हे महाप्रभो ! अब सोलह स्वर के भेद से वर्णों के फल को सुनिए , उसे मैं उत्कुष्ट फल चाहने वाले अपने भक्तो के लिए संक्षेप में कहती हूँ ॥७१॥
अत्यन्त साधना से युक्त वह फल मात्र दो तीन श्लोक में ही कहती हूँ । हे महादेव ! जो कामचक्र का उत्सव करते है , यह उन्हीं के समान हैं ॥७२॥
आदि के आठ स्वर ( अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ) जो मङ्रल देने वाले हैं उनका जो जप करता है वह श्रीनाथ के मुख कमल में रहने वाली अष्ट स्वराधिष्ठात्री देवी को प्राप्त कर पृथ्वी में सम्पत्तिवानों का नायक बन जाता है । तत्क्षण सिद्धि प्राप्त कर लेता है , राजकुलों का ईश्वर तथा राजा बन जाता है । वह जय के पथ में दीप की उज्ज्वल माला से परमा कला को प्राप्त करता है ।
किं बहुना कामानल को प्रताड़ित भी करता है ॥७३॥
शेष आठ स्वर लृ लृ ए ऐ ओ औ अं अः की अधिष्ठात्री पावन करने वाली हैं । प्रिय जनों को आनन्द देने से मन्द उदर वाली हैं । वह मद्य के मुख वाली , मन्त्र को नष्ट कर देती हैं । तीनों जगत् में रहने वाले उत्तम साधुओं को सुख देकर उनका पालन करती हैं , इस प्रकार पृथ्वी का पालन करती हुई जो अपने जप एवं ध्यान में आकुल भक्तों का मङ्गल करती हैं ॥७४॥
इस प्रकार वर्णों के फल को जान कर जो साधक उत्तम मन्त्र ग्रहण करता है वह पृथ्वीतल में कुल योग ( शाक्त सम्र्पदाय प्रचलित योग ) का अर्थी ( याचक ) हो जाता है । किं बहुना ऐसा करने से सिद्ध ज्ञानी हो जाता है ॥७५॥
हे नाथ ! अब प्रत्येक क वर्गादि वर्गों का अदभुत फल कहती हूँ उसे सुनिए । यह उस साधक के लिए है जो प्रश्नादि के कथन की विधि जानता है ॥७६॥