चन्द्र , सूर्य़ तथा अग्नि स्वरूपा , चन्द्र , सूर्य एवं अग्नि के मध्य में रहने वाली परम सुन्दरी , वरदायिनी , करोड़ों कन्दर्प के दर्प को दलन करने वाली , पति प्रिया , कामिनी , आनन्दभैरव से आक्रान्त , पर स्वरूपा , आनन्दभैरवी , भोगिनी , करोड़ों चन्द्रमा से गिराते हुए अमृतमय गात्र से मनोहर , करोड़ों विद्युल्लता के समान आकार वाली , सदसत् की अभिव्यक्ति से वर्जित , ज्ञान एवं चैतन्य में निरत रहने वाली उस महाविद्या का ध्यान वीराचार के लोग करते हैं ॥६३ - ६६॥
हे प्रभो ! इस देवी के ध्यान से स्वयं आप भैरव संतुष्ट होते हैं और मैं भी संतुष्ट होती हूँ , फिर तो सारा संसार ही संतुष्ट रहता है इसमें संशय नहीं । जो वीर साधक स्थिर चित्त से प्राणायामा करता है और मूलाधारा पद्म में देवी का ध्यान करता है वह योग प्राप्त कर लेता है । हे महेश्वर ! सूक्ष्म वायु के धारण करने से वीरभाव को प्राप्त करने वाला साधक इस पृथ्वी पर अपनी मृत्यु तथा जन्म में होने वाले सङ्कटों को जान लेता है ॥६७ - ६९॥
एक महीने में आकर्षण की सिद्धि , दो महीने में वाक्सिद्धि तथा तीन महीने में वायु के संयोग से साधक देवताओं का वल्लभ हो जाता है । इसी प्रकार ऐसा करते रहने से उसे दिक्पालों के दर्शन हो जाते हैं । पाँचवें महीने में वहा काम के समान सुन्दर , छठें महीन में ( साक्षात् ) रुद्र हो जाता है इसमें संशय नहीं ॥७० - ७१॥
जो साधक श्रेष्ठ एवं करोड़ों जन्मों के फल से वीरभाव का माहात्म्य जान लेता है वही देवी का भक्त तथा योगिराज है । चित्त को स्थिर रखने में कारणभूत वीराचार महान् धर्म हैं , जिसकी कृपा होने पर साधक दिव्यभाव का आश्रित बन जाता है ॥७२ - ७३॥
वीराचार के प्रभाव से रुद्र स्वयं महायोगी हुए और महाविष्णु कृपा के निधान हो गए । इस प्रकार वही आत्मा महावीर है , वही मोक्ष का भोक्त है , इसमें संशय नहीं । हे नाथ ! हे महावीर ! कुल (= शाक्तों ) का यह आश्रय है और भाव स्नान हैं जिसके करने से साधक शुचि हो जाता है और शुचि होने पर क्या नहीं सिद्ध होता ॥७४ - ७५॥