द्वितीय पटल - गुरूस्तोत्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


जो वाञ्छा से भी अतिरिक्त फल देने वाले तथा सभी सिद्धियों के ईश्वर हैं , इस प्रकार के हंस मण्डल के ऊपर विराजमान श्री गुरु का मैं एकाग्रचित्त से भजन करता हूँ । जो आत्मस्वरुप , निराकार , साकार ब्रह्म के स्वरुप , महाविद्या , महामन्त्र के प्रदाता हैं , परमेश्वर हैं , समस्त सिद्धियों को देने वाले हैं - ऐसे गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥३२ - ३४॥

जो साधक अपने श्री गुरु के चरण कमलों में काय , मन और वाणी से निरन्तर नमन करते हैं वे श्रीगुरु के उन चरण कमलों में अवश्य ही निवास करते हैं । उत्तम साधक को प्रभात में नमस्कार करने से करोड़ों गुना पुण्य , मध्याहन में दश लक्ष गुना पुण्य तथा सायङ्काल में नमस्कार करने से करोड़ों गुना फल प्राप्त होता है ॥३४ - ३६॥

जो लोग प्रातःकाल में एकाग्रचित्त हो कर निम्न गुरुस्तोत्र का पाठ करते हैं अथवा उनका ध्यान करते हैं , वे अवश्य ही सिद्धि प्राप्त करते हैं । साधक को इसमें विचार की आवश्यकता नहीं है ॥३६ - ३७॥

गुरुस्तोत्र --- शिरः प्रदेश में श्वेत कमल पर पूर्णमासी के करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रकाशमान , हाथ में वर और अभय की मुद्रा से युक्त करकमल वाले , सर्वदेव स्वरूप , वरदाता , जिनके दोनों चरण कमल करोड़ों अलाक्तक प्रभा के समान ( अरुणिम हुए से ) प्रकाशित हैं ऐसे मनोहर किरणों की भोभा से व्याप्त श्री गुरुदेव का मैं भजन करता हूँ ॥३८॥

संसार के सम्पूर्ण भय को दूर करने वाले , इस लोक के समस्त भोग तथा परलोक में मोक्ष देने वाले , जिसके मिल जाने पर जय की प्राप्ति होती है , इस प्रकार के परम गुरु के दोनों चरण कमलों का मैं भजन करता हूँ , जो नेत्र कमलों के मध्य में स्थित हैं , संसार समुद्र के भय को नाश करने वाले हैं तथा रोगों को शान्त करने वाले एवं शरीर की क्षीणता को दूर करने वाले है ॥३९॥

अत्यन्त कोमल षोडश दल नाम वाले , विकसित पङ्कज पर विराजमान प्रभुं एवं समस्त बाह्म भोग संपादन करने वाले श्रेष्ठ गुरु का मैं भजन करता हुँ । जिनके दोनों विशाल नेत्र कमलों से विद्युत्प्रभापुञ्ज इस प्रकार निर्गत हो रहा है मानो पीले वर्ण के मणियों के समूहरुपी चन्द्रमा से चिनगारी के कण प्रकाशित हो रहे हों उन गुरु का मैं भजन करता हूँ ॥४०॥

उमापति शङ्कर के दक्षिण भाग में हृदय पर विराजमान ‍, हिलते हुए द्वादश कमल पर चलाचल कलेवर वाले परमेष्ठी गुरु का मैं भजन करता हूँ । जो हमारी गति तथा हमारे आलाम्बन हैं जिनका मुख सैकडो़ सूर्य समान उज्ज्वल तथा स्वच्छ , करोड़ों चन्द्रमा के समान मनोहर तथा अत्यन्त तेजस्वी रूप से विराजमान हैं उन गुरु का मैं भजन करता हूँ ॥४१॥

नाभि स्थान में मणि के समान चमकीले द्वादश पत्र वाले , कमल पर योगीजन जिनका ध्यान करते हैं , प्रभात में सैकड़ों अरुणघटा के समान लाल वर्ण से सुशोभित , योगगम्य उस तेज का ध्यान करना चाहिए जो सुवर्ण निर्मित मञ्जीर का सार , काम को भस्म करने वाला , अपने अदभुत शब्दों से परिजनों को आहलाद उत्पन्न करने के कारण अत्यन्त मनोहर , वक्र तथा तीन भंगियो वाला है उस कल्याणकारी आदि गुरु ( शङ्कर ) को मेरा नमस्कार है ॥४२॥

