बुद्ध - वशिष्ठ वृत्तान्त --- हे नाथ ! यही तत्त्व है , जिसके बिना महाविद्या का दर्शन नहीं होता । ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ जी ने भी बहुत काल तक निर्जन स्थान में निवास कर बहुत बड़ी कठिन तपस्या से श्रेष्ठ साधन किया । इस प्रकारा वे योगादि साधन निरान्तर एक लाख वर्ष तक करते रहे ॥१०६ - १०७॥
इतना करने पर भी उन्हें इस पृथ्वीतल पर साक्षाद् महाविद्या का विज्ञान नहीं हुआ । तब सर्वसमर्थ वशिष्ठ ऋषि क्रुद्ध हो कर अपने पिता ब्रह्मदेव के पास गये । हे प्रभो ! वहाँ जाकरा उन्होंने अपने पिता से सभी आचार का क्रम बतलाया , और कहा -
हे पिता ! मुझे अन्य मन्त्र प्रदान कीजिये । क्योंकि यह विद्य सिद्धि नहीं देती ॥१०८ - १०९॥
यदि आप ऐसा नहीं करते तो मैं उस महाविद्या को आप के आगे ही दृढ़्तर शाप दूँगा । तब ब्रह्मा ने उन्हें मना किया कि
हे पुत्र ! ऐसा मत करो । हे पण्डित ! तुम पुनः भावपूर्वक ’ योग - मार्ग ’ से उन महाविद्या की आराधना करो । पुनः ऐसा करने से वहा वरदायिनी बन कर तुम्हारे आगे आएंगी ॥११० - १११॥
वह देवी परमा शक्ति है । समस्त सङकटों से तरण तारण करने वाली है । वहा करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिमती तथा नीलवर्णा हैं और करोड़ों चन्द्रमा के समान सुशीतल भी हैं । सर्वदा स्थिर रहने वाली और करोड़ों विद्युल्लता के समान प्रकाश करने वाली महाकाल की कामिनी है । वह समस्त जगत् के लोगों का पालन करने वाली हैं , यह चराचरा जगत् उन्ही
का कार्य है ॥११२ - ११३॥
हे स्थिरानन्दा ! हे पुत्र ! तुम उन्ही का भजन करो । उन्हे शाप देने के लिए क्यों उद्यत हो ? हे दयानिधे ! हे पुत्र ! तुम मन को एकाग्र करा निरन्तर भजन करो ॥११४॥
ऐसा करते रहने से आप उनका दर्शन अवश्य प्राप्त करेंगे । अपने पिता ब्रह्मा की इस बात को सुनकर वेदान्तवेत्ता , परम पवित्र , इन्द्रियों को वश में रखने वाले वशिष्ठ जी बारम्बार उन्हें प्रणाम कर समुद्र के किनारे गये । वहाँ जाकरा उन्होंने पुनः एक सहस्त्रा वर्ष पर्यन्त नियमपूर्वक देवी के श्रेष्ठ मन्त्र का जप किया ॥११५ - ११६॥
इतना कहने पर भी जब देवी का कोई संदेश नहीं प्राप्ता हुआ । तब वे मुनि बहुत क्रुद्ध हो उठे और व्याकुल चित्त हो कर महाविद्या को शाप देने के लिए उद्यत हो गये । उन्होंने दो बार आचमन किया फिर बहुत कठिन शाप दिया । तब वह कुलेश्वरी मुनि के आगे आ कर खड़ी हो गईं ॥११७ - ११८॥
योगियों को अभयदान देने वाली महाविद्या ने वशिष्ठ सेअ कहा - हे ब्राह्मण ! तुमने अकारण ही ऐसा कठिन शाप दिया ॥११९॥
तुम न तो मेरी सेवा का विधान जानते हो और न मेरे कुलागम के चिन्तन का प्रकार ही जानते हो । कोई भी मनुष्य य़ोगाभ्यास मात्र से मेरे चरण कमलों का दर्शन किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? देवताओं में मन द्वारा किया गया ध्यान सुख का कारण होता है । सिद्ध मन्त्रज्ञ और मेरे वेद का स्वच्छ रुप से आचरण करने वाला शक्ति मार्ग का अधिकारी तो वेद से भी अगोचर मेरा ही साधन करता है जो महापुण्यदायक है । अतः यदि तुम मेरी साधना चाहते हो तो अथर्ववेद वाले बौद्धों के देश महाचीन में जाओ ॥१२० - १२२॥
हे महर्षे ! वहाँ जाकर अत्यन्त भावपूर्वक मेरी साधना से मेरे चरण कमलों का दर्शन करोगे , मेरा कुलाचारा जान लोगे तब महासिद्ध हो जाओगे । आकाश में रहने वाली उस वायवी शक्ति ने इतना कह कर शीघ्र ही निराकार रुप धारण कर लिया ॥१२३ - १२४॥