बाइसवाँ पटल - विशुद्धचक्रमहापद्मविवेचन

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


विमर्श - द्वादशशब्दस्य संख्यापरत्वमभ्युपेत्य दलशब्देन षष्ठीतत्पुरुषः । अथवाद्वादशसंख्यकानि दलानि इति मध्यमपदलेपिसमासे पूर्वनिपातव्यत्यासेन दलद्वादशेति सिध्यति , तैः शोभितमिति ।

यह महापुण्यदायक विशुद्ध नामक महापद्‍म है जो धर्म , अर्थ , काम तथा मोक्ष को देने वाला है । यह धुएं के आकार से परिपूर्ण विद्युत्पुञ्ज के समान है । योगिराज इसका भजन करते हैं । इसके बाद हिम , कुन्द , इन्दु के मन्दिर के समान आज्ञा नामक महापद्‍म है जो भ्रुकुटी में है । यह चक्र दो पत्तों वाला है । बिन्दु पद से युक्त हंस मन्त्र का स्थान है , उसका भजन करना चाहिए ॥१० - ११॥

इस पर ल और क्ष दो वर्ण हैं जो बिन्दु से युक्त हैं । यहीं पर मन का लय होता है । उन दोनों में एक स्त्री दूसरा पुरुष प्रकृति वाला है । यह करोड़ों चन्द्रमा के समान उज्ज्चल है , साधक को इसका भजन करना चाहिए ॥१२॥

ऊपर कहा गया ( द्र० २२ . ९ ) कण्ठ में रहने वाला षोडश पत्रात्मक पद‍मचक्र षोडश स्वर से परिवेष्टित है । अकार से लेकर विसर्ग पर्यन्त वर्ण सोलह स्वर कहे गए हैं । इन स्वरों का ध्यान कर फिर कुण्डली को ऊपर ले जाना चाहिए ॥१३॥

करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रकाश वाली कुण्डली को कण्ठाश्रित - चक्र से ऊपर उठा कर आज्ञा - चक्र ( द्विदल कमल ) में लाकर उसका ध्यान करने से साधक यहाँ पर ही जीवन्मुक्त हो जाता है ॥१४॥

हे प्रभो ! यदि साधक अपनी श्वास बाह्म चन्द्रमा में न छोड़े किन्तु भ्रु के मध्य में रहने वाले चन्द्र समूह में छोड़े तो वह यती योगी बन जाता है ॥१५॥

साधक को सूक्ष्म वायु को ऊपर चढ़ाकर उसे धीरे धीरे छोड़ना चाहिए । सहस्त्रार चक्र ( सहस्त्रदल कमल ) से आए हुए वायु को मूलाधार में , फिर मूलाधार से सहस्त्रार के मध्य में ले आना चाहिए ॥१६॥

चन्द्रमा सूर्य में लय को प्राप्त होता है । सूर्य चन्द्रमा में लय प्राप्त करता है । जो बाहर में शब्द का आनयन नहीं करता , उसमें बिन्दु ( वीर्य ) एकत्रित होता है ॥१७॥

जब चन्द्र एवं सूर्य का लय हो जाता है , तब चन्द्र सूर्य दोनों ही भीतर हो जाते हैं , इस प्रकार रवि प्लुत बाह्म चन्द्र में जब मन चला मन चला जाता है तो शरीर में पाप नहीं रहता ॥१८॥

वायवी शक्ति से सुरक्षित सूक्ष्म वायु में जो अपना मन स्थापित करता है उसके योग की अभिवृद्धि होती है ॥१९॥

यज्ञोपवीत हो जाने पर उत्तम ब्राह्मण श्रीसम्पन्न हो जाता है , उसे सर्वदा योगाभ्यास करते रहना चाहिए । ऐसा करने से वह योगी

वल्लभ होता है ॥२०॥

बाल्यकाल में जिस जिस प्रकार से बिन्दु ( वीर्य ) स्थित रहता है , उस उस प्रकार से योगमार्ग भी वृद्धिगत होता है , जब बिन्दु पात की स्थिति आती है तो साधक मरने की स्थिति में आ जाता है ॥२१॥

