अयोध्या काण्ड - दोहा १०१ से ११०

गोस्वामी तुलसीदास जीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ॥१०१॥

चौपाला

उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता । सीयराम गुह लखन समेता ॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा । प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी । मनि मुदरी मन मुदित उतारी ॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई । केवट चरन गहे अकुलाई ॥
नाथ आजु मैं काह न पावा । मिटे दोष दुख दारिद दावा ॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी । आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें । दीनदयाल अनुग्रह तोरें ॥
फिरती बार मोहि जे देबा । सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ॥

दोहा

बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ ॥१०२॥

चौपाला

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा । पूजि पारथिव नायउ माथा ॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी । मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ॥
पति देवर संग कुसल बहोरी । आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी । भइ तब बिमल बारि बर बानी ॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही । तव प्रभाउ जग बिदित न केही ॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें । तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ॥
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई । कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई ॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा । सफल होपन हित निज बागीसा ॥

दोहा

प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ ॥१०३॥

चौपाला

गंग बचन सुनि मंगल मूला । मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू । सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी । बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई । करि दिन चारि चरन सेवकाई ॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई । परनकुटी मैं करबि सुहाई ॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई । सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई ॥
सहज सनेह राम लखि तासु । संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे । करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ॥

दोहा

तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ । ì
सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ॥१०४॥

चौपाला

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू । लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
प्रात प्रातकृत करि रधुसाई । तीरथराजु दीख प्रभु जाई ॥
सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी । माधव सरिस मीतु हितकारी ॥
चारि पदारथ भरा भँडारु । पुन्य प्रदेस देस अति चारु ॥
छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा । सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा । कलुष अनीक दलन रनधीरा ॥
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा । छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा । देखि होहिं दुख दारिद भंगा ॥

दोहा

सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ॥१०५॥

चौपाला

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ । कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा । सुख सागर रघुबर सुखु पावा ॥
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई । श्रीमुख तीरथराज बड़ाई ॥
करि प्रनामु देखत बन बागा । कहत महातम अति अनुरागा ॥
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी । सुमिरत सकल सुमंगल देनी ॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा । पुजि जथाबिधि तीरथ देवा ॥
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए । करत दंडवत मुनि उर लाए ॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ । ब्रह्मानंद रासि जनु पाई ॥

दोहा

दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ॥१०६॥

चौपाला

कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे । पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ॥
कंद मूल फल अंकुर नीके । दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ॥
सीय लखन जन सहित सुहाए । अति रुचि राम मूल फल खाए ॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे । भरव्दाज मृदु बचन उचारे ॥
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू । आजु सुफल जप जोग बिरागू ॥
सफल सकल सुभ साधन साजू । राम तुम्हहि अवलोकत आजू ॥
लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी । तुम्हारें दरस आस सब पूजी ॥
अब करि कृपा देहु बर एहू । निज पद सरसिज सहज सनेहू ॥

दोहा

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ॥ १०७॥

चौपाला

सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने । भाव भगति आनंद अघाने ॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा । कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ॥
सो बड सो सब गुन गन गेहू । जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं । बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं ॥
यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी । बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ॥
भरद्वाज आश्रम सब आए । देखन दसरथ सुअन सुहाए ॥
राम प्रनाम कीन्ह सब काहू । मुदित भए लहि लोयन लाहू ॥
देहिं असीस परम सुखु पाई । फिरे सराहत सुंदरताई ॥

दोहा

राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।
चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ ॥१०८॥

चौपाला

राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं । नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं ॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं । सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं ॥
साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए । सुनि मन मुदित पचासक आए ॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा । सकल कहहि मगु दीख हमारा ॥
मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे । जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई । प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ॥
ग्राम निकट जब निकसहि जाई । देखहि दरसु नारि नर धाई ॥
होहि सनाथ जनम फलु पाई । फिरहि दुखित मनु संग पठाई ॥

दोहा

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ॥१०९॥

चौपाला

सुनत तीरवासी नर नारी । धाए निज निज काज बिसारी ॥
लखन राम सिय सुन्दरताई । देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई ॥
अति लालसा बसहिं मन माहीं । नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं ॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने । तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ॥
सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई । बनहि चले पितु आयसु पाई ॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं । रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं ॥
तेहि अवसर एक तापसु आवा । तेजपुंज लघुबयस सुहावा ॥
कवि अलखित गति बेषु बिरागी । मन क्रम बचन राम अनुरागी ॥

दोहा

सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ॥११०॥

चौपाला

राम सप्रेम पुलकि उर लावा । परम रंक जनु पारसु पावा ॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ । मिलत धरे तन कह सबु कोऊ ॥
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा । लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा । जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ॥
कीन्ह निषाद दंडवत तेही । मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ॥
पिअत नयन पुट रूपु पियूषा । मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे । जिन्ह पठए बन बालक ऐसे ॥
राम लखन सिय रूपु निहारी । होहिं सनेह बिकल नर नारी ॥

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Last Updated : February 26, 2011

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