दीक्षा विधि --- श्रीभैरव ने कहा --- हे महादेवि ! कुल ( शक्ति ) के सद्भाव की प्राप्ति के लिए यदि मुझ पर आपकी कृपा दृष्टि है तो हे स्नेह सागर वाली ! षोडश - चक्र की विधि वर्णन कीजिए । हे देवि ! आपकी कृपा से मैं भैरव , काल और जगदीश्वर हूँ । आपकी कृपा से भुक्ति एवं मुक्ति का प्रदाता याग , योगी और दिगम्बर हूँ ॥ १२६ - १२७॥
हे देवि ! सभी विद्याओं के दीक्षा में प्रथम विचारणीय चक्र मण्डल का फल कहिए । कालरहित एवं कुलहीन १ . अकडम , २ . कुलाकुल , ३ . ताराचक्र , ४ . राशिचक्र , ५ . कूर्मचक्र तथा ६ . शिवचक्र , ७ . विष्णुचक्र , ८ . त्रिलक्षण संयुक्त ब्रह्मचक्र , ९ . देवचक्र , १० . ऋणधनात्मक चक्र , ११ . उल्काचक्र , १२ . वामाचक्र ( बालाचक्र ), १३ . चतुश्चक्र , १४ . सूक्ष्मचक्र का प्रकार कहिए । फिर , हे प्रिये ! १५ . अकथह चक्र को कहिए । क्योंकि जो उत्तम साधक इन चक्रों को विचार कर मन्त्र ग्रहण करते हैं उनके लिए निश्चित ही कहीं कोई भी वस्तु असाध्य नहीं होती । इस विषय में हम बहुत क्या कहें , उस मनुष्य को देवताओं का दर्शन भी प्राप्त हो जाता है । इस चक्रराज के विचार करने के कारण उसकी गति कहीं अवरुद्ध नहीं होती ॥१२८ - १३३॥
द्विजोत्तम सभी चक्रों का विचार नहीं करते । नाम के द्वारा चक्र का विचार देवता के लिए प्रीतिकारक होता है । अतः उसका विचार अवश्य करना चाहिए ॥१३३ - १३४॥
विष्णुमन्त्र की दीक्षा लेने वालों को ताराचक्र की शुद्धि , शिव मन्त्र की दीक्षा लेने वालों को कोष्ठ शुद्धि , त्रिपुरादेवी के मन्त्र की दीक्षा लेने वाले को राशिचक्र से शुद्धि , गोपाल के मन्त्र की दीक्षा लेने वाले को अकडम चक्र से शुद्धि का विचार कर लेना आवश्यक कहा गया है । इसी प्रकार वामन मन्त्र में अकडम चक्र तथा गणेश मन्त्र में शिवचक्र से शुद्धि का विचार करना चाहिए ॥१३४ - १३५॥
वराहमन्त्र में कोष्ठचक्र , महालक्ष्मी में कुलाकुल चक्र तथा नामादिचक्र में सभी मन्त्रों का और उसी प्रकार भूतचक्र में भी सभी मन्त्रों की दीक्षा में विचार करना चाहिए ॥१३६॥
बुद्धिमान् को त्रिपुरा मन्त्र में ताराचक्र पर परीक्षित शुद्ध मन्त्र ग्रहण करना चाहिए । वैष्णव मन्त्र को राशिचक्र पर तथा शैव मन्त्र को अकडम चक्र पर परीक्षा कर शुद्ध करना चाहिए । कालिका एवं तारा मन्त्र की दीक्षा लेने वालों को शिवचक्र कल्याणकारी होता है । चण्डिका मन्त्र की दीक्षा में कोष्ठक चक्र और गोपाल मन्त्र की दीक्षा में नक्षत्र चक्र कल्याणकारक होता है ॥१३७ - १३८॥
शिवचक्र में सभी मन्त्रों की परीक्षा करे । ऋणधनात्मक चक्र में ऋणाधिक्य होने पर मन्त्र ग्रहण शुभकारक होता है किन्तु धनाधिक्य में मन्त्र ग्रहण का विधान नहीं है । साधक मन्त्र ग्रहण में दोषों का संशोधन कर मध्यभाग में उसे ग्रहण करे । चक्र की परीक्षा में शर्मादि तथा देव आदि उपनामों को त्याग कर पिता माता द्वारा रखे गए नामो द्वारा परीक्षा करें ॥१३९ - १४०॥
विद्याचक्र में क्रमशः श्री वर्ण को संयुक्त करे । अब शुभाशुभ फल देने वाले उन सभी विधियों को क्रमशः सुनिए । भावनापूर्वक भावुक जापकों को मन्त्र सिद्धि तत्काल हो जाती है । भक्तों का ऐसा निश्चय है कि भावनापूर्वक जप करने से मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं ॥१४१ - १४२॥
