हे नाथ ! अब आज्ञाचक्र पर सिद्ध किए गये फलों को आप से कहती हूँ , जिसके जान लेने मात्र से साधक निश्चित रूप से सर्वज्ञ हो जाता है । जिससे अकस्मात् सिद्धि प्राप्त होती है , अब उस विद्या रत्न को मैं कहती हूँ । रवि आदि से प्रारम्भ सात वार सत्ययुग में मनुष्यों के कल्याणों को विवर्द्धन करने वाले थे ॥३५ - ३६॥
इसके बाद त्रेता युग में शनि से आरब्ध सात बार मनुष्यों का सौख्य संपादन करते थे । इसके बाद गुरु से प्रारम्भ कर सात बार द्वापर में धर्म साधन के हेतु हुये । किन्तु कलियुग में शुक्र से प्रारम्भ कर सात बार फल देने वाले हुये अतः कलयुग होने के कारण विचक्षण पुरुष को शुक्रवार से ही गणना प्रारम्भ करनी चाहिए ॥३७ - ३८॥
सुधी साधक चतुर्दल के मध्य में पूर्वादि दिशा के क्रम से शुक्रवार से शुक्रवार से प्रारम्भ कर सातों वारों की गणना करे । अपना वार जिस पत्र पर समाप्त हो वही वार उदभव ( पैदा होने वाला ) समझना चाहिए । उसी से नक्षत्र तथा राशि बनाकर उसके वर्णभेद ( बाँटना ) को समझना चाहिए ॥३९ - ४०॥
वर्णों के आदि से तथा पत्रों के भेद से सामान्य़ फल का मूल समझना चाहिए । आज्ञाचक्र अत्यन्त शुभकारी है । अतः मन्त्रसाधक को आज्ञाचक्र का विचार अच्छी तरह जानना चाहिए । अब हे सङ्केत के पण्डित ! उसके फलाफल के माहात्म्य को सुनिए ॥४१ - ४२॥
आनन्दभैरव ने कहा --- पूर्व दिशा में रहने वाले आकार का अर्ध ( अर्थात् अ ) जिस पर चन्द्र बिन्दु हो ( अर्थात् अं ) तथा हकारान्त शब्द ( अः ) हो तो राज्य का लाभ होता है । १ . समान रूप से अर्थ की प्राप्ति तथा २ . विशिष्ट अर्थ का योग ३ . क्रतु ( पुण्यकार्य क्षेम से युक्त एवं पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है ॥४३॥
ऐसा मनुष्य दया से युक्त भूषण का आश्रय वाला , विजयी तथा उत्तम विवाह ( पत्नी पुत्र का भोग ) प्राप्त करता है । हे नाथ ! उसे एवं लोगों का अनुराग तथा भृत्यों से युक्त सुन्दरभोग प्राप्त होता है ॥४४॥
कमल के दक्षिण दिशा के पत्र में रहने वाली प्रियपदा मोद ( प्रसन्नता ) को जलाने वाली , तथा भास्वर वर्ण की है वह अपने अनेक लक्षणों द्वारा दुःख देने वाली शुचिपटा है . उससे मैं भी कम्पित होती हूँ , वह महेन्द्र के भी अमृतयोग के रागा का हनन करने वाली है , साक्षात् यम को आरोपित करती है । सबके चित्त को चञ्चल करने वाली तथा दुष्ट गुणों के आहलाद सामोद सामोद ( प्रसन्नता पूर्वक ) रहने वाली है ॥४५॥
सुपात्र का लाभ करने वाली हैं तथा समस्त बाधाओं का तथा दुष्टों की दुष्टता एवं प्रताप को नष्ट करने वाली हैं । वे वर्णमध्य में क्षमा रुप से प्रतिष्ठित हैं जिन स्वयंसिद्धा की साक्षात् क्षमा आदि भी भजन करते हैं ॥४६॥
यदि रसार्थ प्रश्न गृहमध्य में किया जाय तो युग के आरम्भ के अनुसार सातों वरों के चार अर्थात् संचार के अनुसार वह निश्चित ही स्वकीय इन्दु का प्रिय अर्थात् अपने प्रिय अर्थात् अपने प्रिय का प्रेमी हो जाता है ताथा मनोभिलाषित वस्तु प्राप्त होकर सौख्याभिवर्धन होता है ॥४७॥