फिर भी यदि एक मास एक पक्ष अथवा दश दिन तक बिन्दु स्थित रखे तो वह साक्षात् अभ्यास से योग में विजयी हो जाता है ॥२२॥

जब पुरुष कामानल की महापीड़ा से ग्रस्त हो जाता है , तो वह योग नहीं कर सकता कामादि को रोके बिना योग में कौन समर्थ हो सकता है ॥२३॥

अपने समान ( पुरुष या स्त्री ) के साथ संबन्ध स्थापित करने पर निश्चित रुप से काम उत्पन्न होता है , उस काम से क्रोध उत्पन्न होता है जो विनाशकर्ता एवं महाशत्रु है । क्रोध से गाढ़ा मोह उत्पन्न होता है , उससे स्मृति नष्ट हो जाती है । इस प्रकार स्मृति के विनाश होने पर बुद्धि का विनाश होने लगता है । जब बुद्धि विनष्ट होती है तब पुरुष का विनाश हो जाता है ॥२४ - २५॥

इसलिए साधक को अपनी बुद्धि को सुरक्षित रख कर उससे मूलाधार स्थित ब्रह्म मण्डल में महाविष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए । जब सर्वप्रथम ह्रदय में शान्ति होने लगे तो उसे ईश्वर की कृपा का चिन्ह समझना चाहिए। क्योंकि शान्ति से ज्ञान होता है और ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति होती है ॥२६ - २७॥

प्रथम शान्ति , फिर विद्या , फिर प्रतिष्ठा , तदनन्तर निवृत्ति ये चार व्यूह हैं । इसके निवास के कारण परमेश्वर चतुर्व्यूह कहे जाते हैं । यह ज्ञान है , यह ज्ञेय है , इस प्रकार के विचार से समाकुल लोग दिन रात शास्त्र पढ़ते हैं , तब भी वे तत्त्व से पराङमुख रहते हैं ॥२८ - २९॥

शिर पुष्प का भार जानता है , किन्तु उसके गन्ध का ज्ञान नासिका को ही होता है । इसी प्रकार लोगा हमारे तन्त्र को पढ़ते हैं , किन्तु उसके भाव का ज्ञान जानने वाले साधक यति दुर्लभ हैं ॥३०॥

यज्ञोपवीत काल में साधक पशुभाव का आश्रय ग्रहण करे । जब तक योग ज्ञान की संप्राप्ति न हो , तब तक वीराचार ग्रहण करना मना है ॥३१॥

ऐसा आचरण करने वाले साधक को ही आचार , विनय , विद्या , प्रतिष्ठा , योगसाधन और अपने इष्ट देवता के चरण कमलों में बुद्धि उत्पन्न होती है । जिस साधक को अपने गुरु में और देवता में निरन्तर भक्ति की अभिवृद्धि होती रहती है । उसे एक संवत्सर मात्र में सिद्धि प्राप्त हो जाती है , इसमें संशय नहीं ॥३२ - ३३॥

वेद आगम ( मन्त्र शास्त्र ) तथा पुराण का तत्त्व यत्नपूर्वक जान कर तदनन्तर अपने इष्ट देवता के चरण कमल मण्डल में मन संस्थापित करे ॥३४॥

क्षेत्र रुपी कमल में रहने वाले , योग से सर्वथा विशुद्ध और चेतना संयुक्त षट्‍चक्र में मन स्थापित कर जो साधक मौन धारण करता है , वह योग का वल्लभ होता है ॥३५॥

मन ही कर्म करता है । मन ही पाप पङ्क से लिप्त रहता है । अतः जो मन को अपने वश में रखता है , वह पाप पुण्य से लिप्त नहीं होता ॥३६॥

