अष्टादश पटल - वर्णदेवता स्वरुपकथन

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


क वर्ग के क वर्ण के देवता और फल --- क वर्ग कामाख्या हैं , जो मन्दिर के मणि पीठ पर स्थित हैं , वही तीनों जगत् ‍ को धारण करने वाली तथा धात्री ( पालन करने वाली ) हैं , सर्वदा नवसिद्धि में अग्नि में निवास करती हैं । जलद के समान शरीर वाली वही आकाश की जननी हैं और गम्भीर तथा खड्‍ग के समान आभा वाली हैं । हाथ में अभय तथा वर मुद्रा धारण की हैं और घोर तथा मुखर हैं ॥१५॥

निरन्तर अभ्यास के योग से वह कलिकाल में पवित्र करने वाली हैं , काली कुल में आनन्द देने वाली रमेशी हैं , महारस के उल्लास में उनके मुख और नेत्र अत्यन्त सुन्दर दिखाई पड़ते हैं , ऐसी कामेश्वरी तथा कूर्मपद का भजन करने वाले को जय की प्राप्ति होती है ॥१६॥

जो उत्तम सिद्धों से काला अगुरु के द्वारा सेवित हैं , अत्यन्त मनोहर तथा खेचर सार की शाखिनी ( वृक्षस्वरुपा ) हैं समग्र उल्का स्वरुपा हैं । संसार की दीपक , तेजों का समूह तथा अमल नीलवर्ण युक्त शरीर धारण करने वाली ( नीलसरस्वती ) हैं ॥१७॥

 

ख वर्ण का स्वरुप तथा देवता --- वही खड्‍ग आयुध वाली एवं खप्पर धारण करने वाली हैं जो ऊपर प्रचण्ड रुप से चलने वाली तथा वायुमार्ग में खेचरी हैं , विद्या तथा अभय से युक्त है खञ्जन के समान नेत्र वाली , समस्त प्राणियों की गति तथा क्षिति के क्षय हो जाने पर खेचर वर्गों को धारण करती हैं ॥१८॥

जो परिमाण में खारी ( द्रोण ) हैं , खलों के साथ खेल में विहार करने वाली हैं , खरा ( कठोर ) तथा खरों के समान उन्मत्तगति जिन्हें प्रिय है , जो खगा ( आकाशाचारी ) हैं , सदैव महाखगरुप तथा खल में स्थित रहने वाली हैं तथा विद्या , बल एवं विक्रम में स्थित रह कर जगत् की रक्षा करती है । व्यापार , निद्रा , गहन अर्थों में चिन्ता तथा खर ( तीक्ष्ण ) प्रभा हैं वे जहाँ - तहाँ सर्वत्र शोभित हैं ॥१९ - २०॥

ग वर्ण के देवता --- जो गायत्री गणनायिका मति , गति तथा ग्लानि हैं , जिनका आशय अत्यन्त गूढ़ है , गीता तथा गोकुल कामिनी हैं , गुरुतरा हैं , गृह की अग्नि वाली एवं उदया हैं , गोरुपा , गय नामक राक्षम का हनन करने वाली , गया स्वरुपा , गुणवती एवं गाथापथ में स्थित रहने वाली हैं । श्री गुर्वी हैं , तीनों जगत् का पालन करने वाली हैं , लोग जिनका गान करते हैं ऐसी ग स्वरुपा भगवती का भक्तों को भजन करना चाहिए ॥२१॥

घ वर्ण विचार --- जो वायु से घाम करने वाली , आनन्द को भी मोहित करने वाली घर्घरा एवं घन स्वरुपा हैं , निद्रा देने वाली घटना , नीला तथा घोटक के ऊपर सवार रहने वाली हैं उनका भजन करना चाहिए ॥२२॥

ङ वर्ण के देवता --- बिन्दु में स्थित रहने वाली , विष का भोजन करने वाली अग्नि के समान तेजस्विनी , बीज के लिए श्रम करने वाली तथा तीक्ष्ण लोहे के शस्त्रों से प्रेम करने वाली , पाँच से पूर्ण , नासिका से उच्चरित होने वाली , सुखमयी , वेदक्रिया तथा छः मुखों वाली ऐसी ङकार की देवता है ॥२३॥

