ग्रहलाघव - चन्द्रग्रहणाधिकार

ज्योतिषशास्त्रसे कालज्ञान , कालगती ज्ञात होती है , इसलिये इसे वेदका एक अंग माना गया है ।


तहां प्रथम ग्रहोंका चालन लिखते हैं -

गत कहिये व्यतीत या गम्य कहिये आगामि दिनोंसे ग्रहकी गतिको गुणा करके तब जो गुणनफल होय उसमें खरस कहिये ० का भाग देय तब जो लब्धि होय उसे अंशादि जाने उसको गतदिवस हों तो ग्रहमें घटा देय और गम्य दिन हो तो ग्रहमें युक्त करदेय तब इष्टकालीन ग्रह होता है । तिसीप्रकार गत अथवा गम्य घटिओंसे ग्रहकी गतिको गुणा करे तब जो गुणनफल होय उसमें ० का भाग देय तब जो लब्धि होय उसकी फलादि जाने उसको गत घटी हो तो ग्रहमें घटा देय और गम्यघटी हो तो ग्रहमें मुक्त कर देय तब इष्ट कालीन ग्रह होता है । इस लब्धिको चालन कहते हैं ॥१॥

इस रीतिमें इतना ध्यान रखना चाहिये कि , चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके विषे पञ्चांगमें पौर्णमासी और अमावस्या जितनी घटी हो उन घटिकाओसे मध्यरवि -चन्द्रोच्च और राहुका चालन करलेय तदनन्तर स्पष्टीकरण करे । तदतन्तर सूर्य और चन्द्रमासे तिथिकी घटी साधे और तिन साधी हुई घटियोंको पञ्चांगकी घटियोंमें युक्त करदेय , अथवा घटा देय , अर्थात् यदि १४ या २९ गत तिथि आवे तो वर्तमान अमावास्या या पौर्णमासीसे जितनी गतघटी साधे उनको पञ्चांगकी पर्व घटियोंमें युक्त कर देय और यदि १५ या ३० गततिथि आवे तो वर्तमान प्रतिपदासे गतघटी साधकर उनको पंचांगकी घटियोंमें घटा देय तब पर्वान्त काल होता है । इस प्रकार जो गतगम्य घटी आवे उनसे ग्रहोंका चालन देय तब पर्वान्त कालीन ग्रह होते हैं

उदाहरण —— संवत् १६७७ शाके १५४२ मार्गशीर्षशुक्ल पौर्णिमा बुधवार घटी ३८ पल ११ रोहिणी नक्षत्र घटी पल साध्ययोग घटी ० पल ३६ इस दिन चन्द्रग्रहणका पर्वकाल जाननेके निमित्त गणित करते हैं

‘‘ द्य्वब्धीन्द्रोनितेत्यादि ’’ रीतिके अनुसार अहर्गण हुआ ६३६ चक्र हुआ इस साधन करा हुआ प्रातः कालीन मध्यम सूर्य रा . ० अ . क . ५९ वि . और मध्यम चन्द्र रा . २५ अं . १९ क . ५७ वि . और चन्दोच्च ० रा . अं . वि . और राहु हुआ रा . २८ अं . २५ क . २७ वि . और तिथिकी घटी ३८११ पलसे चालित इष्ट कालीन मध्यम रवि रा . ० अ . ४६ क . ३६ वि . और चन्द्र रा . अं . ४३ क . वि . और चन्दोच्च ० रा . अं . ४१ क . ० वि . और राहु रा . २८ अं . २३ क . ३६ वि . ।