श्री भैरव ने कहा --- हे कान्ते ! अब उस रहस्य को बताइए , जिससे पुरुष को सिद्धि प्राप्त होती है । विशेष कर उसके प्रकार को जो योगियों के लिए भी अगोचर है । जिसमें जो जो गोपनीय हो , जो जो आनन्दपूर्वक निरीक्षण के योग्य हो , जो जो पूजनीय हो , जो जो ध्यान के योग्य हो , जो जो वर्जनीय हो तथा जो जो जुगुप्सा के योग्य न हो , हे प्रिये ! यदि मुझमें आपका स्नेह हो तो क्रमशः उन तत्त्वों को प्रकाशित कीजिए । क्योंकि इन्हें बिना जाने योगी भूत के समान रहता है और मोह के वशीभूत हो जाता है ॥३७ - ३९॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे परमानन्द ! हे महाधिष्ठान निर्मल ! मात्र आप ही योग की योग्यता रखते हैं तथा षट्‍चक्र भेदन की क्रिया में समर्थ हैं । हे महावीर , महाभय देने वाले काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद तथा मात्सर्य संज्ञक इन दोषों का साधक को संहार करना चाहिए ॥४० - ४१॥

हे प्रभो ! महावीर को इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सभी विकारों को लज्जा दौर्मनस्य तथा दश कालग्नियों का विनाश करना चाहिए । महावीर को महामन्त्र , कुण्डलिनी के उत्थान कि क्रिय , मुद्रा , अथ ( माला ) सूत्र , तन्त्रार्थ गोपनीय वीर का सङ्रम गुप्त रखना चाहिए ॥४२ - ४३॥

भैरवों के आचार का अतिक्रमण , योगिनियों के साधन के प्रकार और नाड़ियों का मान माता के जार ( उपपति ) की तरह गुप्त रखना चाहिए ॥४४॥

साधक जीवन मरण की , देवता की , गुरु की तथा ईश्वर की निन्दा न करे । इसी प्रकार सुरा की , महाविद्या की , महाक्षेत्र , सिद्धपीठ , योग के अधिकारी , योगिनी , जड़ , उन्मत्त , जन्म कर्म , कुण्डलिनी , क्रिया तथा प्रकृष्ट योग में धर्म करने वाले की प्राण रहते कदापि निन्दा न करनी चाहिए । पत्नी , भाई की भार्या , बौद्धाचार , योगिनी , शुभाशुभ कर्म की महावीर निन्दा न करे ॥४५ - ४७॥

कन्या की योनि , दिन में रति , पशुओं का मैथुन , न ङ्गी स्त्री तथा खुले स्तन वाली कामिनी , जूआ के लिए लड़ ने वाले जुआड़ी नपुंसक , शुचि रहने पर विष्टा आदि घृणित वस्तु अभिचार ( मारणादि क्रिया ) तथा असमत्त की क्रिया वीर पुरुष न देखे ॥४८ - ४९॥

देवता गुरु , ईश्वर शक्ति , साधु , स्थूल तथा सूक्ष्म अपने आत्मस्वरुप की अत्यन्त भक्ति के साथ प्रयत्न पूर्वक पूजा करे । अतिथि , माता सिद्ध , पिता योगी इनकी भी परा भक्ति से पूजा करे । इसी प्रकार सिद्धि के लिए प्रयुक्त सिद्ध मन्त्र को भी आदर की दृष्टि से देखे ॥५० - ५१॥

आधुओं का उपदेश , योग का साधन , गुरुवाक्य , उपदेश , अपना धर्म , तीर्थ , देवता कुलाचार , वीरमन्त्र , आत्मा , परमेष्ठी , विधिपूर्वक प्राप्त की गई विद्या , तन्त्र तथा सिद्धार्थ निर्णय इनका अनन्य मन से ध्यान करना चाहिए ॥५२ - ५३॥

श्रेष्ठ साधक अगम्या स्त्री से संभोग जैसे पतित कार्य , धूर्त्त का साथ , ठगहारी , प्रलाप , झूठ , अशुभ इनको वर्जित करे । पापियों की गोष्ठी , आलस्य , बकवाद , वेद विरुद्ध कर्म का प्रचार , गोहत्या , ब्रह्महत्या जैसे पापों का वर्जन करे । हे नाथ ! विष्ठा मूत्र , कफ , खून , हीन अङ्र वाली स्त्री , मांस तथा कपाल हरणादि की निन्दा कदापि न करे । सुरा , गोपालन , अपना पाप और शत्रु से होने वाले भय की निन्दा न करे । इसी प्रकार सिद्धि चाहने वाला साधक श्रेष्ठ धर्म की भी निन्दा न करे ॥५४ - ५७॥

