सप्तदश पटल - वायवीसिध्दीः

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


वायवी सिद्धि का वर्णन --- मैं आपके सभी प्रश्नों का संक्षेप में एक वाक्य से उत्तर दे रही हूँ । श्रद्धा एवं पराभक्ति से जो साधक अपने मन को नियम में तत्पर रखता है , वह सूक्ष्मरुपिणी वायवी पराशक्ति को प्राप्त कर लेता है । जो धैर्य धारण करने वाला क्षमावान् ‍ परिमित आहार करने वाला शान्ति युक्त , चित्त को संयम में रखने वाला महान् ‍ है । सत्यवादी , ब्रह्मचारी , दयावान् ‍, धर्मवान् ‍, सुख पूर्वक अभ्युदय चाहने वाला , मन के संयम का उपाय जानने वाला , नग्न वेश में रहने वाला , सभी में समान बुद्धि रखने वाला , परमार्थ के विचार को जानने वाला , भूमितल पर अथवा चटाई पर सोने वाला साधक है वही वायवी परमामृत शक्ति को प्राप्त करता है ॥३० - ३३॥

वायवी कृपा --- जो इस प्रकार रह कर उस वायवी परमामृत का पान करता हैं उसी पर वायवी शक्ति की कृपा होती है , जो गुरु की सेवा में सर्वदा निरत रहने वाला धैर्यवान् ‍ शुद्ध सत्त्व से युक्त शरीर वाला , अष्टाङ्ग योग से युक्त भक्त है उस पर वायवी शक्ति की सुकृपा होती है , जो स्वयं बिना भोजन किए , अतिथि को भोजन कराता है , उस पर वायवी शक्ति की कृपा होती है ॥३४ - ३५॥

जो सभी पापों से विनिर्मुक्त है उस पर वायवी कृपा होती हैं , जो अन्तः करण से महात्मा है और वायु को धारण करता है । देवता तथा गुरुजनों में सात्त्विक बुद्धि रखता है उस पर वायवी सुकृपा होती है , हे महेश्वर ! वायवी शक्ति को चित्त में धारण करने से जिसका एक काल भी व्य़र्थ नहीं जाता , उस पर वायवी कृपा होती है , जो लोग योग शिक्षा से निपुणता प्राप्त कर पृथ्वी मण्डल में विचरण करते हैं , अथवा जो प्राणायाम में अभिलाषा रखते हैं उन पर वायवी कृपा होती है । जो एक - एक संवत्सर के क्रम से शक्ति के एक एक पीठ में निवास करते हैं और वायवी शक्ति का जप करते हैं उन पर वायवी शक्ति की कृपा समझनी चाहिए ॥३६ - ४०॥

जो स्वल्प आहार करने वाला , नीरोग , विजया के आनन्द से मस्त रहने वाला योगी वायवी शक्ति का भजन करता है उस पर वायवी कृपा होती है । जो साधक यत्न पूर्वक अन्तर्याग रुप पीठचक्र में चित्त को स्थिर कर नाम में निष्ठा रखता हुआ धारण करता है , उस पर वायवी कृपा

होती है ॥४० - ४२॥

जो पशुभाव से समाक्रान्त होकर रेतः का स्खलन नहीं करता तथा शुक्रपात वाला मैथुन नहीं करता उस पर वायवी सुकृपा होती है । अकाल में अथवा उत्तम काल में जो नित्य ’ धारणा ’ में लगा रहता है और योगियों का साथ करता है , उस पर वायवी कृपा समझनी चाहिए ॥४२ - ४४॥

जो बन्धु - बान्धव से हीन तथा विवेक युक्त चित्त वाला है , शोक और हर्ष के भाव जिसके लिए समान है , उस पर वायवी कृपा समझनी चाहिए । जिसका ह्रदय सर्वदा आनन्द से परिपूर्ण है , जो काल का ज्ञाता है , पञ्चभूत शरीर जिसका साधन है , जो मौन धारण करने वाला तथा जप करने वाला है , उस पर वायवी कृपा समझनी चाहिए ॥४४ - ४६॥

निर्जन स्थान में रहने वाला , किसी प्रकार की चेष्टा न करने वाला , दोनों के ऊपर प्रेम करने वाला , अधिक न बोलने वाला पुरुष स्थिरचित्त कहा जाता है । हास्य , असंतोष , हिंसादि से रहित , पीठ ( आसन ) का पारवेत्ता योग शिक्षा की समाप्ति चाहने वाला साधक स्थिरचित्त कहा जाता है ॥४७ - ४८॥

मेरे कुलागम के समस्त प्रक्रियाओं को जानने वाला महाविद्या आदि मन्त्रों का जानकार शुद्ध भक्ति से युक्त तथा शान्त साधक स्थिर चित्त वाला कहा जाता है ॥४८ - ४९॥

मूलाधार रुपी कामरुप पीठ में , ह्रदय रुपी जालन्धर पीठ में , ललाट रुपी पूर्णगिरि पीठ में , उससे ऊपर ( मूर्धा ) उड्डीयान में , भ्रु के मध्य रुपी वाराणसी में , लोचनत्रय रुपी ज्वालामुखी में , मुखवृत्त रुपी माया तीर्थ में , कण्ठ रुपी अष्टपुरी में , नाभिदेश रुपी अयोध्या में , कटिरुपी काञ्चीपुरी में हे महेश्वर ! जो भूलोक के इन पीठों में यत्न पूर्वक चित्त को लगाकर सूक्ष्म सङ्केत की भाषा से उदर में वायु को पूर्ण बनाता है ॥४९ - ५२॥

अपने पैर के दोनों अंगूठों को जंघा पर तथा दोनो जानुओं को मूलाधार में स्थापित कर चार दल वाले छः दल वाले , दश दल वाले , सिद्धि सिद्धान्त से निर्मल द्वादश दल वाले , कण्ठ में रहने वाले सोलह पत्र वाले , पूर्वतेजः स्वरुप में दो दल वाले , करोड़ों करोड़ों चन्द्रमा की प्रभा के समान सहस्त्र पत्र वाले महापद्य में महावायु को चला चला कर , पुनः पुनः उसे कुम्भक कर , फिर पूरक करे । तदनन्तर रेचक कर रोमकूप से निकले हुये ॥५३ - ५६॥

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Last Updated : July 29, 2011

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