अब स्पष्टीकरण लिखते हैं -रविका मन्दकेन्द्र हुआ रा . १७ अं . १३ क . २४ विकला और मन्दफल ऋण ० अ . ३९ क . वि . । मन्द स्पष्ट रवि रा . ० अ . क . ३२ वि . । चरधन ११४ । अयनांश १८ अं . १८ क . चरधन संस्कृत स्पष्ट रवि रा . ० अ . क . २८ विकला । गतिफल धन कला विकला । स्पष्टगति ६१ क . ११ वि . त्रिफलसंस्कृतचन्द्र रा . अं . ५६ क . १८ विकला मन्दकेन्द्र रा . २९ अं . ४५ क . वि . । मन्द फल ऋृण अं . ० कला १२ विकला । स्पष्टचन्द्र रा . २९ अं . ३६ कला विकला गतिफलधन ३३ कला १५ विकला । स्पष्टगति ८२३ क . ८५ विकला । रविचन्द्रसे लाई हुई भोग्य पूर्णिमा घटी ३७ पल इनको पञ्चांगकी घटी ३८ घ . ११ प . में युक्त करा तब पर्वान्तकाल हुआ ० घ . ४८ प . । एष्यघटी घ . ३७ पल चालन करे हुए पर्वान्तकालीन तात्कालिक रवि रा . ० अ . १२ क . वि . । चन्द्र रा . ० अ . १२ क . विकला । राहु रा . २८ अं . २३ क . १८ वि . ॥१॥

अब ग्रहणसम्भव और चन्द्रशर साधन लिखते हैं -

पर्वान्तकालीन स्पष्ट रविमें राहुका घटावे जो शेष रहे वह व्यग्वर्क होता है । तदनन्तर व्यग्वर्कके भुज करके उसके अंश करे , वह अंश यदि चौदहअंशसे कम हो तो ग्रहणका सम्भव होता है ।

व्यग्वर्कके तीन भुजांशोंको ग्यारहसे गुणा करके जो गुणनफल होय उसमें सातका भाग देय तब जो लब्धि मिले वह अंगुलादि शर होता है वह व्यग्वर्क मेषादि होय तो उत्तर और तुलादि होष तो दक्षिण होता है ॥२॥

उदाहरण — स्पष्टरवि राशि ० अंश १२ क . विकलामें राहु राशि २८ अंश २३ कला १८ विकलाको घटाया तब ० राशि अंश ४८ विकला यह व्यग्वर्क (विराह्वर्क ) हुआ । इसके भुजांश अंश ४८ कला ४८ वि . हुए , यह १४ अंश की अपेक्षा कम है इस कारण ग्रहणका सम्भव है ।

भुजांश अंश ४८ कला विकलाको ११ से गुणा करा तब १९ अंश ५६ कला ४८ विकला हुए इसमें का भाग दिया तब अंगुलादि लब्धि हुई अंगुल ० प्रतिअंगुल यह चन्द्रशर हुआ व्यग्वर्क मेषादि है इस कारण

उत्तर है ॥२॥

अब सूर्यबिम्ब और चन्द्रबिम्ब तथा भूमाबिम्बसाधन लिखते हैं —

सूर्यकी स्पष्ट गतिको दो से गुणा करे तब जो गुणनफल होय उसमें ग्यारहका भाग देय तब जो अंगुलादि लब्धि होय वह सूर्यबिम्ब होता है । चन्द्रमाकी स्पष्टगति चौहत्तरहा भाग देय तब जो लब्धि होय वह अंगुलादि चन्द्रबिम्ब होता है और चन्द्रमाकी स्पष्टगतिमें सातसौसोलहकला घटाकर जो शेष रहे उसमें बाईसका भाग देय तब जो लब्धि होय उसमें बत्तीस युक्त कर देय तब जो अङ्क योग होय उसमें सूर्यकी स्पष्ट गतिका सप्तमांश घटा देय तब जो शेष रहे वह अंगुलादि भूभाबिम्ब होता है , इसको ही राहुबिम्ब कहते हैं ॥३॥

