अधम सिद्धि का लक्षण --- मनुष्य के शरीर में होने वाले साढ़े तीन करोड़ रोम हैं वे तथा सभी प्रमुख नाडियाँ घर्म बिन्दु को चुआते रहते हैं । जब तक इस प्रकार का बिन्दु पात होता रहता है तब तक लय की स्थिति रहती है , उतने समय तक अर्थात् प्रस्वेद पर्यन्त किया गया प्राणायाम अधम प्रकार की सिद्धि प्रदान करता है ॥५७ - ५८॥
स्थिरचित्त साधक के लक्षण --- सूक्ष्म वायु की सेवा से (= प्राणायाम ) इस पृथ्वी तल में कौन सी वस्तु है जो सिद्ध न हो लोभकूप में जो मनोरम लय का स्थान है उसमें अपने मन को लगाना चाहिए । ऐसा करने से साधक अपने चित्त को स्थिर कर लेता है , इसमें संदेह या विचार की आवश्यकता नहीं । हे नाथ ! वायु सेवा ( प्राणयाम ) किए बिना इस संसार में भला सिद्धि किस प्रकार प्राप्त हो सकती है ॥५९ - ६०॥
हे नाथ ! चित्त को स्थिर किए बिना मध्यमा सिद्धि भी नहीं होती । इसलिए कुम्भक रुप वायु के द्वारा उन उन स्थानों में मन को लगाना चाहिए । काल का ज्ञान रखते हुये मन्त्रज्ञ साधक किसी एकान्त निर्जन स्थान में रह कर वायु धारण
( प्राणायाम ) करे । ऐसा करने से वह निश्चय ही स्थिर चित्त वाला हो जाता है ॥६१ - ६२॥
हे शम्भो ! जब तक चित्त स्थिर न हो तब उत्तमा सिद्धि भी क्या किसी प्रकार प्राप्त हो सकती है ? पञ्चेन्द्रिय संज्ञक वालों को अपने वश में कर यति यत्नपूर्वक धीरता धारण करते हुये एक महीने पर्यन्त वायु का साधन करने से ईश्वरत्व प्राप्त कर लेता है , और वह विष के आसव को भी पान करने में समर्थ हो जाता है ॥६३ - ६४॥
तीन महीने तक इस प्रकार के अभ्यास के सञ्चय से साधक की इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है और उसे अधम प्राणायाम की सिद्धि हो जाती है । फिर चार महीने में उसे प्रबुद्ध होने वाली खेचरी ( आकाशगमत्व ) सिद्धि भी प्राप्त होती है ऐसा विकल्प
संभव है ॥६५॥
इस भूमण्डल में वह अधिकारी तब हो सकता है जब स्थिरासन होकर आनन्द युक्त चित्त से वायु पीता रहे अर्थात् प्राणायाम करता रहे , ऐसा करते रहने से उसे यथार्थ गामिनी सिद्धि प्राप्त होती है , तथा वह शीघ्र ही श्रेष्ठ वीरभाव को प्राप्त कर लेता है ॥६६॥
यह वायवी शाक्ति अनन्त स्वरुपिणी है , जो रोम समूहों से कुहर में रह कर साधक को महासुख प्रदान करती है , सौख्य देती है तथा गति चाञ्चल्य प्रदान करती है , जय देती है , अन्तः करण में स्थिरता देती है तथा शास्त्र का ज्ञान प्रदान करती है ॥६७॥
जो साधक छः महीने तक योगासन ( के अभ्यस ) में शरीर को लगा देता है , उसे वायु के श्रम से आनन्द रस की प्राप्ति होती रह्ती है , फिर वह कल्प युक्त योगभाव को त्याग कर श्रुति ( वेद ) तथा आगम ( मन्त्र या तन्त्र शास्त्र ) की रचना करने में भी समर्थ हो जाता है ॥६८॥
जिसका चित्त स्थिर होता है , वही महासिद्धि प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं । संवत्सर पर्यन्त अभ्यास करते रहने पर साधक महाखेचरत्त्व प्राप्त कर लेता है । जब तक यह उत्तमा वायवी शक्ति , सुखपूर्वक बाहर निकलती रहती है , तब महाबुद्धिमान् नासा के अग्रभाग में चित्त को लगावे , ऐसा करने से वह स्थिर चित्त हो जाता है ॥६९ - ७०॥
