काव्यरचना - कुळंबीण
महात्मा फुल्यांनी हे काव्य व्यक्तिमात्रास अनुलक्षुन लिहिले नसून फक्त उपमापर लिहून दिलगिरी व्यक्त केली.
॥अखंड१॥
कोंबडा आरव होता प्रात:काळी ॥ बसे जातेपाळी ॥ शुद्रजाया ॥१॥
गाण्याचा धिंगाणा भ्रतार उठतो ॥ बईलास नेतो ॥ चरावया ॥२॥
अर्णोदय होता करी शेणकूर ॥ वाही पाट्यावर ॥ केरासह ॥३॥
धूर्त आर्य तिला म्हणे कुळंबीण ॥ गुणाचे कमी न ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड२॥
सूर्य प्रकाशता भाकरीस थापी ॥ अवलास सोपी ॥ कालवण ॥१॥
स्वयंपाक होता पाटीमध्ये भरी ॥ घेई डोईवरी ॥ शेतीं जाई ॥२॥
सर्वांसंगे शेतीं काम करुं लागे ॥ खाई ना ती मागे ॥ घरी घास ॥३॥
भिकारी ब्राह्मण धान्य ती वाटती ॥ भूदेवा पोशिती ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड३॥
शुद्राधरी कैचें सडासंमार्जन ॥ दारी वृंदावन ॥ चावचेष्टा ॥१॥
वेणीफणी नाही सर्वदा घामट ॥ नखर्यांचा वीट ॥ तिला वाटे ॥२॥
जाडा भर्डा बांड एकची संसारी ॥ ताक कण्यावरी तृप्ती तिची ॥३॥
विध्वाभटणीस पाहून हंसती ॥ आर्या दोष देती ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड४॥
उरापोटावर पाण्यास वाहाती ॥ कचरा घालीती ॥ शेणामध्ये ॥१॥
कासोटा घालून शेण तुडवीती ॥ गोवर्या थापीती ॥ उन्हामध्ये ॥२॥
चोपाळी (झोपाळी) बसून भटणीच्या परी ॥ मौज न-च मारीं ॥ छायेमध्ये ॥३॥
अशा उद्योगीस म्हणे कुळंबीण ॥ भटा धनीपण ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड५॥
गोवर्याचे जाळें डोक्यावर ॥ तान्हे पाठीवर ॥ घेऊनीयां ॥१॥
गोवर्या विकीत फिरे गल्लोगल्लीं ॥ शुद्राची माऊली पोटासाठी ॥२॥
मूर्तीपूजा नाही भटजीच्या परी ॥ चाले छातीवरी ॥ माथीं नाग ॥३॥
भंड आर्य म्हणे तिला कुळंबीण ॥ मानवा दूषण ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड६॥
पाभरीचे मागे मोघीता तुरीस ॥ मदत पतीस पेरीतांना ॥१॥
वार्याचा सोसाटा भर पाऊसांत ॥ करी ती मदत ॥ पतीराया ॥२॥
दोरी धरीताना साह्यकारी होती ॥ रोपास लावीती ॥ खुणेवर ॥३॥
अशा उद्योगीस म्हणे कुळंबीण ॥ कुभांडी ब्राह्मण ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड७॥
क्षत्नीयांच्या भार्या पोट आंवळीती ॥ गवत काढीती ॥ शेतामध्ये ॥१॥
कामाच्या नादांत तिला कैचें भान ॥ बाळाचें पोषण ॥ खवळतां ॥२॥
चवळीच्या शेंगा सांपडतां खाई ॥ बाळाकडे जाई ॥ पाजाक्या ॥३॥
तृण विकूनीयां संसारात लावी ॥ भटणीस दावी ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड८॥
क्षत्नीयांच्या जाया शेतांत शिरती ॥ खुर्पूनी काढती ॥ सर्व तृण ॥१॥
खुर्पलेले तृण बाहेर काढिती ॥ बैलास टाकीती ॥ खाण्यासाठी ॥२॥
उरलेले तृण डोईवर घेतो ॥ बाजार दावीती ॥ पेंढीसाठी ॥३॥
भागलेल्या अशा स्त्नीस हो ब्राह्मण ॥ बोले कुळंबीण ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड९॥
शेत काढूं लागे खळ्यापाशी नेती ॥ खळे सारवीती ॥ लागलीच ॥१॥
उपनबट्या त्या बावडीवर ठेवी ॥ हातणी फिरवी ॥ गरगर ॥२॥
मोडणी करुन सर्वांस वेचीती ॥ कांडीती कुटीती ॥ कण्यांसाठी ॥३॥
अशा उद्योगीस म्हणे कुळंबीण ॥ चुकारु ब्राह्मण ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड१०॥
भटीण घालीना शेती सोनखत ॥ मुद डोचक्यांत ॥ नागासह ॥१॥
ढोरामागें शेण गोळा ती करीना ॥ गोवर्या लावीना ॥ मजोरीने ॥२॥
करीना शुद्रांचे दळणकांडण ॥ सडासंमार्जन ॥ पोटासाठी ॥३॥
भटीण शुद्राचे अंगण झाडीना ॥ घरी सारवीना ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड११॥
भटीण शुद्रीला उटणें लावीना ॥ नाहाऊं घालीना ॥ चोळूनीया ॥१॥
केस विंचरीना अंगास पुसीना ॥ साडीस धुवीना ॥ चोळ्यांसह ॥२॥
खरकटे ताट शुद्रीचें काढीना ॥ जोडा सांभाळीना ॥ घरामध्ये ॥३॥
भटीण शुद्राची पोरें संभाळीना ॥ मुके ती घेई ना ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड१२॥
भटीण शुद्रांची करीना मजुरी ॥ काढनी न करी ॥ शेतामध्यें ॥१॥
पेंढ्याचे ते ओझे खाळ्यांत नेईना ॥ कणसे मोडीना ॥ त्यांच्यासंगे ॥२॥
धान्य उपसीता पाट्या ती देईना ॥ बनग्या वारीना ॥ हतणीने ॥३॥
शुद्रांचीया खळीं मजुरी करीना ॥ नखरा सोडीना ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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॥अखंड१३॥
नांगराच्या मार्गे भटीण फिरेना ॥ काशा उपशा ना ॥ लागोपाठ ॥१॥
भटीण फोडीना शेती ढेकळांना ॥ खतास घालीना ॥ डोईवर ॥२॥
खुर्पून टाकीना बैलापुढें चारा ॥ नेई ना बाजारा ॥ विकावया ॥३॥
भटीण शेतात धंदा नच करी ॥ चाळेचाळे करी ॥ जोती म्हणे ॥४॥
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Last Updated : January 18, 2012
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