उदाहरण — सूर्यकी स्पष्टगति ६१ कला ११ विकलाको से गुणा करा तब १२२ क . २२ वि . हुई इसमें ११ का भाग दिया तब ११ अंगुल प्रति अंगुल यह सूर्यबिम्ब हुआ और चन्द्रमाकी गति ८२३ कला ० विकलामें ७४ का भाग दिया तब लब्धि हुई ११ अंगुल प्रतिअंगुल यह चन्द्रबिम्ब हुआ और चन्द्रमाकी स्पष्ट गति ८२३ कला ० विकलामें ७१६ घटाये तब शेष रहे कला ० विकला इसमें २२ का भाग दिया तब लब्धि हुई क . ५५ विकला इसमें ३२ कला युक्त करी तब ३६ कला ५४ विकला हुए , इसमें ३२ कला युक्त करी तब ३६ कला ५४ विकला हुए , इसमें सूर्यकी स्पष्ट गति ६१ कला ११ विकलाके सप्तमांश कला ४४ विकलाको घटाया तब शेष रहे २८ अंगुल ० प्रतिअंगुल यह भूभाबिम्ब अर्थात् राहुबिम्ब हुआ ॥३॥

अब मानैक्यखण्ड और ग्राससाधन लिखते हैं ——

सूर्यग्रहण होनेके समय चन्द्रमा सूर्यको आच्छादन करता है , इस कारण सूर्यग्रहणमें चन्द्रमाको छादक और सूर्यको छाद्य कहते हैं और चन्द्रग्रहण होनके समय भूमा कहिये पृथ्वीकी छाया चन्द्रमाको आच्छादन करती है , इस कारण चन्द्रग्रहणमें भूमाको छादक और चन्द्रमाको छाद्य कहते हैं । छाद्य और छादक इन दोनोंके बिम्बोंका योग करके दोका भाग देय तब जो लब्धि होय वह मानैक्यखण्ड होता है । उस मानैक्य खण्डमें शरको घटावे तब जो शेष रह वह ग्रासबिम्ब होता है । परन्तु यदि मानैक्य खण्डकी अपेक्षा शर अधिक होय तो ग्रहण नही होता है । यदि छाद्यके बिम्बसे ग्रासबिम्ब घटावे तब जो शेष बचे वह बिम्ब होता है । यदि छाद्यबिम्बकी अपेक्षा ग्रासबिम्ब अधिक होय तो ग्रासबिम्बमें से छाद्यबिम्बको देय तब जो शेष रहे सो खग्रास होता है ॥४॥

उदाहरण — चन्द्रग्रहणके विषे छादक भूमा २८ अंगुल ० प्रतिअंगुल , छाद्य चन्द्रबिम्ब ११ अंगुल प्रतिअंगुल , इन दोनों छाद्य छादकका योग करा तब ३९ अंगुल १७ प्रतिअंगुल हुआ इसमें का भाग दिया तब मानैक्यखण्ड हुआ १९ अंगुल ३८ प्रतिअंगुल इसमें शर अंगुल ० प्रतिअंगुलको घटाया तब शेष रहा १६ अंगुल ४८ प्रतिअंगुल वह ग्रास हुआ , इसमें चन्द्रबिम्ब ११ अंगुल प्रतिअंगुलको घटाया तब शेष रहा अंगुल ४१ प्रति अंगुल यह खग्रास बिम्ब हुआ ॥४॥

अब ग्रहण मध्यस्थिति तथा खग्रासमर्द स्थिति लिखते हैं —

मानैक्यखण्डमें शरयुक्त करके जो अङ्कयोग हो उसको देशसे गुणन करके जो गुणनफल होय उसको फिर ग्राससे गुणा करे तब जो गुणनफल होय उसका वर्गमूल निकालकर उसको पांचसे गुणा करके छः का भाग देय तब जो लब्धि होय उसमें चन्द्रतबिम्बके प्रमाणका भाग देय तब जो लब्धि होय वह घटिकादि मध्यस्थिति होती है और छाद्य तथा छादक इन दोनोके बिम्बके अन्तरका अर्ध और खग्रास ग्रहण करके पूर्वोक्त रीतिसे मध्यस्थिति लावे वह मर्दस्थिति कहलाती है ॥५॥