वह वीरभाव प्राप्त करने वालों के लिए इस प्रकार का समयाचार है । जो गुरु की आज्ञा से इनका पालन करता है वह पृथ्वी पर ही जीवन्मुक्त हो जाता है । मनुष्य को , गुरु की आज्ञा उल्लंघन जैसा पाप . उसके धर्म को , आचरण की दीक्षा को , तप को , पुण्य को तथा यश को व्यर्थ बना देता है ॥५८ - ५९॥

हे नाथ ! योग विद्या में प्रकृष्ट सिद्धि चाहने के लिए ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि को प्रथम योगादिसाधन करना चाहिए । उसके पश्चात् कुल क्रिया कुण्डलिनी का उत्थान करना चाहिए । वीरभाव के बिना कोई मनुष्य किस प्रकार पूर्णयोगी बन सकता है । उसमें भी प्रथम पशुभाव का आचरण करे । पश्चात् कुण्डलिनी का आचरण करे ॥६० - ६१॥

हे महादेव ! हमारे ( शक्ति ) तन्त्र में केवल सार निर्णय यह है कि अकस्माद् भक्ति की सिद्धि के लिए योगियों का कुलाचार करे । ब्राह्मणों को कुलाचार ( कुण्डलिनी का अभ्युत्थान ) केवल ज्ञान की सिद्धि के लिए करना चाहिए । क्योंकि ज्ञान से योगी , तदनन्तर योग से अमर शरीर प्राप्त होता है । कुलीन ( कुण्डलिनी का उपासक ) योगी दिन रात योगाभ्यास करे और पञ्चभूत के स्थानभूत षट्‍चक्रों का भावसिद्धि के लिए ध्यान करे ॥६२ - ६४॥

मूलाधार में स्थित महापद्‍म के ऊपर लिङ्गमूल के स्वाधिष्ठान नामक महापद्‍म के पाद के ( नीचे ) दल में पवित्र साधक वायु द्वारा यजन करे । स्वाधिष्ठान स्थित छः पत्तों पर स्थित रहने वाले वर्णों की जो भावना करता है , प्रभो ! उसे राकिणी सहित महाविष्णु का साक्षात्कार हो जाता है ॥६५ - ६६॥

स्वाधिष्ठान के छः पत्तों वाले कर्णिका के मध्य मण्डल में स्थित नाग युक्त आठ पत्तों का ध्यान कर साधक साक्षात् सदाशिव हो जाता है । जिस प्रकार अष्टदल पर अरुण वर्ण के आठ नाग शोभित होते हैं , उसी प्रकार जल के ऊपर रहेन वाले उस महापद्‍म पर नागत्नियों का भी ध्यान करना चाहिए ॥६७ - ६८॥

अनन्त , वासुकि , पद‍म , महापद्‍म , तक्षक , कुलीर , कर्कट तथा शंख इन आठ नागों का दक्षिण दल मे प्रारम्भ कर ध्यान करना चाहिए । उस अष्टदला के ऊपर कर्णिका से युक्ता दो वृत्तों का ध्यान करे । उसके ऊपर षड्‍दल का ध्यान करना चाहिए , जिस पर बिन्दु के सहित व भ म य र ल ये छः वर्ण हैं ॥६९ - ७०॥

पूर्व दिशा के क्रम से दक्षिणावर्त वायु द्वारा पुनः पुनः कुम्भक कर वायु देवता वाले इन छः वर्णों का ध्यान करे । कुल के ऊर्ध्व भाग में अष्टदल पर तथा षड्‍दल पर आकृति सहित दो केशरों का प्रसन्नता पूर्वक ध्यान करे । ऐसा करने से साधक योगिराज बन जाता है । उस अष्टदल के ऊर्ध्व देश में मनोहर दो वृत्त हैं । उसके ऊपर षड्‍दल पर पुनः ’ व भ म य र ल ’ इन छः वर्णों का ध्यान करना चाहिए ॥७१ - ७३॥