प्रचण्ड वेग वाली वायु जब शीघ्रता से भीतर न प्रवेश करे तब तक वह विचक्षण सर्वत्रगामी हो सकता है । यदि शिरःप्रदेश के ऊपर १२ अंगुल ऊपर तक साधक जाने में समर्थ हो जावे तो वह शिव के सदृश भगवान् एवं गणेश्वर है । हे शङ्कर ! एक वर्ष के भीतर स्थिर चित्त होने से सिद्धि अवश्य हो जाती है , वह साधक आकाशचारी , सर्वत्रगामी , योगिराट् तथा जितेन्द्रिय हो
जाता है ॥७१ - ७३॥
यदि साधक इस भूगोल में योगी बन कर भी मन की स्थिरता का अभ्यास न करे तो वह बड़े कष्ट से ऊचाई पर जा कर भी नारकीय मनुष्य के समान नीचे गिर जाता है । इसलिए . हे महाकाल ! हे प्रभो ! चित्त को स्थिर रखिए , तब बड़ी शीघ्रता से आठों प्रकार की सिद्धियों को देने वाली मुझे आप प्राप्त कर लेंगे ॥७४ - ७५॥
यदि साधक वायवी शक्ति की सुन्दर कृपा आदि के द्वारा सिद्धि प्राप्त कर ले तो वह सभी कामनाओं से स्थिर हो कर अपनी सिद्धि को इस प्रकार गोपनीय रखे जैसे कोई अपनी माता के जार ( उपपति ) को प्रगट नहीं करता ॥७६॥
हे महादेव ! जो पुरुष जैसे - जैसे योगाभ्यास करता है । उसे वह अपने शिष्यों को तथा अपने पुत्रों को भी शिक्षित करते हुते
साधना कार्य करता रहे । उस समय ही वह महासिद्धि प्राप्त कर लेता है , इसमें संशय नहीं । यतः योगमार्ग बहुत दुर्गम है ।
अतः संवत्सर पर्यन्त धर्म का आचरण करते रहना चाहिए ॥७७ - ७८॥
योगमार्ग में सिद्धि प्राप्त कर लेने पर साधक उसे कदापि प्रगट न करे । यदि सबको प्रगट कर देता है तो वह मृत्यु को प्राप्त करता है । योग से युक्त हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है और मन्त्रसिद्धि भी खण्डित नहीं होती । यतः योग ’ भोग और मोक्ष ’ दोनों प्रकार का फल देने वाला है , इसलिए उसे प्रकाशित न करे । एक संवत्सर से ऊपर बीत जाने पर साधक योगाभ्यास से सुख तथा महाधर्म प्राप्त करने लग जाता है ॥७९ - ८०॥
आत्मानन्द का सुख , नित्य सुख , मन्त्र , यन्त्र तथा आगम शास्त्र तथा कुलमार्ग कुण्डलिनी का ज्ञान हो जाने पर , हे कुलेश्वर ! उसे कदापि प्रकाशित नहीं करना चाहिए । यदि इस प्रकार के धर्म का आचरण करे तो उसकी मृत्यु नहीं होती । योग से भ्रष्ट हो जाने वाला एवं विधान को न जानने वाला चाहे कितना भी पण्डित हो वह मृत्यु अवश्य प्राप्त करता है ॥८१ - ८२॥
जिसके प्रकाशित करने से साधक मृत्यु के वश में जा सकता हैं उस कार्य को कदापि प्रकाशित न करे । दत्तात्रेय , महायोगी शुक्र , और नारद इनमें से प्रत्येक लोगों ने कुलार्णव के समस्त मन्त्र जालों को सिद्ध किया था । योगमार्ग प्रदर्शित करने वाले , लोक को वश में करने वाले एवं समस्त मङ्रल प्रदान करने वाले केवल एक ही मन्त्र से साधकोत्तम अपने ध्यान की सहायता से योगशास्त्र के अनुसार एक संवत्सर में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥८३ - ८५॥
सर्वप्रथम पूरक प्राणायाम कर ( अष्टाङ्ग विशिष्ट ) लक्षण योग से ब्रह्मदेव का ध्यान करना चाहिए । फिर समस्त प्रकार की सिद्धि की प्राप्ति के लिए अम्बिका का पूजन करे । मूलाधार स्थित चतुर्दल कमल में अपने चित्त में ऋग्वेद का ध्यान कर सुधी साधक चन्द्ररुप वायु से वायु धारण ( प्राणायाम ) करे ॥८६ - ८७॥