उदाहरण — मानैक्यखण्ड १९ अंगुल ३८ प्रतिअंगुलमें शर अंगुल ० प्रतिअंगुलको जोड़ा तब २२ अंगुल २८ प्रतिअंगुल हुआ , इसको ० से गुणा करा तब २२४ अंगुल ० प्रतिअंगुल हुआ . इस गुणनफलको ग्रास १६ अंगुल ४८ प्रतिअंगुलसे गुणा करा तब ३७७४ अंगुल २४ प्रतिअंगुल हुए , इसका वर्गमूल निकाला तब ६१ अंगुल २४ प्रतिअंगुल मिला , इसको से गुणा करा तब अंगुल ० प्रतिअंगुल हुआ , इसमें का भाग दिया तब ५१ अंगुल ० प्रतिअंगुल मिला , इसमें चन्द्रबिम्ब ११ अंगुल प्रतिअंगुलका भाग दिया तब लब्धि हुई घटी ३६ पल यह मध्यस्थिति हुई

चन्द्रबिम्ब ११ अंगुल प्रतिअंगुल और भूमाबिम्ब २८ अंगुल ० प्रतिअंगुल इन दोनोंका अन्तर करा तब १७ अंगुल प्रतिअंगुल , हुआ , इसमें का भाग दिया तब अंगुल ३२ प्रतिअंगुल लब्धि हुई इसमें शर अंगुल ० प्रतिअंगुलको युक्त करा तब ११ अंगुल २२ प्रतिअंगुल हुए , इसको ० से गुणा करा तब ११३ अंगुल ० प्रतिअंगुल हुए , इसको खग्रास अंगुल ४१ प्रति अंगुलसे गुणा करा तब ६४६ अंगुल ० प्रतिअंगुल हुआ इसका वर्गमूल निकाला तब २५ अंगुल २४ प्रतिअंगुल मिले इसको से गुणा करा तब १२७ अंगुल ० प्रतिअंगुल हुए इसमें का भाग दिया तब लब्धि हुई २१ अंगुल ० प्रतिअंगुल , इसमें चन्द्रबिम्ब ११ अंगुल प्रतिअंगुलका भाग दिया तब लब्धि हुई घटी ५४ पल यह मर्दस्थिति हुई ॥५॥

स्पर्श -स्थिति और मोक्षस्थिति तथा स्पर्शमर्द और मोक्षमर्द साधनेकी रीति लिखते हैं -

व्यर्ग्वकके भुजांशोंको दोसे गुणा करके जो गुणनफल होय उसको पलात्मक मानकर मध्यस्थितिमें युक्त करे और घटावे , परन्तु यदि ष्यग्वर्क राशि १६ अंशसे राशिपर्यन्त होय या ११ राशि १६ अंशसे १२ राशि पर्यन्त होय तो युक्त करनेसे मोक्षस्थिति होती है और घटानेसे शेष बचे सो स्पर्शस्थिति होती है और यदि व्यग्वर्क राशि १४ अंश पर्यन्त होय अथवा ० राशि से ० राशि १४ अंशपर्यन्त होय तो मध्यस्थितिमें युक्त करनेसे स्पर्शस्थिति और घटा देनेसे जो शेष रहे सो मोक्षस्थिति होती है तथा मर्दस्थितिके पलात्मक गुणनफलको पूर्ववत् युक्त करे और घटावे तो स्पर्शमर्द और मोक्षमर्द होता है ॥६॥

उदाहरण — घटिकादि मध्यस्थिति घ . ३६ प . को दो स्थानमें लिखा ३६॥ ३६ और व्यग्वर्क ० राशि अंश ४८ कला ४८ विकलाके भुजांश करे तब अंश ४८ कला ४८ विकला हुआ , इसको से गुणा करा तब अंश ३७ कला ३६ विकला हुए , इस गुणनफलके अंशोके समान पलों को एक स्थानकी मध्यस्थिति घ . ३६ प . में घटाया तब घ . ३३ प .