स्वाधिष्ठान में स्थित ६ पत्तों वाले कमल पर अधिष्ठित तथा वैकुण्ठमूल में मय दानवादि के द्वारा अपनी भुजा से निर्मित , निर्वाण , सीमापुर में निवास करने वाली , जो माता जीवों को जन्म से उद्धार करती है , उनके विकारों को नष्ट करती हैं , वेद प्रभा के समान भासमान , कन्दर्प के द्वारा समर्पित , अतिशान्ति की योनि , सबकी माता , सबका कल्यण करने वाली एवं विष्णु प्रिया हैं , उन ( महालक्ष्मी स्वरुपा ) देवी को नमस्कार है ॥४३॥

मूलाधार में चतुर्दल पद्‍म पर अधिष्ठित , कुल में निवाल करने वाली , निःश्वास देश में समाश्रित , जिसका मुख कुण्डली ( सर्पिणी ) के समान भासमान है , जो कुल पथ में अत्यन्त प्रकाश से शोभा करने वाली तथा वाञ्छा की कल्पलतिका है , नित्या तथा योगी जनों के भय को दूर करने वाली , विषहारिणी एवं श्रेष्ठ अम्बिका के रूप में ध्यान गम्य है उन उमा को नमस्कार है ॥४४॥

जो मूलाधार से शीर्षस्थ सहस्त्रदल कमल पर्यन्त ऊपर की ओर रहने वाले कमल से उत्पन्न , अमृतमय कलश से आमोदातिरेक पूर्वक आप्लावित हैं वो गुरुमुखी देवी हमारी रक्षा करें । जो सुषुम्ना रुप सूक्ष्मपथ से चलने वाली , तेजोमयी , भासमान होती हैं , जो अत्यन्त सूक्ष्म योगसाधन से गोचरा एवं अमृतमयी है , ऐसी परम सुन्दरी मातृभूता पराम्बा कब चेतनापुरी की भूमि में हमारे द्वारा ध्यातव्य होंगी ? ॥४५॥

गुरुस्तव की फलश्रुति --- वह स्थिति तथा पालनकर्ता हैं , इस प्रकार के बुद्धियोगपूर्वक ध्यान से अथवा पूजन से जो साधक इस गुरुस्तव का प्रातःकाल में पाठ करता है , वह वस्तुतः देवता है , मनुष्य कदापि नहीं है ॥४६॥

यदि कोई श्रेष्ठ साधक सायङ्काल अथवा प्रभातकाल में इस स्तोत्र का पाठ करे तो वह कल्याण का भागी , धन - धान्य , कीर्ति , आयु तथा श्री प्राप्त करता हैं । वह बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होता है और कल्पवृक्ष के समान कामनाओं की पूर्ति करने वाला होता है ॥४७ - ४८॥

बहुत क्या कहना ? इस स्तोत्र की कृपा से वह वाचस्पतित्त्व प्राप्त करता है । किं बहुना पशुभाव में स्थित सभी ध्यातव्य इस स्तव के प्रभाव से सिद्ध हो जाते हैं , इसमें संशय नहीं ॥४८ - ४९॥

प्रथम प्रहर में वह साधकों में श्रेष्ठ , सदैव सदाचार युक्त बुद्धि वाला होकर पशुभाव में स्थित रहता है । फिर वीरभाव में , तदनन्तर सांयकाल में दिव्यभाव संपन्न हो जाता है ॥४९ - ५०॥

इन तीनों भावों का ज्ञाता गुरु वेदान्त का पारगामी विद्वान् ‍ होना चाहिए । शान्त , दान्त ( जितेन्द्रिय ), उत्तम कुल वाला , विनयशील , शुद्ध वेष वाला , शुद्ध आचरण वाला , उत्तम स्थिति में रहने वाला , शुचि , दक्ष , बुद्धिमान् ‍, आश्रम धर्म का पालन करने वाला , ध्यान में निष्ठा रखने वाला , मन्त्र तथा तन्त्र शास्त्रों का विशारद , शिष्य के ऊपर निग्रह औरा अनुग्रह करने में सर्वक्षा समर्थ , जितेन्द्रिय , मन्त्रो के अर्थ का ज्ञानपूर्वक जप करने वाला गुरु होना चाहिए ॥५० - ५२॥

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Last Updated : July 28, 2011

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