अष्टदल के नीचे पुनः दो मनोहर वृत्तों का ध्यान करना चाहिए । जिस वृत्त के अधः मण्डल के आकार वाला ’ वं ’ बीज व्याप्त हो कर स्थित है । वृत्त में लगा हुआ उसी के समान , विद्युदाकर , करोड़ों सूर्य के समान तेज वाला ’ यं ’ बीज का ध्यान कर साधक योगियों का अधिपति हो जाता है । यान्त बीज ’ रं ’ कला के नीचे षट्‍कोण का मण्डल है । उस षट्‍कोण मण्डल में दक्षिण दिशा से आरम्भ कर य र ल वर्णों का ध्यान करना चाहिए ॥७४ - ७६॥

उस षट्‍कोण के मध्य भाग में धूम्र मण्डल युक्त एक षट्‍कोण और है । उस षट्‍कोण में द्र्व्यादि छः पदार्थ अर्थात् १ . द्रव्य , २ . गुण , ३ . कर्म , ४ . सामान्य , ५ . सविशेष तथा ६ . समवाय - इन छः पदार्थों का ध्यान करना चाहिए ॥७७ - ७८॥

षट्‍कोण के मध्य में अत्यन्त सुन्दर तेजस्वी एक षट्‍कोण और है । उसके प्रत्येक कोण में स्थिर तथा चञ्चल प्रकृति वाले , क वर्ग , च वर्ग , ट वर्ग , त वर्ग , प वर्ग और य वर्ग - इन छः वर्गों का ध्यान करना चाहिए । उसके मध्य में रहने वाले त्रिकोण में विशाल बुद्धि वाले योगी को करोड़ों चन्द्रमा की किरणों के समान राकिणी के सहित श्री हरि का ध्यान करना चाहिए ॥७९ - ८१॥

इस प्रकार षट्‍दल में रहने वाला पद‍म योगियों का साधन है । जो इस पद्‍म का ध्यान करता है , उसका योग सिद्ध हो जाता है । इस चक्र की कृपा से महाविष्णु के चरण कमल में की गई भावना से साधक नीरोग और अहङ्कार रहित हो कर बहुत शीघ्र सर्वज्ञ हो जाता है ॥८२ - ८३॥

योग मार्ग प्रकाश स्वरुप है , सूक्ष्म से तथा अत्यन्त निर्मल है । अतः उक्त षट्‍चक्र में त्रिलोकी के समस्त कामनाओं की सिद्धि करने वाले श्री हरि का ध्यान करना चाहिए । जो हरि हैं वही शेष और वही शम्भु हैं । सूक्ष्म रुप धारण करने वाले जो शम्भु हैं वही सूक्ष्म रुप में स्थित रहने वाले ब्रह्मा हैं । यह सात लोक उन्हीं ब्रह्मदेव के अधीन है ॥८४ - ८५॥

ऐसे ब्रह्मा , विष्णु तथा पितामह नाम वाले देवता तीन हैं , किन्तु उनकी एक ही मूर्ति है । ये सभी मेरे शरीर से संष्लिष्ट हैं जो सृष्टि , पालन तथा उसका संहार करते हैं । ये प्राणायाम से उत्पन्न हुए हैं और सर्वदा योगमार्ग में विघ्न डालने वाले हैं । इसलिए साधक प्राणायाम के द्वारा निष्पीड़न कर सिद्धि प्राप्त करे ॥८६ - ८७॥

ओम् ‍ का स्वरुप - महातेजस्वी शब्दरुप अकार ब्रह्मा का वर्ण है । यह प्रणव के अन्तर्गत नित्य रहने वाला है । यह योग का पूरक है अतः इसका आश्रय लेना चाहिए । शब्द को भिन्न भिन्न करने वाला सबका ईश्वर ऊकार वैष्णव वर्ण है , जो प्रणवान्तर्गत सत्त्व है और कुम्भक प्राणायाम योग है । साधक को इसका भी आश्र्य लेना चाहिए ॥८८ - ८९॥

मकार श्री शम्भु का भीजभूत रुप है जो चन्द्रमा से उत्पन्न है । प्रणव के भीतर रहने वाला लय का स्थान तथा काल स्वरुप है , इसका आश्रय लेना चाहिए । तीन वर्ण के अलग अलग रुपों को एक में मिलाने से प्रणव का रुप बनता है , इस प्रणव से ’ हंस ’ मन्त्र बनता है , फिर यही इंस , सोऽहं का रुप बन जाता है । सोऽहं का ज्ञान महाज्ञान है , जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है , जो निरन्तर इसकी भावन करता है वह परब्रह्म हो जाता है ॥ ९० - ९२॥