च वर्ण के देवता --- हे चञ्चल ! आप विचित्र वस्त्रों वाली , अपने चरणकमलों से जगत् ‍ को चलाने वाली हैं मुझ में विचार कि चेष्टा प्रदान कीजिए । चवर्ग वर्ण का यही माहात्म्य है कि वह महापातकों का नाशकर देता है यह कामचक्र में स्थित है , यही च प्रश्न में उस प्रकार से स्थित है , जैसे मन्त्र गृह में रहता है । च वर्ग का फल अत्यन्त सारयुक्त है , सूक्ष्म भावना वाला है , साधक लोग सभी अक्षरों की श्रेणी में बारम्बार इसका ध्यान करते हैं ॥२४ - २६॥

हे शम्भो ! आप तो सब जानने वाले हैं , फिर मैं और आप से क्या कह सकती हूँ , कामचक्र में स्थित रहने वाले अत्यन्त निर्मल वर्गों का माहात्म्य इस प्रकार है ॥२७॥

जो कामचक्र को जानता है , उस मनुष्य को यमराज नहीं मारते , उसके जानने का प्रकार यही है कि भाव युक्त होकर भावना तथा निर्मल ध्यान करे ॥२८॥

पूर्वकाल में सभी राजओं ने मूलाधार स्थित तथा कामरुप स्थित देवताओं का ध्यान कर अपने को परमेष्ठी में मिला दिया ॥२९॥

मेरे बालक ( भक्त गण ) कुछ भी नहीं जानते हैं । उनके योगादि सिद्धि के लिए कामनाफल की सिद्धि देने वाला यह कामरुप कामचक्र कामचक्र है । मात्र उस कामचक्र के ज्ञान से मनुष्य ईश्वर स्वरुप हो जाता है । उसके हाथ में समस्त श्रुतियाँ तथा समस्त शास्त्र आ जाते हैं इसमें संशय नहीं । कामचक्र से साधका योग तथा शिक्षादि सभी जान लेता है । निश्चय ही कामचक्र की कृपा होने पर साधक कामरुपी ( इच्छानुसार रुप धारण करने वाला ) हो जाता है ॥३० - ३२॥

उस कामचक्र के वर्गों मे स्थित उसके भीतर स्थित , द्शकोण स्थित , अष्टदल पर स्थित ( बाल्य कैशोरादि ) भावों की गणना साधकोत्तम शास्त्रीय पद्धति के अनुसार अनुलोम विलोम क्रम से ( दाहिने बायें , सीधे उल्टे ) विचारा करके करे । बाल कैशोरादि भाव उल्लास प्रदान करते हैं , युवाभाव वृद्धि और सिद्धि प्रदान करता है ।३३ - ३४॥

वृद्ध भाव से वृद्धता प्राप्त होती है तथा अस्तमित भाव से साधक मृत्यु प्राप्त करता है , उसके मध्य में नवों ग्रह तथा पाँचों प्राण भी हैं वहीं दशकोण में सर्वसिद्धियाँ तथा अष्टसिद्धियाँ भी हैं ॥३५ - ३६॥

अष्टपत्र के अधोभाग में , अनन्त के मध्य गृह में तथा उसके ऊपर वाले गृह में उन - उन मन्त्र वर्णों का पड़ना प्रशंसास्पद है ॥३७॥

विद्वान् लोगों को क्रमस्वरुपा इस विद्या का आश्रय लेकर जप करना चाहिए । हस्व देवी अपने साधक को हस्व

बुद्धि देती है ॥३८॥

यदि विद्या क्रोध में रहने वाली है तो साधक का शीघ्र ही भक्षण कर जाती है , अतः अपने समान वय रुप वाले देवता का पूजन करे क्योंकि वह इष्टसिद्धि प्रदान करते हैं ॥३९॥

स्वयं देवता बन कर ही देवता का यजन पुजन करना चाहिए , तभी साधक को मोक्ष प्राप्ति होती है । यदि वर्णों का ज्ञान नहीं है तो साधक कौल पुत्र ( शक्ति का उपासक ) हो कर भी नीचे गिर जाता है ॥४०॥

दीक्षा मन्त्र के वर्ण से रहित साधक को डाकिनी खा जाती है । हे शिव ! इसलिए मन्त्र के वर्ण का विचार संक्षेप में कहती ॥४१॥