यह मोक्षस्थिति हुई क्योंकि व्यग्वर्क ० राशिसे लेकर १४ अंशके अन्तर्गत था । इस कारण ही दूसरे स्थानमें लिखी हुई मध्यम्थिति घ . ३६ प . में उपरोक्त गुणनफलके अंशोंकी तुल्य पलों को युक्त करा तब घ . ३९ प . यह स्पर्शस्थिति हुई ।

इसी प्रकार मर्दस्थितिको घ . ५४ प . मर्दस्थितिको दो स्थानमें ५४॥ ५४ । एक स्थानमें उपरोक्त गुणनफलके अंशों के समान पलों को घटाया तब घ . ५१ प . यह मोक्षमर्द हुआ और दूसरे स्थानमें लिखी हुई मर्दस्थिति ५४ में गुणनफलके अंशोंके समान पलों को युक्त करा तब घ . ५७ प . स्पर्शमर्द हुआ ॥६॥

अब मध्यग्रहणके स्पर्शकाल , मोक्षकाल और संमीलनकाल कहिये खग्रास स्पर्शकाल तथा उन्मीलनकाल कहिये खग्रासमोक्षकालके साधनेकी रीति -

पोर्णिमा तिथिका जो अन्त सो ग्रहणका मध्यकाल होता है । उस मध्यकालको दो स्थानमें लिखकर एक स्थानमें स्पर्श स्थितिको घटा देय तब जो शेष रहे सो स्पर्शकाल होता है और दूसरे स्थानमें लिखे हुए मध्यकालमें मोक्षस्थिति युक्त करे , तब जो अङ्कयोग हो वह मोक्षकाल होता है मोक्षकालमें स्पर्शकाल को घटा देय तब पर्वकाल होता है इस प्रकार तिथ्यन्तरूपग्रहण के मध्यकालमें स्पर्शमर्दको घटावे तब जो शेष रहे सो संमिलन काल होता है और मध्यकालमें मोक्षमर्दको युक्त करे तब जो अङ्कयोग हो सो उन्मीलनकाल होता है उन्मीलन कालमें संमीलन कालको घटा देय तब जो शेष रहे सो खग्रास पूर्वकाल होता है ॥७॥

उदाहरण —— तिथ्यन्त ० घटी ४८ पल है यह ग्रहणका मध्यकाल हुआ , इसे दो स्थानमें लिखा ० । ४८॥४०। ४८॥ एकस्थान में स्पर्शस्थिति घटी ३९ पलको घटाया तब ३६ घटी पल शेष रहा यह स्पर्शकाल हुआ , दूसरे स्थानमें लिखे हुए मध्यकालमें मोक्षस्थिति घटी ३३ पलको युक्त करा तब ४५ घटी २१ पल यह मोक्षकाल हुआ । मोक्षकाल ४५ घ . २१ प . में स्पर्शकाल ३६ घ . पलको घटाया तब शेष रहा घ . १२ प . यह पर्वकाल हुआ

तिसीप्रकार मध्यमकाल ० घटी ४८ पलमें स्पर्शमर्द घटाया तब शेष रहा ३८ घ . ५१ प . यह संमीलनकाल हुआ और मध्यकाल ० घ . ४८ पलमें मोक्षमर्द घ . ५१ प . को युक्त करा तब अङ्कयोग हुआ । ४२ घटी ३९ पल यह उन्मीलनकालं हुआ । उन्मीलनकाल ४२ घ . ३९ पलमें संमीलनकाल ३८ घ . ५१ प को घटाया तब शेष रहे घ . ४८ प . यह खग्रास पर्वकाल हुआ ॥७॥

अब इष्टकालीन ग्राससाधनकी रीति लिखते हैं ——

ग्रासको इष्टघटिकाओंसे गुणा करके जो गुणनफल होय उसमें यदि इष्टघटी स्पर्शकालीन हो तो स्पर्शस्थितिका और मोक्षकालीन हो तौ मोक्षस्थितिका भाग देय तब जो लब्धि होय उसको अंगुलादि जाने और उसमें अंगुल १५ प्रति अंगुल युक्त करदेय तब इष्टकालीन ग्रास होता है ॥८॥

