साधक परमहंस गुरुओं के त्रैलोक्यपावन वाक्यों को सुन कर योगी हो जाता है और योग प्राप्त करता है । चाहे शुक सारिका बनकर पिंजरे में पडा़ हो , चाहे पतङ्ग
अथवा पक्षियोनि में पडा़ हो , फिर भी मेरा साधक विमल , महान् एवं स्वर्गतुल्य मेरे नाम को ग्रहण करता रहता है ॥१२१ - १२२॥
हे कुलेश्वर ! जब तक ज्ञान सञ्चार की प्राप्ति न हो तब तक वह ऐसा करता रहता है । इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह आधुओं और मेरे साधकों के सन्निकट निवास करे । यदि बुद्धिमान् महाविद्या का उपासक हो तो उसका पतन नहीं होता । उसे अपने जन्म को बिताने के लिये नाना शास्त्रों के अर्थों का संभाषण नहीं करना पड़ता ॥१२३ - १२४॥
इस भूतल पर बिना देवज्ञान के कुछ भी सिद्ध नहीं होता । हे भैरव ! भला आप ही विचार करें उसे मन्त्र तथा श्रीकाय की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है । उसी प्रकार सांख्य शास्त्र का ज्ञान एवं वेदभाषाविधिज्ञान उसे कैसे हो सकता है । जिस प्रकार शक्ति के बिना कोई शाक्ता नहीं रहता है उसी प्रकार सुरज्ञान के बिना भी वह अशक्त रहता है ॥१२५ - १२६॥
जिस प्रकार दरिद्र के घर में अहिताचार सम्पत्ति दिखाई पड़ती है । साधक के घर में यदि उसी प्रकार शक्ति ज्ञानाचार की विवेचना की जाती है तो वह केवल उसके सायुज्यपद नाश का नाश मात्र करती है ( अर्थात् उसे सायुज्य पद मात्र प्राप्त नहीं होता , उसे समृद्धि भी प्राप्त होती है ) ॥१२७ - १२८॥
यदि शिवकामिनी वह स्वशक्ति अज्ञान से परिपूर्ण हो तब न तो उसे ही स्वीकार करे और न उस शक्तिके साधन को ही स्वीकार करे । यदि उत्तम साधक संस्कार हीन होने से उस असंस्कृत का संसर्ग करता है तो असंस्कृत्यादि दोष से उसकी सिद्धि में हानि होती है ॥१२८ - १३०॥
साधक के लिये दिव्य , वीर और पशु इन तीनों भावों की शक्ति प्रधान है । पशुभाव से ज्ञान की सिद्धि होती है इसीलिये पश्वाचार का निरूपण किया गया है । वीरभाव से क्रिया सिद्धि होती है और उससे वह साक्षाद् रुद्र हो जाता है इसमें संशय नहीं है ॥१३० - १३२॥
दिव्य भाव और वीरभाव एक प्रकार से भिन्न भिन्न नहीं है प्रथमतः यह अण्ड सर्वगत है यही दिव्यभाव का लक्षण है ॥१३२ - १३३॥
विमर्श --- अण्डम - यह ब्रह्माण्ड आत्मस्वरूप है । इस प्रकार का आत्मसाक्षात्कारा ही दिव्य भाव है ॥१३२ - १३३॥
दिव्य भाव का उदय होने पर देवता का दर्शन कहा गया है तथा वीरभाव के उदय होने पर मन्त्र की सिद्धि होती है और अद्वैताचार के लक्षण प्रगट होते हैं । सर्वप्रथम पशुभाव के प्राप्त होने पर रात्रि में कर्म न करे । दिन दिन में ही स्नान पूजा एवं नित्य क्रिया का आचरण करे । ( पशुभाव में ) शुचिभाव से कर्म करने पर सभी कार्य पुरश्चरण के समान सिद्ध होते हैं ॥१३३ - १३५॥
हे भैरव ! भला पशुभाव के बिना निश्चयपूर्वक कौन अपने इन्द्रयों पर विजय प्राप्त कर सकता है । पशुभाव से इन्द्रियों का दमन तो होता ही है काल ( = शमनस्य ) का भी दमन हो जाता है । रात्रि में प्रभात काल की अवधि तक अथवा प्रतिक्षण योगाभ्यास करता हुआ योगशिक्षा में कुशल और योगापरायण यति पुरुष मुझ में युक्त हो जाता है ॥१३६ - १३७॥
विमर्श - ’ शमनो यमराड्यमः इत्यमरः ।
योग प्रशंसा --- योग सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है इसलिये उसे सर्वकाल में करना चाहिये । यह अभीष्ट प्रदान करने के लिये कल्पवृक्ष के समान तरुण है तथा पातक का हरण करने वाला है । किन्तु मन्त्रज्ञ साधक सावधान मन से पशुभाव में ही स्थित होकर अपने हित का साधन करे क्योंकि योगभाषाविधि का ज्ञान सभी भावों की अपेक्षा अत्यन्त दुर्लभ है ॥१३८ - १३९॥