ध्यानमार्ग का आश्रय लेकर चलने वाले उत्तम कुलीन जनों को कुलीन महाविद्या महामन्त्र संशुद्ध होने पर सिद्ध हो जाता है ॥१४३॥
हे महेश्वर ! सिद्धमन्त्र के प्रकरण में हमने जितना भी कहा हैं उसके अनुसार साधक यदि उत्तमोत्तम मन्त्र ग्रहण करे तो उसे
( अणिमा , महिमा , लघिमा आदि ) अष्टसिद्धियों का प्रभाव मालूम पड़ने लगता है तथाअ सायुज्य पद की प्राप्ति भी होती है । यह षोडसार चक्र सभी के मन्त्र सिद्धि के लिए कहा गया है ॥१४४ - १४५॥
मन्त्र योग में मेरे द्वारा कहे गए कल्याणकारी मन्त्रों पर विचार कर उसे ग्रहण करना चाहिए । प्रथमतः बालाभैरवी मन्त्रों के लिए अकडम चक्र से परीक्षित मन्त्र ग्रहण करना चाहिए यह मेरा मत है । कुमारी ललिता देवी के तथा कुरुकुल्लादि के साधन में सभी चक्रों का फल देने वाला श्रीचक्र सुन्दर फल प्रदान करने वाला कहा गया है ॥१४६ - १४७॥
योगिनी आदि के साधन में ताराचक्र महान् फल देता है उन्मत्त भैरवी विद्या आदि साधन में राशिचक्र करोड़ गुना फल देने वाला एवं नानारत्न प्रदान करने वाला कहा गया है । प्रत्यङ्गिरा साधन में तथा उल्काविद्यादि साधन में समस्त चक्रों का फल देने वाला शिवचक्र महान् पुण्य उत्पन्न करने वाला है । कालिका चर्चिका मन्त्र में तथा विमला आदि साधन में भी शिवचक्र पुण्य प्रदान करता है ॥१४८ - १५०॥
संपत्ति प्रदान करने वाली सभी भैरवियों के मन्त्र ग्रहण कर्म में मनुष्यों को विष्णुचक्र के द्वारा ( शोभित मन्त्र ) करोड़ों शत गुणित पुण्य प्राप्त कराने वाला होता है ॥१५१॥
छिन्नमस्तकादि श्रीविद्या एवं कृत्यादेवी के मन्त्र साधन में तथा नक्षत्रविद्या , कामाख्या एवं ब्रह्माणी आदि के साधन में ब्रह्माचक्र महान पुण्यकारक होता है । किं बहुना मन्त्र ग्रहण करने वाला साधक उससे सभी विद्याओं का फल प्राप्त करता है । करोड़ों जप से जितना पुण्य होता है ब्रह्मचक्र से सिद्ध मन्त्र उतना ही फलदायी होता है ॥१५२ - १५३॥
वज्र ज्वाला महाविद्या के साधन में तथा उनके मन्त्र के जप में , इसी प्रकार गुह्म काली के साधन में , कुब्जिका मन्त्र के साधन में , वाणी की सिद्धि देने वाला देवचक्र शुभकारक कहा गया है । कामेश्वरी अट्टहासा के मन्त्र साधन कर्म में और इसी प्रकार राकिणी मन्दिरा देवी एवं मन्दिरा के मन्त्र साधन कर्म में ऋणधनात्मक महाचक्र का विचार सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करता है ॥१५४ - १५६॥
श्रीविद्या भुवनेश्वरी तथा भैरवी के मन्त्र साधन में , इसी प्रकार पृथ्वी कुलावती वीणा के साधन में और वामनी मन्त्र के साधन में उल्काचक्र महान् पुण्यदायका है । इतना ही नहीं यह राजत्व का फल भी प्रदान करता है तथा हितकारी भी है । इसी प्रकार शिवादिनायिका मन्त्र में बालाचक्र सुखकारक कहा गया है ॥१५७ - १५८॥
फेत्कारी देवी के मन्त्र के जप में एवं उड्डीयानेश्वरी के मन्त्र में महामन्त्र का फल देने वाला चतुश्चक्र सैकड़ों गुना फल प्रदान करता है । द्राविणी और दीर्घजंघादि तथा ज्वालामुखी आदि के मन्त्र साधन में इसी प्रकार नारसिंही मन्त्र के साधन में सूक्ष्मचक्र फलदायी होता है ॥१५९ - १६०॥
हरिणी , मोहिनी एवं कात्यायनी देवी के साधनकर्म में , इसी प्रकार हे भैरव ! विष्णुमन्त्र , शिवमन्त्र तथा देवीमन्त्र में अकथह महाचक्र का यत्नपूर्वक विचार कर जो मन्त्र ग्रहण करता है वह साक्षात शिव है , इसमें संशय नहीं ॥१६१ - १६२॥