च वर्ण विचार --- इस लोक में ( चवर्गोपासक ) मनुष्य की राजा स्वयं बाण लेकर पालन करते हैं । चन्द्रमा प्रचुरता युक्त उसके भय को विनष्ट करते हैं । भास्कर शोक दूर करते हैं । चौथी चपला माया उसे चक्रपाणि विष्णु का पद देती है । किं बुहना , योग में तत्पर योगी हूयमान अन्न वाले मन से उस साधक को शीघ्र ही योग प्रदान करते हैं ॥४२॥

छ वर्ण विचार --- छः की देवता छत्रशा कमल पर स्थित हैं । वे स्थिति तथा लय में वाञ्छ फल की श्री धारण करने वाली हैं , छाया मण्डप के मध्य में गमन करती है , छल करने वाली हैं , अपने तेज से छत्र की छ्टा से युक्त है , वे पाशुपतियों तथा श्री धारण करने वाले क्षेत्राधिपों के साथ त्रैलोक्य का पालन करती हैं , ऐसी प्राणों में प्रेम पूर्वक विहार करने वाली भगवती उस छकारोपासक साधक की अपने छत्र से रक्षा करें॥४३॥

ज वर्ण विचार --- जिस जकार का अभ्यास करने वालों की जाति तथा ख्याति सर्वश्रेष्ठ रुप में उत्पन्न हो जाती है , जीवों के अत्यन्त दुःख राशि का हनन करने से एकर्थ सञ्चारिणी जिस पर प्रसन्न रह्ती हैं ऐसी वज्रा , जीवन मध्यगा , गतिमती , विद्या , जया यामिनी , जाता , जातनिवारिणी संहार चिन्ता स्वरुपा भगवती मनुष्यों के मन की रक्ष करें ॥४४॥

झ विचार --- शीघ्र ही वाद विवाद को विनष्ट कर झर्झरा ( झाँझ ) के समान शब्द करने वाली जो गङ्रा अपने झं झं शब्द से जन्म मरण के बीजझङ्कार को नष्ट कर देती हैं , अशुभों का हनन कर देती हैं धन प्रदान करने वाली तथा कैवल्य मुक्ति देने वाली हैं सूक्ष्म वायु से परिपूर्ण ऐसी काम क्रोध की विनाशिनी , चन्द्रमुखी , झङ्कार शब्द से प्रेम करने वाली गङ्गा अपने झरझनत्कार शब्द से ( झकारोपासक ) साधक की रक्षा करती है ॥४५॥

ञवर्ण का विचार --- जो अकार बीजाधिष्ठात्री योगिनी अकारबीज रुप स्वच्छ भाव सार से बाण से बाण समूहों को नष्ट कर देती हैं , वह खड्‍ग का आयुध धारण करने वाली , रस पान से प्रमत्त संहार निद्रा से आकुल साधुजनों के दुःख को दूर करें ॥४६॥

ट वर्ण विचार --- चन्द्रमा की चन्द्रकिरण के समान स्निग्ध तथा मनोहर विग्रह वाली अपने टङ्कास्त्र ( त्रिशूल ) तथा वज्रास्त्र से अरिपुङ्रवों का विनाश करने वाली , टिं टिं इस बीज रुप मन्त्र से सिद्धि देने वाली टकाराधिष्ठातृ देवता दारिद्र पुरुष के पातक का विनाश करती हैं और श्री प्रदान करती हैं ॥४७॥

ठकार वर्ण विचार --- ठकार की अधिष्ठातृ देवी विशाल नेत्रों वाली अत्यन्त मनोहर अङ्गो वाली है और ठं ठं अपने इस बीज की रक्षा करती हैं । ऐसी कक्षरी रत्नकरा उर्वशी देवी उप्ने उपासकों के मन में रहने वाले समस्त दुःख समूहों को तथा शत्रु के सैन्य कुलों को विनष्ट करती हैं ॥४८॥

ङ वर्ण विचार --- ड की अधिष्ठात्री जगत् की आदि भूता डामरा हैं । वे डं डां डिं डीं स्वरुपिणी हैं । वे अपने डकारोपासक को सुख प्रदान कर शीघ्रता पूर्वक उसे आगे बढ़ाती हैं ॥४९॥