उदाहरण — स्पर्शके अनन्तर कल्पित घटी से ग्रास १६ अंगुल ४८ प्रति अंगुलको गुणा करा तब ३३ अंगुल ३६ प्रति अंगुलमें हुआ , इष्टघटिका स्पर्शकालीन है इस कारण गुणनफल ३३ अंगुल ३६ प्रतिअंगुलमें स्पर्शस्थिति घटी ३९ पलका भाग दिया तब लब्धि हुई अंगुल १३ प्रतिअंगुल इसमें अंगुल १५ प्रति अंगुल युक्त करे तब अंगुल २८ प्रतिअंगुल यह यह इष्टकालीन ग्रास हुआ ॥८॥

अथ अयनवलनसाधनकी रीति लिखते है। ——

सूर्यग्रहणके विषे स्पष्ट रविके राशि मिलावै और चन्द्रग्रहणके विषे स्पष्टरविमें राशि घटावे तदनन्तर उस रविमें अथनांश मिला देय तदनन्तर तिससे प्रथम द्वितीय तृतीय इन खण्डोंको ग्रहण करके चरसाधनके समान साधन करे तब अंगुलादि वलन होता है । अयनांश युक्त रवि मेषादि होय तो उत्तर और तुलादि होय तो दक्षिण होता है इसको अयनवलन कहते हैं ।

उदाहरण —— स्पष्टरवि राशि ० अंश १२ कला विकलामें चन्द्रग्रहण होनेके कारण राशि घटाई तब शेष रहा राशि ० अंश १२ कला विकला इसमें अयनांश १८ अंश १८ कलाको युक्त करा तब राशि १८ अंश ० कला वि . हुआ , यह सायन रवि हुआ इससे भुज करे ० राशि १८ अंश २९ कला ५४ विक . इसमें शून्यराशि हैं इसकारण प्रथमखण्ड से ११ अंश २९ कला ५४ विक . गुणा करा तब ० अंश २९ क . १८ विकला हुए इसमें ० का भाग दिया तब लब्धि हुई अंश ० कला इसमें खंडको युक्त करा तब अंश ० कला यह अयनवलन हुआ , सायनरवि मेषादि है इस कारण अन्तर है

अब मध्यनतसाधन लिखते हैं —

चन्द्रग्रहणके मध्यकालमें दिनमानको घटाकर जो शेष रहे उसका और रात्र्यर्द्धका अन्तर करे तब मध्यनत होता है , यह यदि ग्रहण मध्यमकाल पूर्वरात्रिमें होय तो पूर्व और उत्तररात्रिमें होय तो पश्र्चिम होता है । इसी प्रकार सूर्यग्रहणके मध्यकाल और दिनार्द्धका अन्तर करे तब सूर्यग्रहणके विषे मध्यनत होता है इसकी दिशा पूर्वोक्तरीतिके अनुसार जाननी

उदाहरण — १५ घटी -चर घटी ५४ पल , दिनार्ध १३ घटी पल दिनमान २६ घटी १२ पल और १५ घटी --चर घटी ५४ पल रात्र्यर्द्ध १६ घटी ५४ पल रात्रिमान ३३ घटी ४८ पल । चन्द्रग्रहणके मध्यकाल ० घटी ४८ पलमें दिनमान २६ घटी १२ पलको घटाया तब शेष रहा १४ घटी ३६ पल यह रात्रिमें ग्रहणका मध्यनतकाल हुआ ग्रहण मध्यकाल पूर्व रात्रिमें है इस कारण पूर्व है

अब ग्रस्तोदित अथवा ग्रस्तास्त होनेपर मध्यनत साधन लिखते हैं -

चन्द्रग्रहणका स्पर्श सूर्यास्तसे पहिले जितनी घटी हो , उतनी घटीको दिनार्द्धमें घटावे तब जो शेष रहे सो पूर्व मध्यनत होता है और चन्द्रग्रहणका मोक्ष सूर्योदय अनन्तर जिनती घटीपर हो उतनी दिनार्द्धसें घटा देय , तब जो शेष रहे सो पश्र्चिम मध्यनत है