अथर्ववेद से समस्त ऋग्वेदादि चराचर निकले हुये है । इसलिए उस चन्द्रमा से निर्गत अमृत द्वारा कुण्डलिनी रुप सूर्यग्नि में होम करना चाहिए । मन्त्र वेत्ता यजुर्वेद को आगे रखकर कुम्भक प्राणायाम करे ॥८८ - ८९॥
कुम्भक समस्त सत्त्वों से अधिष्ठित है , और वह सभी विज्ञानों में उत्तम है । वायवी शक्ति का पूर्व रुप से स्थान है तथ योगियों के द्वारा प्रशंसित है । बारम्बार निर्मल तेज वाले सत्त्व में कुम्भक प्राणायाम कर साधक महा प्रलय के सार का मर्मज्ञ हो जाता है इसमें संशय नहीं । रेचक प्राणायाम शिव से व्याप्त है । वह तमोगुण वाले मन को अपने में लीन कर लेता है । समस्त मृत्यु रुप कुल का स्थान है तथा धर्म के फलाफल से व्याप्त है ॥९० - ९२॥
पुनः पुनः होने वाली चञ्चलता रेचक से दूर हो जाती है । रेचक से चञ्चलता लय को प्राप्त होती है , रेचक से परम पद की प्राप्ति होती है । श्रेष्ठ साधक केवल रेचक से भी सिद्धि का अधिकारी हो जाता है । रेचक वह अग्नि है जो करोड़ों - करोड़ों अग्नि ज्वाला से उज्वल है । यह बारह अंगुला के मध्य में रहने वाला है इसका ध्यान कर बाह्म लय करना चाहिए । सब प्रकार के पुण्यों से उत्पन्न यह समस्त लोक चन्द्रमा से व्याप्त है ॥९३ - ९५॥
वायु की मित्रता वाली महाबली रेचकाग्नि उसे जलाती रहती है । इस प्रकार वायवी कला शशाङ्र जीवरुप को पी कर वहा सर्वदा जीवित रहती है । आग्नेयी उस वायु को शीघ्र जलाती रहती हैं , यहा सबसे उत्कृष्ट होम है जो इस कार्य को करता है , वह मृत्यु के वश में नहीं जाता ॥९६ - ९७॥
कुम्भक --- इस वायवी तथा रेचकाग्नि को मिलाने वाला कुम्भक उस तत्त्व का साधन है , जो उन भावुकों के लिए परमस्थान कहा जाता है । महाकुम्भ की कला की आकृती वाले कुम्भक में स्थिर रुप से स्थित रह कर अमर महान् साधक अथर्व वेद में रहने वाली ( योगिनी ) देवी का ध्यान करे ॥९८ - ९९।
यह अथर्व अनन्त भावना वाला है । सदाशिव की समस्त सृष्टि से शोभित है । उसका शक्ति चक्र के क्रम मन्त्रवेत्ता साधक ध्यान करे । आज्ञाचक्रा में चार पत्तों वाला कमल है उस चतुर्दल कमल कोष में अथर्व रुप योगिनी का समाधि में स्थित चित्त से ध्यान करे ॥१०० - १०१॥
तदनन्तर शीर्षस्थ कमल में जगत् के ईश्वर जिन्हें अच्युत कहा जाता है उन जगन्नाथ का दर्शन होता है , जो नित्य सूक्ष्म तथा सुखोदय स्वरुप हैं । इस आज्ञाचक्र में जिसका संपूर्ण दल शुद्ध करने वाला है वही अथर्व नामा से पुकारा जाता है उसी के मध्य में ज्योतिश्चक्र है जिसका उत्तम बिल ( द्वार ) योगामार्ग से जाना जाता है ॥१०२ - १०३॥
महाज्ञानी बाह्म दृष्टि से जिस प्रकार कमल देखते हैं उसी प्रकार उस द्वार का भी दर्शन करते है जिससे ब्रह्मज्ञानी साधक काल ( समय ) पाकर सिद्धि प्राप्त करते हैं । इसलिए कौलमार्ग का आश्रय लेना चाहिए । तभी महाविद्या का दर्शन संभव है । वह महाविद्या करोड़ों सूर्य की ज्वालामाला से व्याप्त है ॥१०४ - १०५॥