ढ वर्ण विचारा --- ढ की अधिष्ठातृ देवता ढं ढां बीजात्मिका विद्या हैं , जो रत्न मन्दिर में निवास करती हैं । ऐसी ढक्कारी सुन्दरी अपने हाथ में पाश लेकर ढकारोपासक साधक की में निवास करती हैं । ऐसी ढक्कारी सुन्दरी अपने हाथ में पाश लेकर ढकारोपासक साधक की रक्षा करती हैं ॥५०॥

ण वर्ण विचार --- जो सुजन णं णां णिं णीं इस मन्त्र का जप करता है उसके ह्रदय में समस्त क्षोभ पुञ्जों को विनष्ट कर ण की अधिष्ठात्री जीवनी मध्यसंस्था अष्टैश्वर्या देवी स्वयं उत्पन्न हो जाती हैं । वह वाराणसी में समस्त भया को विनष्ट करने वाली हैं और अपने साधक ( णकारोपासक ) को लक्ष्मी प्रदान करती हैं । वह सूक्ष्मा हैं । जाज्वल्यमान अग्नि के समान प्रदीप्त मुख वालीहैं तथा काल के जाल को नष्ट कर देती हैं ॥५१॥

त , वर्ण विचार --- त की अधिष्ठात्री तारारुपा तरु पर स्थित रहने वाली , तीन नेत्रों से भयङ्कर , तारका नाम से प्रसिद्ध , संहार करने वाली , तन्त्र की श्रेणी ( पंक्ति ) के त्राण के लिये वर्तमान रहने वाली , तरुवर की काल , मन कर्म और वाणी से अगम्या , तालों के क्षेत्र में निवास करने वाली . बिजली के समान कलाओं सु युक्त , करोड़ों सूर्य के समान दीप्तिमती , कन्या पुत्रादि सन्तानों के संरक्षण के लिए अत्यन्त तरुणी स्वरुपा ऐसी तकाराधिष्टातृ देवता तारा अपने तारका मन्त्रुं के जप करने वाले भक्त की रक्षा करती हैं ॥५२॥

थ वर्ण विचार --- थकाराधिष्ठातृ देवी भी कालक्रम से विमुक्ति देने वाली हैं । अत्यन्त मनोहर तथा नीले कमलके समान कोमल नेत्र वाली है । सर्वदा स्थित रहने वाली , थकार रुआप अक्षरों की माला धारणा करने वाली , स्थल ( पृथ्वी ) स्वरुपा शिवा अपने मुख्य वार साधका ( थकारोपासका ) की रक्षा करती हैं ॥५३॥

द वर्ण विचार --- द की अधिष्ठात्री देवी दाली ( दलन करने वाली ) हैं । दरिद्रता तथा अत्यन्त निकृष्ट दुःख की हन्त्री हैं , दान्त ( उदार पुरुषों ) पर प्रेमा करने वाली , दैत्य विदारिणी तथा दहन करने वाली हैं , दान स्थल में निवास करने वाली तथा जगत्पति कीं दयिता हैं । दकाराधिष्ठात्री ऐसी द्रवित होने वाली देवधरा अपने ( दकारोपासकों ) को दया प्रदान करती हैं ॥५४॥

ध वर्ण विचार --- धकाराधिष्ठाची धात्री , धरा स्वरुपा , जगत् के धारण में तत्परा धनी , धनप्रदा , धर्म की एकमात्र गति तथा धरित्री स्वरुपा है । धना बीज की माला धारणा करने वाली वे धीरों को धारण करती हैं किं बहुना धर्म के निरुपणा के लिए ध्यान में स्थित रहती है ॥५५॥

न वर्ण विचार --- जिस नकाराधिष्ठात्री देवी का उदय नन्द के प्रति पालन के लिए जगत् के आनन्दपुञ्ज के रुप में हुआ है , जो योगिनी के नयनाम्बुज के लिए उज्ज्चल शिखा है , शोभा की माला धारणा करने वाली तथा अक्षरा हैं , विनीत एवं नावा में स्थित रहनेअ वाली तथा मति सम्पन्ना हैं , ऐसी भगवती जिनका पालन करती हैं उनकी रक्षा भी अपने श्री मुख तेज से इस प्रकार करें जिस प्रकार कालाक्रम से अपने साधक ( नकारोपासक ) की रक्षा करती हैं॥५६॥