सूर्यग्रहणका स्पर्श सूर्योदयसे पहिले जिननी घटतीपर हो उतनी घटी रात्र्यर्द्धमें घटावे तब जो शेष रहे सो पूर्व मध्यनत होता है और सूर्यग्रहणका मोक्ष सूर्यास्त होनेके अनन्तर जिनती घटीपर हो , उतनी घटी रात्र्यर्द्धमें घटा देय तब जो शेष रहे सो पश्र्चिम मध्यनत होता है ॥१॥

अब अक्षवलन साधनकी रीति लिखते हैं ——

मध्यनतमें पांचका भाग देकर जो राश्यादि लब्धि होय उसमें अयनांश न मिलाकर तिससे ( , , ) इन तीन खण्डोंको मानकर वलन साधे और उसको पलभासे गुणा करके जो गुणनफल होय उसमें पांचका भाग देय तब जो लब्धि होय वह अंगुलादि अक्षवलन होता है , यदि मध्यनत पूर्व होय तो उत्तर और मध्यनत पश्र्चिम होय तो दक्षिण होता है । अयनवलन और अक्षवलन इन दोनोंकी एक दिशा हो तो दोनोंका योग कर लेय और दोनोंकी भिन्न दिशा होय तो अन्तर कर लेय , तदनन्तर उसमें छ्ः का भाग देय तब जो अंगुलादि लब्धि होय वह वलनांघ्रि होते हैं , उनकी दिशा अङ्क योग अथवा अन्तरकी जो दिशा हो सोई होती है ॥९॥१

उदाहरण —— मध्यनत पूर्व घटी १८ पलको से गुणा करा तब ० राशि २७ अंश ३६ कला ० विकला इससे वलन लाये तब अंश ३८ कला २४ विकला हुआ इसको पलभा अंगुल ४५ प्रति अंगुलसे गुणा करा तब ० अंश ५५ कला हुआ इसमें का भाग दिया तब अंगुलादि लब्धि हुई अंगुल ११ प्रतिअंगुल यह अक्षवलन हुआ , यह मध्यनतके पूर्व होनेके कारण उत्तर है । अयनवलन ० उत्तर है और अक्षवलन ११ उत्तर है , इन दोनोंकी एक दिशा होनेके कारण दोनोंका योग करा तब अंगुल ५२ प्रतिअंगुल हुए इसमें का भाग दिया तब लब्धि हुई अंगुल प्रतिअंगुल यह उत्तर वलनांघ्रि हुए ॥९॥१

अब ग्रासांघ्रि और खग्रासांघ्रि साधनकी रीति लिखते हैं ——

ग्रासको साठसे गुणा करके जो गुणनफल होय उसमें मानैक्यखण्डका भाग देय , तब जो लब्धि होय उसका वर्गमूल निकाले वह अंगुलादि ग्रासांघ्रि होते हैं । खग्रासमें अंगुल ० प्रतिअंगुल युक्त कर देय तब खग्रासांघ्रि होते हैं ऽऽ

उदाहरण — ग्रास १६ अंगुल ४८ प्रतिअंगुलको ० से गुणा करा तब ०० अंगुल हुए इसमें मानैक्यखण्ड १९ अंगुल ३८ प्रतिअंगुलका भाग दिया तब लब्धि हुई ५१ अंगुल ० प्रतिअंगुल इसका वर्गमूल निकाला तब अंगुल प्रतिअंगुल यह ग्रासांघ्रि हुए

खग्रास अंगुल ४१ प्रतिअंगुलमें अंगुल ० प्रतिअंगुलको युक्त करा तब अंगुल ११ प्रतिअंगुल यह खग्रासांघ्रि हुए ऽऽ