श्वास रुप चद्र से ’ हं ’ पुमान् है और ’ सः ’ प्रकृति है यही हंस मन्त्रा है जो सूर्य मण्डल का भी भेदक है । इस हंस को उलट देने पर ’ सोऽहं ’ ज्ञान हो जाता है । तब साधक सूर्यमण्डल में गमन करने वाला सिद्ध हो जाता है और स्वधा स्वर से पूजित होता है ॥९३ - ९४॥

हकार वर्ण तथा सकार वर्ण का लोप कर जब शेष की सन्धि कर दे तो वही प्रणव रुप महामन्त्र बन जाता है । यह हंस रुप महामन्त्र मन के गृहभूत स्वाधिष्ठान चक्र में रहता है । अतः साक्षात् मनोरुप से इसका जो जप करता है वह सूर्य मण्डल में गमन करता है ॥९५ - ९६॥

’ हंस ’ का अर्थ सूर्य है और सोऽहं का अर्थ चन्द्रमा है , इसमें संशय नहीं जब ’ हंस ’ ’ सोऽहं ’ इस विपरीत रुप में हो जाता है तब साधक मोक्ष का भागी बन जाता है । यदि साधक हंस मनोरुप को स्वाधिष्ठान स्थित विष्णु के पद में ध्यान कर श्री गुरु के चरण में समर्पित कर दे तो भी साधक मोक्ष का गामी बन जाता है इसमें संशय नहीं ॥९७ - ९८॥

जब साधक ’ सोऽहं ’ इस शक्ति कूट को ॐ कार से सम्पुटित कर ॐ सोऽहं ॐ का जप करता है तो वह महाज्ञानी तथा कल्पवृक्ष हो जाता है । जो हंस मन्त्र से जप होमादि कार्य करता है , तब उस हंस मन्त्र की कृपा से वह चन्द्र एवं सूर्य बन जाता है ॥९९ - १००॥

हे महादेव ! मैं इस हंस मन्त्र का अपने देह के मध्य में जप करती रहती हूँ , इस इंस मन्त्र की जप संख्या २१ हजार छः सौ है ॥१०१॥

चन्द्र बिन्द्र से संयुक्त पुरुष रुप से हकार ( हं ) तथा स्त्री रुप सकार का जप कर साधक अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है ॥१०२॥

जो मनुष्य आदि में प्रणव लगाकर उसके अन्त में इस महामन्त्र का जप करता है उस पर वायवी कृपा हो जाती है और वायु की सिद्धि हो जाती है । अब मैं उस बृहद्धंस मन्त्र को कह्ती हूँ , जिसके जप से पुरुष सिद्ध हो जाता है । वह इच्छानुसार रुप धारण कर लेता है और उसे निश्चित रुप से वाक्सिद्धि हो जाती है ॥१०३ - १०४॥

पहले प्रणव ( ॐ ) का उच्चारण करे । उसके बाद ’ हंस ’ इस पद को लिखे , उसके बाद फिर प्रणव ( ॐ ), तदनन्तर ’ पर पद ’ इसके बाद ’ तर्ययामि ’ उसके अन्त में प्रणव ( ॐ ) से युक्त ’ फट् ’ पद लिखे । यह वृहद्धंस मन्त्र वीरभाव वालों के अभ्युदय के लिए है ॥१०५ - १०६॥

विमर्श - बृहद् हंस मन्त्र का स्वरुप - ॐ हंस ॐ पर तर्पयामि ॐ फट् ‍ ।

साधक इस ’ बृहद्धंस की कृपा से षट्‍चक्र का भेदन करने वाला हो जाता है । षट्‍चक्रों की सभी देवता तथा चराचर प्रशंसा करते हैं ॥१०७॥

योगसिद्धि में विघात करने के लिए योगी के शरीर में विघ्न घूमते रहते हैं , यदि साधक वायु सिद्धि के लिए हें तथा परमहंस मन्त्र का जप करे तो वे सभी इस प्रकार भाग जाते हैं जैसे राक्षस से मनुष्य ॥१०८ - १०९॥

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Last Updated : July 30, 2011

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