प वर्ण विचार --- जो पकाराधिष्ठात्री देवी प्रसन्न रहने वाली , प्रेम में विलास करने वाली हैं , श्रेष्ठ मार्ग वाले ज्ञान का आश्रय करने वाली तथा पालन करने के कारण पूज्य हैं , पायस का पान करने वाली पर तथा अपरा को देने वाली हैं । पीत वस्त्र धारण करने वाली , सबका पोषण करने वाली , पौढ़ा , प्रेमवती तथा पुराण का कथन करने वाली हैं , अतीता काला से वर्तमान रहने वाली , पावन करने वाली तथा प्रकर्ष रुप से स्थिति करने वाली हैं ऐसी वहा जिसने कामेश्वर को पवित्र किया था अपने अनुत्तमजन श्री साधक की भी रक्षा करें ॥५७॥

फ कार वर्ण विचार --- जो फकाराधिष्ठात्री फुत्कार करने वाले सर्प की श्रेष्ठ माला धारण करने वाली श्रृगाली तथा श्रृगाल रुप धारण करने वाली हैं , अनन्त के मुख कुल्या में विकसित कमल रुपी वाक्य के अमृत समुद्र के समान अपार श्री विष्णु के कण्ठ में वाक्य स्वरुपा एवं फला में स्थित रहने वाली , फलगता ( प्रग्रह के समान लटाकते ) फणि को अपने चूडा़ में धारण करने वाली हैं वहा फुल्लारविन्द में अपने फकारोपासक साधक की रक्षा करें ॥५८॥

बकार भकार वर्ण विचार --- वकार की अधिष्ठात्री बज्रनाम से पुकारी जाने वाली , सबको वश में करने वाली , वेदा से निकली हुई श्री रामदेव को उत्पन्न करने वाली , ऐसी भगवती का जो साधक बाल्यावस्था में जप करता है तो उस श्री पाद के संसेवन के प्रभाव से उसके कर कमल में वीरासन से स्थित रहने वाली वशा नाम वाली भगवती वश्य हो जाती हैं । किं बहुना भूतगा भूतेश्वरी भगवती उसके कोमल मुख कमल में निवास करती हैं ॥५९॥

म वर्ण विचार --- म की अधिष्ठात्री माता मन्दिर माला में निवास करने वाली बुद्धिमानों की आनन्द माला तथा अमला हैं । मिथ्या तथा मैथुन से मोहित करने वाली हैं मन से उत्पन्न काम स्वरुपा हैं , मेला स्वरुपा महान् लोगों को मिलाने वाली हैं , जो मानी उस मकार को महेश्वर की महनीयता कहते है उसके वक्षःस्थल पर स्थित हो कर वह मकारधिष्ठात्री उसके मृत्यु को मार डालती हैं और वह सहसा मौन का आलम्बन ग्रहण करता है ॥६०॥

य वर्ण विचार --- जो यतियों से प्रेम करने वाली यकाराधिष्ठात्री योगिनी हैं जो यामा ( रात्रि दिन के अष्टम भाग ) में स्थित रहने वाली अथवा रात्रि स्वरुपा हैं वह जिस प्रकार योनिस्थल की मुख्य आस्पदा हैं उसी प्रकारा योग की भी मुख्य आस्पदा हैं , यशः स्वरुपा तथा प्रव्रज्या स्वरुपा हैं , वह अपने यति साधका की सदैव रक्षा करती हैं ओर उसके यम ( मुत्यु ) को नष्ट कर देती हैं ॥६१॥

र वर्ण विचार --- र वर्ण की अधिष्ठात्री रत्नों में रहने वाली रति से शोभित होने वाली युद्धस्थल में राजाओं की प्रिय तथा भीति ( भय ) का हरण करने वाली हैं , सुर्वण के अलङ्कारा से अलंकृत , नटों के वेशभूषा वाला स्थान रंगशाला में निवास करने वाली हैं । रस से पूर्ण , राग का अपहरण करने वाली तथा रोगों को दूर करने वाली हैं , राधा एवं अमृता हैं । राजेन्द्र की रक्षा करने वाली तथा रजनी ( अन्धकार ) या अज्ञान में रहने वाले पर कोप करती हैं । स्वाहा का स्वरुप , मनोरमा सुरमणी है ऐसी रकाराक्षर वाली रामा अपने उपासक की रक्षा करे ॥६२॥

