दोहा
रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत ॥१४१॥
चौपाला
जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें । पलक बिलोचन गोलक जैसें ॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि । जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ॥
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी । खग मृग सुर तापस हितकारी ॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा । सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा ॥
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई । सचिव सहित रथ देखेसि आई ॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू । कहि न जाइ जस भयउ बिषादू ॥
राम राम सिय लखन पुकारी । परेउ धरनितल ब्याकुल भारी ॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं । जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं ॥
दोहा
नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि ॥१४२॥
चौपाला
धरि धीरज तब कहइ निषादू । अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू ॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता । धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी । रथ बैठारेउ बरबस आनी ॥
सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी । रघुबर बिरह पीर उर बाँकी ॥
चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे । बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे ॥
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें । राम बियोगि बिकल दुख तीछें ॥
जो कह रामु लखनु बैदेही । हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही ॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती । बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती ॥
दोहा
भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग ॥१४३॥
चौपाला
गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई । बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई ॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा । होहि छनहिं छन मगन बिषादा ॥
सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना । धिग जीवन रघुबीर बिहीना ॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू । जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू ॥
भए अजस अघ भाजन प्राना । कवन हेतु नहिं करत पयाना ॥
अहह मंद मनु अवसर चूका । अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका ॥
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई । मनहँ कृपन धन रासि गवाँई ॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई । चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥
दोहा
बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति ॥१४४॥
चौपाला
जिमि कुलीन तिय साधु सयानी । पतिदेवता करम मन बानी ॥
रहै करम बस परिहरि नाहू । सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहु ॥
लोचन सजल डीठि भइ थोरी । सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी ॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी । जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी ॥
बिबरन भयउ न जाइ निहारी । मारेसि मनहुँ पिता महतारी ॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी । जमपुर पंथ सोच जिमि पापी ॥
बचनु न आव हृदयँ पछिताई । अवध काह मैं देखब जाई ॥
राम रहित रथ देखिहि जोई । सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई ॥
दोहा
धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि ॥१४५॥
चौपाला
पुछिहहिं दीन दुखित सब माता । कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता ॥
पूछिहि जबहिं लखन महतारी । कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी ॥
राम जननि जब आइहि धाई । सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई ॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही । गे बनु राम लखनु बैदेही ॥
जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा ॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना । जिवनु जासु रघुनाथ अधीना ॥
देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई । आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई ॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू । तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू ॥
दोहा
ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु ॥
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु ॥१४६॥
चौपाला
एहि बिधि करत पंथ पछितावा । तमसा तीर तुरत रथु आवा ॥
बिदा किए करि बिनय निषादा । फिरे पायँ परि बिकल बिषादा ॥
पैठत नगर सचिव सकुचाई । जनु मारेसि गुर बाँभन गाई ॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा । साँझ समय तब अवसरु पावा ॥
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें । पैठ भवन रथु राखि दुआरें ॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए । भूप द्वार रथु देखन आए ॥
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे । गरहिं गात जिमि आतप ओरे ॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें । निघटत नीर मीनगन जैंसें ॥
दोहा
सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु ॥१४७॥
चौपाला
अति आरति सब पूँछहिं रानी । उतरु न आव बिकल भइ बानी ॥
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा । कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा ॥
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई । कौसल्या गृहँ गईं लवाई ॥
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा । अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा ॥
आसन सयन बिभूषन हीना । परेउ भूमितल निपट मलीना ॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती । सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती ॥
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती । जनु जरि पंख परेउ संपाती ॥
राम राम कह राम सनेही । पुनि कह राम लखन बैदेही ॥
दोहा
देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु ॥१४८॥
चौपाला
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई । बूड़त कछु अधार जनु पाई ॥
सहित सनेह निकट बैठारी । पूँछत राउ नयन भरि बारी ॥
राम कुसल कहु सखा सनेही । कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही ॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए । सुनत सचिव लोचन जल छाए ॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू । कहु सिय राम लखन संदेसू ॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ । सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ ॥
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू । सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू ॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना । को पापी बड़ मोहि समाना ॥
दोहा
सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ ॥१४९॥
चौपाला
पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ । प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ । रामु लखनु सिय नयन देखाऊ ॥
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी । महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी ॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा । साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा ॥
जनम मरन सब दुख भोगा । हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा ॥
काल करम बस हौहिं गोसाईं । बरबस राति दिवस की नाईं ॥
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं । दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी । छाड़िअ सोच सकल हितकारी ॥
दोहा
प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर ॥१५०॥
चौपाला
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई । सो जामिनि सिंगरौर गवाँई ॥
होत प्रात बट छीरु मगावा । जटा मुकुट निज सीस बनावा ॥
राम सखाँ तब नाव मगाई । प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई ॥
लखन बान धनु धरे बनाई । आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई ॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा । बोले मधुर बचन धरि धीरा ॥
तात प्रनामु तात सन कहेहु । बार बार पद पंकज गहेहू ॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी । तात करिअ जनि चिंता मोरी ॥
बन मग मंगल कुसल हमारें । कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें ॥
छंद
तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं ॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी ॥