सोरठा
देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत ॥३०१॥
चौपाला
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू । पर अकाज प्रिय आपन काजू ॥
काक समान पाकरिपु रीती । छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला । सो उचाटु सब कें सिर मेला ॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे । राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ॥
भय उचाट बस मन थिर नाहीं । छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं ॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी । सरित सिंधु संगम जनु बारी ॥
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं । एक एक सन मरमु न कहहीं ॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू । सरिस स्वान मघवान जुबानू ॥
दोहा
भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ ॥३०२॥
चौपाला
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे । निज सनेहँ सुरपति छल भारे ॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री । भरत भगति सब कै मति जंत्री ॥
रामहि चितवत चित्र लिखे से । सकुचत बोलत बचन सिखे से ॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई । सुनत सुखद बरनत कठिनाई ॥
जासु बिलोकि भगति लवलेसू । प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू ॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी । भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी ॥
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी । कबिकुल कानि मानि सकुचानी ॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई । मति गति बाल बचन की नाई ॥
दोहा
भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि ॥३०३॥
चौपाला
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ । लघु मति चापलता कबि छमहूँ ॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को । सीय राम पद होइ न रत को ॥
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को । जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को ॥
देखि दयाल दसा सबही की । राम सुजान जानि जन जी की ॥
धरम धुरीन धीर नय नागर । सत्य सनेह सील सुख सागर ॥
देसु काल लखि समउ समाजू । नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥
बोले बचन बानि सरबसु से । हित परिनाम सुनत ससि रसु से ॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना । लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना ॥
दोहा
करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात ॥३०४॥
चौपाला
जानहु तात तरनि कुल रीती । सत्यसंध पितु कीरति प्रीती ॥
समउ समाजु लाज गुरुजन की । उदासीन हित अनहित मन की ॥
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू । आपन मोर परम हित धरमू ॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा । तदपि कहउँ अवसर अनुसारा ॥
तात तात बिनु बात हमारी । केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी ॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू । हमहि सहित सबु होत खुआरू ॥
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू । जग केहि कहहु न होइ कलेसू ॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा । मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा ॥
दोहा
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ॥३०५॥
चौपाला
सहित समाज तुम्हार हमारा । घर बन गुर प्रसाद रखवारा ॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू । सकल धरम धरनीधर सेसू ॥
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू । तात तरनिकुल पालक होहू ॥
साधक एक सकल सिधि देनी । कीरति सुगति भूतिमय बेनी ॥
सो बिचारि सहि संकटु भारी । करहु प्रजा परिवारु सुखारी ॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई । तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई ॥
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा । कुसमयँ तात न अनुचित मोरा ॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए । ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए ॥
दोहा
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ॥३०६॥
चौपाला
सभा सकल सुनि रघुबर बानी । प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी ॥
सिथिल समाज सनेह समाधी । देखि दसा चुप सारद साधी ॥
भरतहि भयउ परम संतोषू । सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू । भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू ॥
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी । बोले पानि पंकरुह जोरी ॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को । लहेउँ लाहु जग जनमु भए को ॥
अब कृपाल जस आयसु होई । करौं सीस धरि सादर सोई ॥
सो अवलंब देव मोहि देई । अवधि पारु पावौं जेहि सेई ॥
दोहा
देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ ॥३०७॥
चौपाला
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं । सभयँ सकोच जात कहि नाहीं ॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई । बोले बानि सनेह सुहाई ॥
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन । खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी । आयसु होइ त आवौं देखी ॥
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू । तात बिगतभय कानन चरहू ॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता । पावन परम सुहावन भ्राता ॥
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं । राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं ॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा । मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ॥
दोहा
भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ॥३०८॥
चौपाला
धन्य भरत जय राम गोसाईं । कहत देव हरषत बरिआई।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू । भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ॥
भरत राम गुन ग्राम सनेहू । पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन । नेमु पेमु अति पावन पावन ॥
मति अनुसार सराहन लागे । सचिव सभासद सब अनुरागे ॥
सुनि सुनि राम भरत संबादू । दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू ॥
राम मातु दुखु सुखु सम जानी । कहि गुन राम प्रबोधीं रानी ॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई । एक सराहत भरत भलाई ॥
दोहा
अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप ॥३०९॥
चौपाला
भरत अत्रि अनुसासन पाई । जल भाजन सब दिए चलाई ॥
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू । सहित गए जहँ कूप अगाधू ॥
पावन पाथ पुन्यथल राखा । प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा ॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू । लोपेउ काल बिदित नहिं केहू ॥
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा । किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा ॥
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू । सुगम अगम अति धरम बिचारू ॥
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा । अति पावन तीरथ जल जोगा ॥
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी । होइहहिं बिमल करम मन बानी ॥
दोहा
कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ ॥३१०॥
चौपाला
कहत धरम इतिहास सप्रीती । भयउ भोरु निसि सो सुख बीती ॥
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई । राम अत्रि गुर आयसु पाई ॥
सहित समाज साज सब सादें । चले राम बन अटन पयादें ॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं । भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं ॥
कुस कंटक काँकरीं कुराईं । कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं ॥
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे । बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे ॥
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं । बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं ॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी । सेवहिं सकल राम प्रिय जानी ॥