ल वर्ण का स्वरुप - जो लकाराधिष्ठात्री लक्ष्मी हैं लाङ्गलि ( हल ) लक्षण वाली हैं । सुललना , लोला , अमला ( विमला ) तथा निर्भया है , बाला हैं , असतों ( दुष्टों ) का अमूलीकरण करने वाली हैं , लावण्य युक्त तथा समुद्रा के उल्लास के समान लीला से आकुल हैं । लोला , कोलकुलान्नजा , अनलमुखी लग्ना , लघू तथा आकुला हैं । कौल मार्गा की सूर्य स्वरुपा , आकुल नेत्रों वाली , लयकरी हैं - ऐसी भगवती लीला के आलयभूत मेरी रक्षा करती हैं ॥६३॥

वकार स्वरुप विचार --- जो विष ( पारद ) के आसव की स्थान , रण स्थल में उत्पन्न वासना वाली , वश्या ललना के वेशभूषा वाले अर्थ ( प्रयोजन ) वहन करने वाली हैं , वशी वीर ऐसी देवी का भजन करे तो वह उस वीर की रक्षा करती हैं । हे देवि ! आपका विष ( पारा ) भोजन है , जिसमें वारुणी का निवास है ॥६४॥

श वर्ण विचार --- शीत , शशी के शोक विशेष का नाश करने वाली ऐसी शकाराधिष्ठात्री शिवा , शची , पवित्रता से कल्याणकारिणी , शव से प्रेम करने वाली , शवा में निवास करने वाली , शीतल देश में शोभिता होने वाली सुशीला का जो साधक भजन करता है वहा सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है ॥६५॥

ष वर्णा विचारा --- षकार की अधिष्ठात्री षट्‍चक्रा में षट्‍पादा है आषाढ़ी ( पलाश दण्ड धारण करने वाली ब्रह्म धारिणी ) वेदा के छः अङ्रो में रहने वाली तथा छः मुखों वाली हैं ऐसी षट्‍चक्र में रहने वाली सिद्धिदा षोडशी देवी प्रसन्नतापूर्वक अपने षकारोपासक साधक की रक्षा करती हैं ॥६६॥

सकार वर्ण विचारा --- सकार की वही अधिष्ठात्री माँ ( लक्ष्मी ) हैं , सुन्दरा जल धारण करती है , पात , आकाश अथवा स्वर्ग स्थल में निवास करने वाली हैं , वस्तुओं की सार हैं , साक्षात् सुख की समता वाली रस से उत्कूष्ट ज्वाला से आहलाद सहित , समतायुक्त साकारस्वरुप वाली , कमल में रहने वाली , मधुरता के समान कोमल वाणी वाली , सबके महान् अर्थों को पूर्ण करती हुई , वेद स्वरुपा सूर्य की किरणों के समान देदीप्यमान देवताओं के समान मति वाली सामावेद के अन्तर में निवास करने वाली अपने सकरोपासक की रक्षा करें ॥६७॥

हकार वर्ण विचार --- जो हकाराधिष्ठात्री हठ पूर्वक हार ( माला ) के सहित हो जाती हैं , दुसरे के प्राण लेने वाले जन को मार डालती हैं , किन्तु जो दूसरे के प्राणों की रक्षा करता है उसे वह हिरण्यहार मालिनी नहीं मारती ॥६८॥

क्षकार वर्ण विचार --- जो क्षकाराधिष्ठात्री प्रकाश स्वरुपा हैं , एक लाख जप करने बाले को दान करती हैं , ल अक्षर से युक्त हैं सर्वलक्षण तथा समता वाली कोश हैं आलग्नादानाल सालापा ( आलम्लोल्वान इति जीवानान्दपाठः ?) है जो शीघ्रता से उनका भजन करता है उसकी वह शीघ्रता से रक्षा करती हैं ॥६९॥

जो मन्त्री क्षयरोग का हरण करने वाली क्षकाराधिष्ठात्री देवी को छोड़कर सुसूक्ष्मभावना करता है वह इस पृथ्वी में ही विनष्ट हो जाता है अतः सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म सब से । अन्यतम क्षकाराधिष्ठात्री की भावना करनी चाहिए , जो क्षोभादि समस्त दोषों को तथा पक्ष की कलाओं को विनष्ट करती हैं ॥७०॥

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Last Updated : July 29, 2011

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