अब ग्रहणके मध्यकी दिशा जाननेकी रीति लिखते हैं -

छाद्य बिम्बके अर्द्धिपरिमिति सूत्रसे एक वर्तुल काढ़कर और उस वर्तुलके विषे दिशाओंकी रेखा काढ़कर उसका एकसे बत्तीस भागकरे तदनन्तर शरकी जो दिशा हो उस दिशाके उत्तर अथवा दक्षिण दिशाके बिन्दुसे यदि वलनांघ्रि उत्तर हों उलटे क्रमसे शरकी दिशा देय अर्थात् वाम हाथकी ओरसे दाहिने हाथकी और को देय और यदि वलनांघ्रि दक्षिण हो तो क्रमसे अर्थात् दक्षिण हस्तकी और वाम हस्तकी ओरको देय । उस दिशामें ही मध्यग्रहण होता है और उससे अन्य दिशामें खग्रासका अथवा शेष बिम्बका मध्य होता है ॥११॥

अब स्पर्शदिशा और मोक्षदिशा जाननेकी रीति लिखते हैं —

ग्रहणके मध्य चिह्नके पाससे ग्रासांघ्रि पूर्वकी और देय , तहां चन्द्रग्रहणका स्पर्श होता है और पश्चिमकी ओर देय तो तहां चन्द्रग्रहणका मोक्ष होता है । सूर्यग्रहणका इससे विपरीत है अर्थात् मध्यचिन्हके पाससे ग्रासांघ्रि पश्र्चिमकी ओर दिये हों तो तहां सूर्यग्रहणका स्पर्श होता है और पूर्वकी ओर दिये हों तो तहां सूर्यग्रहणका मोक्ष होता है । इसी प्रकार खग्रासके मध्य चिन्हके पाससे खग्रासांघ्रि पश्र्चिमकी ओर दिये हो तो तहां खग्रासस्पर्श होता है और पूर्वकी ओर दिये हो तो तहां खग्रासका मोक्ष होता है और सूर्यग्रहणके विषे विपरीत होता है अर्थात् खग्रासके चिन्हसे पूर्वकी ओर खग्रासांघ्रि दिये हों तो तहां खग्रास का स्पर्श होता है और पश्र्चिमकी ओर दिये हों तो तहां खग्रास का मोक्ष होता है ॥१२॥

उ .- जिस प्रकार इस लिखी हुई आकृतिके विषे चन्द्रबिम्ब ११ अंगुल प्रतिअंगुल यहां त्रिज्यासे वर्तुल काढ़कर उसमें दिशाओं के बिन्डु ३२ दिखाये हैं और शर अंगुल ० प्रति अं . और वलनांघ्रि अंगुल प्रतिअंगुल उत्तर है , अर्थात् उत्तरकी बिन्दु से विपरीत मितिसे अर्थात् पश्र्चिमकी ओर देकर तहां ग्रहणमध्य दिखलाया है और उसके अनन्तर खग्रास बिम्ब दिखलाया है , ग्रहणके मध्य बिन्दुसे पूर्वकी और पश्र्चिमकी ओर ग्रासांघ्रि अंगुल प्रतिअंगुल देकर तहां स्पर्श और मोक्षके चिन्ह दिखलाये हैं , तिसी प्रकार खग्रासके मध्य चिह्नसे पश्र्चिम या पूर्व दिशाकी ओर खग्रासांघ्रि अंगुल १९ प्रतिअंगुल देकर तहां सम्मीलन और उन्मीलन दिखाया है ॥१२॥

इति श्रीगणकवर्यपण्डितगणेशदैवज्ञकृतौ ग्रहलाघवकरणग्रन्थे पश्र्चिमोत्तरदेशीयमुरादाबादवास्तव्य -काशीस्थराजकीयसंस्कृत विद्यालयप्रधानाध्यपकपणिडतस्वामिराममिश्रशास्त्रि -सान्निध्याधिगतविद्य -भारद्वाज -गोत्रोत्पन्नगौडवंशावतंस -श्रियुतभोलानाथनूज -पण्डितरामस्वरूपशर्म्मणा कृतया सान्वयभाषाव्याख्यया सहितश्र्चन्द्रग्रहणाधिकारः समाप्तिमितः ॥५॥

N/A

References : N/A
Last Updated : October 24, 2010

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP