श्रीगणेशं नमस्कृत्य पार्वतीनन्दनं परम् ॥
श्रीगणेशकृतौ कुर्वे भाषां तत्त्वप्रकाशिकाम् ॥
इष्ट देवताको नमस्कार रूप मङ्गलाचरण ‘‘वसन्ततिलका ’’ छन्दमें लिखते हैं ।
अर्थ वेद के विषे भली प्रकार वर्णन करे हुए स्नान , दान , जप , होमादि सुन्दर कर्मो के द्वारा चित्तको निर्म्मल करके मुसुक्षु पुरुषोंके आर्थ ज्योतिः स्वरूप ब्रह्मका ज्ञान करानेवाली तथा थोडे अक्षर और गम्भीर अर्थयुक्त , रावण आदिको करके रचना किये हुए भाष्योंसे स्पष्ट करी हुई जो भगवत्के मुखसे उत्पन्न होनेवाली वेदवाणी है सो सर्वोत्कर्ष करके युक्त है । अथवा वेदोंको प्रमाण मानने वाले केशव नामक पिता के रचना किये हुए ग्रहकौतुक आदि ग्रन्थों में कहे हुए ग्रहसाधन आदि कर्मोंके द्वारा चित्तको निर्मल करके नक्षत्रआदिकोंके ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली तथा थोडे अक्षर और बहुत अर्थवाली और केशव के पुत्र तथा शिष्यादिकोंके बनाये हुए अनेक टीकाओंसे स्पष्ट
करी हुई केशव नामवाले पिताके मुखसे उत्पन्न वाणी सर्वोत्कर्षयुक्त है ॥ १ ॥
अब अपने करणग्रन्थ और रामावतार विष्णु भगवान की समता को द्योतन करते हुए ‘‘औपच्छ्न्दसिक ’’ छन्दमें मङलाचरण लिखते हैं ——
( हे शिष्य ! ग्रन्थके आरम्भ करनेके समय ) प्रत्यञ्चासहित शिवजीका धनुष तोड़नेवाले , मोतियों के हारसे शोभायमान , सुन्दर भुजावाले , मुक्ति आदि शुभफल देनेवाले , मनुष्यशरीर धारण करनेवाले , उन सर्वजनप्रसिद्ध विष्णुभगवान् के अवतार श्रीरामचन्द्रजी महाराजको स्मरण कर ॥ अथवा ( हे गणक !) जिसमें ज्या और चार इनको त्याग दिया है , जिसमें अपवर्त्तित अर्थात् संक्षिप्त गुणक और भाजक है , जिनमें चन्द्रमाका मन्दकेन्द्र और भुजरूपवृत्त भली प्रकार वर्णित है , मन्दफल शीघ्र फल आदिको देनेवाले अथवा चन्द्रग्रहणादिका ज्ञान देनेवाला जिसमें शङ्कुकी छाया ग्रहण करी है ऐसे नाना प्रकारके छन्दोंसे शोभायमान वक्ष्यमाण करणग्रन्थको स्मरण कर ॥ २ ॥
अब गर्गाचार्य भास्कराचार्यादिकोंके रचना करे हुए करणकुतूहलादि ग्रन्थों के होनेपर भी इस ग्रन्थकी रचना करने की आवश्यकता ‘‘वसन्ततिलका ’’ छन्दमें कहते हैं ——
यद्यपि वृद्ध धैर्यवान् गर्गऋषि और भास्कराचार्य आदिकोनें करणग्रन्थ रचना किये है (तथापि ) उन ग्रन्थोंमें ज्याचाप को त्यागकर ग्रह आदिकी सिद्धि नही होती है , इस कारण ( मैं गणेश दैवज्ञ ) ज्या चाप क्रिया रहित , अर्थको देनेवाले संक्षिप्त और स्पष्ट अर्थवाले ग्रहसम्बन्धी ग्रहण -उदय -अम्तादि क्रियाओंके साधनेवालेग्रन्थको करनेको उद्यत हुआ हूँ ॥ ३ ॥
अब ग्रहस्पष्ट आदि कार्य करनेके निमित्त अहर्गण जाननेकी रीति दो श्लोकोसे कहते है ——
वर्त्तमान शाकामें १४४२ एक सहस्र चारसौ बयालीस घटावे जो शेष रहे —— उसमें ११ ग्यारहको भाग देय जो लब्धि मिले वह चक्र कहाता है , भाग देनेसे जो शेष बचे उसको १२ बारहसे गुणा करे जो गुणनफल होय उसमें चैत्रादि मास अर्थात् चैत्रशुद्ध प्रतिपदासे लेकर इष्टकाल पर्यन्त जो गतमास हों उनको जोड देय (यह मध्यम मासगण कहलाता है ) इसको दो स्थानमें लिखे एक स्थानमें द्विगुणित चक्र और दश १० से युक्त कर देय तब जो अङ्क हो उसमें ३३ तैंतीसका भाग देय जो लब्धि मिले उसको ( अधिमास कहते हैं ) द्वितीय स्थानमें लिखे हुए मध्यममासगणमें युक्त कर देय तब जो अङ्क हो उनको ३७ से गुणा कर देय जो गुणनफल हो उसमें गत तिथि अर्थात् शुक्लप्रतिपदासे लेकर इष्ट दिन पर्यन्तकी गत तिथि युक्त करके चक्रमें छः ६ का भाग देय , जो शेष बचे उसको छोड देय जो लब्धि हो वह भी गत तिथियुक्त करे हुए अङ्कोंमें युक्त कर देय (यह मध्यम अह र्गण कहाताहै ) इसको दो स्थानमें लिखे एक स्थानमें ६४ चौसठका भाग देय जो लब्धि हो वह क्षय जो शेष रहै वह अहर्गण (दिनोंकी संख्या ) होता है , पूर्वोक्त चक्रको ५ पांचसे गुणा करके जो गुणनफल मिले उसमें अहर्गण युक्त करके ७ सातकभाग देय जो शेष बचे उससे चन्द्रवार आदि दिनोंका बोध करे अर्थात् यदि ० शून्य शेष होय तो सोमवार जाने , १ शेष होय तो भौमवार जाने , २ शेष होय तो बुधवार इत्यादि जाने ॥ ४ ॥ ५ ॥
विशेषरीति ‘ इस रीतिसे इष्टवार मिलता है , कदाचित इस प्रकार इष्टवार नही मिले तो अहर्गणमें १ एक युक्त कर देय या १ घटा देय तब अहर्गणोत्पन्न वार और इष्टवार बराबर मिलेगा । इस प्रकार अहर्गण स्पष्ट होता है ।
उदाहरण —— शाके १५३४ वैशाख शुक्ल १५ सोमवार घडी ५४ पल १० विशाखानक्षत्र घडी ३९ पल ५५ वरीयान् योग घडी . पल ९ उस दिन चंद्रग्रहणकापर्व कितना होगा यह बात जाननेके निमित्त अहर्गण सिद्ध करते है ——
यहां शाके १५३४ में १४४२ को घटाया तब ९२ बानवे शेष रहे इसमें ११ ग्यारहका भाग दिया तब ८ आठ लब्धि हुए इसका नाम चक्र है —— शेष बचे ४ चारको १२ बारहसे गुणा करा तो ४८ अडतालीस हुए इसमें चैत्रादिक गतमास १ जोडा तब ४९ उनचास हुए यह मध्यम मासगण कहाता है , इनको दो स्थानमें द्विगुणित चक्र १६ सोलह और १० युक्त करा तौ ७५ पिछ्हत्तर हुए इसमें ३३ तैंतीसका भाग दिया तब २ दो लब्धि हुए यह अधिक मास कहाता है , इसको द्वितीय स्थानके अङ्क ४९ उनचासमें युक्त किया तब ५१ इक्यावन हुए , यह मासगण कहाता है , इसको ३० तीससे गुणा किया तब १५३० एक सहस्त्र पांचसौ तीस हुए इसमें गततिथि १४ चौदहको युक्त किया आर छः का भाग दिये हुए चक्रकी लब्धि १ एकको किया तब १५४५ एकसहस्त्र पॉंचसौ पैंतालीस हुए (यह मध्यम अहर्गण कहलाता है ) इसको दो स्थानमें लिखा एक स्थानमें ६४ चौंसठका भाग दिया तब २४ चौवीस लब्धि मिले यह क्षय दिवस कहलाते है , इसको द्वितीय स्थानमें लिखे हुए मध्यम अहर्गणमें घटाया तब १५२१ एक सहस्र पॉंचसौ इक्वीस बचे यही अहर्गण है १५२१ इस अहर्गणमें पॉंचसे गुणा करे हुए चक्र ४० चालीसको युक्त कर दिया तब १५६१ एकहजार पॉंचसौ इकसठ हुए इसमें सात का भाग दिया तब शून्य ० शेष बचा इस कारण अहर्गणोत्पन्न वार सोम आया , यही इष्टवार है ।
गणिती भाग
१५३४ शक
१४४२
______
११ ) ९२ ( ८ चक्र
______
८८
४
______
१२
४८
______
१ गतमास
४९ मध्यममासगण
________________
४९ मध्यममासगण
चक्र ८ X २ = १६
१०
_______
३३ ) ७५
२ गत अधिकमास
४९
५१ मसगण
________________
१५२१ अहर्गण
---------------------------
३०
________
१५३०
१४ गततिथी
च० ८ / ६ = १ (/= भागाकार )
________
६४ ) १५६५ मध्यम अहर्गण
२४ क्षयदिवस
१५२१ अहर्गण
---------------------------
८ X ५ = ४०
७ ) १५६१
२२३ ----
० बाकी रहा
यहाँ शून्य शेष रहा है इस कारण सोमवार मिला इस प्रकार अहर्गणोतोपन्न वार और इष्टवार बराबर है ।
विशेष रीति —— जिस वर्षमें अधिक मास पड़ता हो उस वर्षमें अधिक मासके पूर्व अथवा अनन्तर अहर्गण साधना होय तो जो मास अधिक पड़ता होय उस मासके पूर्व अहर्गण साधनके समय पूर्व वर्षकी अपेक्षा अधिक मास अधिक आवे तो ग्रहण न करे अर्थात् अधिक मासमें एक १ घटा देय और जो मास अधिक पडता होय उसके अनन्तर अहर्गण साधनेके समय पूर्ववर्षकी अपेक्षा अधिक मास कम आवे तो उसमें एक १ और युक्त करके पीछे अहर्गण साधे ।
उदाहरण —— शके १५५५ चैत्रशुक्ल प्रतिपदा १ शुक्रवार इस वर्षमें वैशाख अधिक मास पडता है और चैत्रशुक्ल प्रतिपदाको अहर्गण साधते है ——
१५५५ शक
१४४२
_______
११ ) ११ ( १० चक्र
११०
३६ मध्यममासगण
च . १० X २ = २०
१०
_______
३३ ) ६६
३ ) शेष बचे
१२
___
३६ मध्यममासगण
२ अधिक मास -- यहाँ वैशाख माससे प्रथम अधिक मास लब्ध होता है परन्तु वह ग्रहण नहीं किया अर्थात् इस २ में एक घटाकर केवल १ ही ग्रहण किया ॥
३६ मध्यममासगण
१ अधिक मास
३७ मासगण
३० मासगण
१११०
० गततिथी
१० च० / ६ = १ (/= भागाकार )
___________
११११ मध्यम अहर्गण
६४ ) ११११ मध्य अहर्गण
१७ क्षयदिवस
१०९४ अभिष्ट वारलानेके निमित्त इसमें १०९४ में
१ और मिलाया तो १०९५ स्पष्ट अहर्गण हुआ ॥
उदाहरण द्वितीय
शाके १५३० इस वर्षमें भाद्रपद अधिक मास है तहां कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा शनिवारमें अहर्गण साधरे हैं ॥
१५३० शाके
१४४१
______
११ ) ८८ ( ८ च०
८८
० शेष
१२ ----
७ म०मा०ग०
च० ८ X २ = १६
१०
______
३३ ) ३३
१ अधिक मास
----- ०
७ ग०मा०
७ म०मा०ग०
२ अधिकमास
९ मा०ग०
X ३०
______
२७०
० ग० ति०
च० ८ / ६ = १ (/= भागाकार )
२७१ म०अहर्गण
यहाँ अधिकमास लब्ध नही होता है , तथापि ग्रहण किया तब अधिक मास हुए २ ॥
____________
६४ ) २७१ म० अहर्गण ४ क्षय दिवस
२६७ अहर्गण
अभिष्टवार लानेके निमित्त इसमें एक घटाया तब शनिवार मिला अत एव २६६ ही ठीक अहर्गण है ॥ यही वार्ता श्रीभास्कराचार्य्यने अपने सिद्धान्तशिरोमणिमें लिखी है ।
अब सूर्य और चन्द्रमाआदि ग्रहों के ध्रुवांङ्क लिखते हैं ——
ख कहिये शून्य ० विधु कहिये १ तान कहिये ४९ भव कहिये ग्यारह ११ यह सूर्यका रापादि ध्रुव होता है। ख कहिये . अनल कहिये ३ रसवार्द्धि कहिये ४६ ईश्वर कहिये ग्यारह ११ यह चन्द्रमा का ध्रुव होता है । खग कहिये ९ यम कहिये २ शरकृत कहिये ४५ यह चन्द्रमा के मन्दोच्च का ध्रुव होता है। कुलाचल कहिये ४५ यह चन्द्रमा के मन्दोच्च का ध्रुव होता है। कुलाचल कहिये ७ और दो २ खशर कहिये ५० यह राहु का ध्रुव होता है। भू कहिये १ तत्व कहिये २५ दन्त कहिये ३२ यह मङ्गल का ध्रुव होता है। अब्धि कहिये ४ गुण कहिये ३ उडु कहिये २७ यद बुध केन्द्रका ध्रुव है। ख कहिये . षड्यम कहिये २६ वस्विल कहिये १८ यह गुरुका ध्रुव है। कु कहिये १ शक्र
कहिये १४ यमल कहिये २ यह शुक्र केन्द्र का धु्रव होता है। और शैल कहिये सात ७ पञ्जभू कहिये १५ यमाब्धि कहिये ४२ यह शनिका ध्रुव होता है।
यह सब यंत्रके द्वारा स्पष्ट करके दिखाते है॥
नाम |
रवि |
चंद्र |
मन्दोच्च |
राहू |
मंगळ |
बुधके |
गुरू |
शुक्रके |
शनि |
राशि |
० |
० |
९ |
७ |
१ |
४ |
० |
१ |
७ |
अंश |
१ |
३ |
२ |
२ |
२५ |
३ |
२६ |
१४ |
१५ |
कला |
४९ |
४६ |
४५ |
५० |
३० |
२७ |
१८ |
२ |
४२ |
विकला |
११ |
११ |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
इसके अनन्तर क्षेपक कहते है ॥ ६ ॥ ७ ॥
रुद्र कहिये ११ गोब्ज कहिये १९ कुवेद कहिये ४१ यह सूर्यमें (क्षेपक होता है ) । शूलिनः कहिये ११ गोभुव कहिये १९ और ६ यह चद्रमामें क्षेपक होता है। अज्ञ कहिये ५ अत्यष्टयः कहिये १७ देब कहिये ३३ यह चद्रमाके मन्दोच्चमें क्षेपक होता है। ख कहिये . उडु कहिये २७ अष्टाग्नयः कहिये ३८ यह राहुमें क्षेपक होता है। और दिक् कहिये १० शैल कहिये ७ अष्ट कहिये ८ यह मङ्गलमें क्षेपक होता है। कम हैं भकला २७ कला जिनमें ऐसी जो नौ ९ राशि अर्थात् आठराशि ८ उन्तीस अंश २९ तैंतीस कला ३३ यह बुधकेन्द्रमें क्षेपक होता है। अद्रि कहिये ७ अश्विनौ कहिये २ भूप कहिये १६ यह गुरुमें क्षेपक होता है। अद्रि कहिये ७ नख कहिये २० और ९ यह केन्द्र शुक्रमें क्षेपक होता है। गो कहिये ९ तिथि कहिये १५ स्वर्ग कहिये २१ यह शनिमें राश्यादि क्षेपक होता है ॥ ८ ॥
यह सब यन्त्रके द्वारा स्पष्ट करके दिखाते हैं ॥
नाम |
रवि |
चंद्र |
चन्द्रोच्च |
राहू |
मंगळ |
बुधके |
गुरू |
शुक्रके |
शनि |
राशि |
११ |
११ |
५ |
० |
१० |
८ |
७ |
७ |
९ |
अंश |
१९ |
१९ |
१७ |
२७ |
७ |
२९ |
२ |
२० |
१५ |
कला |
४१ |
६ |
३३ |
३८ |
८ |
३३ |
१६ |
९ |
२१ |
विकला |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
अब अहर्गणसे मध्यमग्रह लानेकी रीति लिखते हैं ॥
आगे कही हुई रीतिके अनुसार अहर्गुणसे लाये हुए ग्रहमें चक्रसे गुणा किये हुए ध्रुवको घटा दे। जो शेष रहे उसमें अपना क्षेपक युक्त कर दे तब जो अङ्क हो वह सूर्यके उदयकालमें मध्यम ग्रह होता है ॥
अपने अपने नगरसे दक्षिणोत्तररेखा जितनी योजन होय उस योजन संख्यामें ६ छः का भाग दे जो लब्धि हो सो कला विकलादि होती है , वह अपना नगर दक्षिणोत्तर रेखासे पश्र्चिम हो तो धन और पूर्व हो तो ऋण जानना । इसको रेखान्तर संस्कार और प्रथम फल संस्कार कहते है ॥ ९ ॥
मध्यमग्रह लानेकी रीतिमें यह ध्यान रखना चाहिये कि , ग्यारह वर्षपर्यन्त चक्र एक ही रहता है और क्षेपकङ्कमें चक्रसे गुणा किया हुआ ध्रुवक घटावे जो शेष रहे उसको अहर्गणोत्पन्न ग्रहमें मिला दे इस शेषको ध्रुवोन क्षेपक कहते है । इस विषयका उदाहरण लिखते हैं ——
उदाहरण - सूर्यका ध्रुवांक . राशि १ अंश ४९ कला और ११ विकला हैं , इस ४ को चक्र ८ से गुणा करा तो . राशि १४ अंश ३३ कला और २८ विकला हुआ , इसको क्षेपककांक ११ राशि १९ अंश ४१ कला . विकला में घटाया तो ११ राशि ५ अंश ७ कला ३२ विकला यह सूर्यका ध्रुवोनक्षेपक हुआ , इस रीतिसे सम्पूर्ण ग्रहोंका ध्रुवोनक्षेपक जानना चाहिये , सोई हम स्पष्टरीतिसे कोष्ठकमें लिखते हैं ——
नाम |
रवि |
चंद्र |
चन्द्रोच्च |
राहू |
मंगळ |
बुधके |
गुरू |
शुक्रके |
शनि |
राशि |
११ |
१० |
४ |
४ |
७ |
० |
० |
७ |
९ |
अंश |
५ |
१८ |
२५ |
४ |
१२ |
१ |
१ |
२७ |
९ |
कला |
७ |
५६ |
३३ |
५८ |
५२ |
५७ |
५२ |
५३ |
४५ |
विकला |
३२ |
३२ |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
० |
अब मध्यम रवि जानने की रीति लिखते हैं ——
अहर्गण में खनगलव कहिये ७० सत्तरका भाग दे तब जो लब्धि हो सो अंशादि होती है। इस लब्धि को अंशात्मक माने हुए अहर्गण में घटावे , जो शेष रहे उसकी कलादिमें अहर्गणसे १५० का भाग देकर जो लब्धि हो उसको कलाआदिमें मानकर घटा दे तब जो शेष रहे सो अहर्गणोत्पन्न रवि बुध और शुक्र होते हैं , इसको ‘‘ दिनगणभवेत्यादि ’’ रीतिसे अथवा अपना अपना ध्रुवोनक्षेपक मिलाकर मध्यम रवि - मध्यम बुध और मध्यम शुक्र बनाले ॥ ऽऽ ॥
उदाहरण —— अहर्गण १५२१ में ७० का भाग दिया तब लब्धि = २१ हुए इनको अंश मानना चाहिये , शेष बचे ५१ इनको ६० से गुणा किया तब ३०६० हुए इसमें ७० का भाग दिया तब ४३ लब्धि हुए इनको कला मानना
चाहिये। शेष बचे ५५ इनको ६० से गुणा किया तब ३००० हुए इसमें ७० का भाग दिया तब ४२ लब्धि हुए इनको विकला माने इस प्रकार अहर्गणमें सत्तर का भाग देने से २१ अंश ४३ कला ४२ वि . लब्धि हुए इनको अंशात्मक अहर्गण ( १५२१ अंश ) में घटाया तब १४९९ अंश १६ कला १८ विकला बचे। इनकी कलादि १६ क . १८ वि . में ( अहर्गण १५२१ ) में १५० का भाग दिया तो लब्धि हुए १० इनको कलात्मक माने। शेष रहे २१ इनको ६० से गुणा करा तो १२६० हुए इनमें १५० का भाग दिया तो लब्धि हुए ८ इनको विकलात्मक माना। इस प्रकार लब्धि हुए १० कला ८ विकला इनको ऊपरके अंशोको छोड़कर कलादिमें घटाया तब शेष रहे १४९९ अंश ६ कला १० विकला। ( ऐसी रीति है किं अंशो में ३० का भाग देकर जो शेष बचे वह अंश होते हैं और जो लब्धि मिले वह राशि होती है , यदि बारहसे अधिक लब्धि आवे तो लब्धि में बारहका भाग देकर जो शेष रहे उसको राशि माने और लब्धि को त्याग देय ) इस कारण यहां १४९९ अंशोंमें ३० का भाग दिया तब शेष रहे २९ यह अंश हुए और लब्धि मिले ४९ यह बारह से अधिक है इस कारण बारह १२ का भाग दिया तो शेष रहा १ यह राशि हुई और लब्धि को त्याग दिया इस प्रकार करने से १ रा . २९ अं . ६ क . १० वि . यह अहग्रणोत्पन्न सूर्य हुआ। इसमें ऊपर कही हुई ‘‘ दिनगणभवेत्यादि ’’ रीतिके अनुसार ( ०।१।४९।११ ) + ८ = ० ॥ १४।३३।२८ चक्रसे गुणा करे हुए ध्रुवाङ्कको घटाया १ / ० । २९ / १४ । ६ / ३३ । १० / २८ तब शेष रहे १।१४।३३।४२ इसमें सूर्यके ११।१९।४१।० क्षेपकाङ्कको जोड़ दिया तो १।४।१३।४२ हुए यह मध्यम रवि हुआ। अथवा अहर्गणोत्पन्न रवि १ । २९ । ६ । १० में रवि का ध्रुवोनक्षेपक ११।५।७।३२ जोड दिया जाय तब १३।४।१३।४२ हुए यहां राशि बारहसे अधिक है इस कारण राशियों १३ में बारह का भाग देकर शेष एक को राशि माना तब वही १।४।१३।४२ मध्यम रवि होगया ।
अब मध्यम चन्द्र लाने की रीति लिखते हैं ——
अहर्गणको १४ से गुणा करे जो गुणनफल हो उसको अंशादि जाने उसमें उसीको १७ का भाग देकर जो अंशादि मिले सो घटा देव तब जो शेष रहे उसकी कलादिमें अहर्गण से १४० का भाग देकर जो लब्धि होय उसको कला आदि मान कर घटा देय तब अहर्गणोत्पन्न चन्द्र होता है तदनन्तर उक्त क्रिया करने से मध्यम चन्द्र होता है ॥ १० ॥
उदाहरण —— अहर्गण १५२१ को १४ से गुणा करा तो २१२९४ अंशात्मकहुए इनमें १७ का भाग देनेसे प्राप्त हुई लब्धि १२५२ अंश ३५ कला १७ विकलाको घटाया २१२९४ /१२५२ । ३५।१७ तब २००४१ अंश २४ कला ४३ विकला शेष रहा तब अहर्गण १५२१ में १४० भाग देकर लब्धि हुए कलादि १० कला ५१ विकला इनको ऊपरके शेषके कलादिमें घटाया २००४१ । २४ /१० । ४३ /५१ । तब शेष रहे २००४१।१३।५५ अंशमें तीसका भाग देकर पूर्वोक्त रीतिके अनुसार राशि करी तो ८ रा . १ अं . १३ क . ५२ विकला यह अहर्गणोत्पन्न चन्द्र हुआ , इसमें ऊपर ‘‘दिनगणभवेत्यादि ’’ कही हुई रीतिके अनुसार चन्द्रके ध्रुव ३।४६।११ को चक्र ८ से गुणा करा तब १।०९।२८ हुआ इसको अहर्गणोत्पन्न चन्द्र ८।१।१३।५५ में घटाया तब ७।१।४।२४ शेष रहे इसमें चन्द्रका क्षेपक ११।१९।६।० जोडा तब ६।२०।१०।२४ यह मध्यम चन्द्र हुआ । अहर्गणोत्पन्न चन्द्रमें चन्द्रमाका ध्रुवोनक्षेपक युक्त करनेसे भी यही मध्यम चन्द्र होता है ॥
अब चन्द्रोच्च साधनेकी रीति लिखते हैं ——
अहर्गणमें ९ का भाग देकर जो अंशादि लब्धि होय उस अहर्गणमें ७० का भाग देकर जो कलादि मिले सो जोड़ देय तब अहर्गणोत्पन्न चन्द्रोच्च होता है तब उपरोक्त रीतिके अनुसार चन्द्रोच्च साधे ॥ ऽऽ ॥
उदाहरण —— अहर्गण १५२१ में नौ का भाग दिया तब लब्धि हुए अंशादि १६९ अंश ० कला ० विकला इसमें अहर्गण १५२१ में ७० का भाग देकर लब्धि हुए कलादि २१ कला ४३ विकलाको जोड दिया तब १६९ अं . २१क . ४३ वि . हुए । इसमेंके अंशोंमें तीस ३० का भाग देकर पूर्वोक्त रीतिके अनुसार राशि बनाई तब ५ राशि १९ अंश २१ कला ४३ विकला यह अहर्गणोत्पन्न चन्द्रोच्च हुआ तब उपरोक्त ‘‘दिनगणभवेत्यादि ’’ रीतिके अनुसार चन्द्रोच्चके ध्रुव ९।२।४५।० को चक्र ८ से गुणा करा तब ०।२२।०।० हुआ इसको अहर्गणोत्पन्न चन्द्रोच्च ५।१९।२१।४३ में घटाया तब ४।२७।२१।४३ हुआ इसमें क्षेपकांक ५।१७।२३।० जोडे तब १०।१४।४३।५४ यह चंद्रोच्च हुआ ॥
अब मध्यम राहुके लानेकी रीति लिखते हैं ——
अहर्गणको दो स्थानमें लिखे , एक स्थानमें उन्नीसका भाग देय जो लब्धि होय उसको अंशादि माने । फिर दूसरे स्थानमें लिखे हुए अहर्गणमें ४५ पैंतालीसका भाग देय जो लब्धि हो उसको कलादि माने , इन दोनों लब्धियोंको जोड लेय तब जो अङ्क हों उनको चक्र कहिये १२ बारह राशिमें घटावे जो शेष रहे उसको अहर्गणोत्पन्न राहु जाने । तदनन्तर उपरोक्त रीतिके अनुसार राहु साधे ॥११॥
उदाहरण ——अहर्गणको १५२१।१५२१ । दो स्थानमें लिखा एक स्थानमें १९ का भाग दिया तौ ८० अं . ३क . ९वि . यह अशादि लब्धि हुई फिर दूसरे स्थानमें लिखे हुए अहर्गणमें ४५ का भाग दिया तब ३३ कला ४८ विकला यह कलादि लब्धि हुई । इन दोनों लब्धियों २ /१० । ८० /००। ३ ३ /३ । ९ /४८ को जोडा तब ८० अं . ३६ क . ५७ वि . हुआ इसको १२ राशिमें घटाया तब शेष रहे ९।९।२३।३ यही अहर्गणोत्पन्न राहु हुआ । इसमें पूर्वोक्त रीतिसे राहुके ध्रुव ७।२।५०।० को चक्र ८ से गुणा करा तब ८ । २२ । ४० । ० हुए इसको घटाया तब ०।१६।४३। ३ शेष रहे इसमें राहुके क्षेपकांक ०।२७।३८।० को जोडा तब १।१४।२१।३ यह राहु हुआ । अहर्गणोत्पन्न राहुमें राहुका
ध्रुवोन क्षेपक मिलानेसे भी यह राहु आता है ।
अब मध्यम मङ्गल लानेकी रीति लिखते हैं ——
अहर्गणको दिक् कहिये दशसे गुणा करके दो स्थानमें लिखे एक स्थानमें उन्नीसका भाग देय जो लब्धि मिले उसको अंशादि माने , फिर दूसरे स्थानके गुणा करे हुए अहर्गणमें ७३ का भाग देय जो लब्धि मिले उसको कला आदि जाने । इस प्रकार अंशादि और कला दोनों लब्धियोंका जो अन्तर होय उसको अहर्गणोत्पन्न मङ्गल जाने फिर पूर्वोक्त रीतिके अनुसार मध्यम मङ्गल लावे ॥ ऽऽ ॥
उदाहरण - अहर्गण १५२१ को १० से गुणा करा तब १५२१० हुए इनको दो स्थानमें लिखा १५२१० । १५२१० । फिर एक स्थानमें १९ का भाग दिया तब अंशादि लब्धि हुई ८०० अं . क . ३४ वि . फिर दूसरे स्थानमें ७३ का भाग दिया तब कलादि लब्धि हुई २०८क . २१वि . इन दोनों लब्धियोंका अन्तर किया ८०० । ३१ /२०८। ३४ /२१। तब ७९७ अं . ३ क . १३ वि . शेष रहे यहां ३० का भाग देकर पूर्वोक्त रीतिसे अंशोकी राशि करी तब २ रा . १७ अं . ३कला१३वि . यह अहगणोत्पन्न मङ्गल हुआ । तब ऊपर कही हुई रीति ‘‘दिनगणभवेत्यादि ’’ के अनुसार मङ्गलके घ्रुव १।२५।३२ को चक्र ८ से गुणा करा तब २।२४।१६। हुए इसको अहर्गणोत्पन्न मङ्गल २।१७।३।१३ में घटाया तब ११ । २२ । ४७ १३ शेष रहे इनमें मङ्गलके क्षेपकाङ्क जोड़ दिये ११ /१०। २२ /२२ /७। ४७ /४७ /८ । १३ /० । तब ९।२९।५५।१३ यह मध्यम मङ्गल हुआ ॥
अब बुधकेन्द्रके लानेकी रीति लिखते हैं --
अहर्गणको ३ तीनसे गुणा करके जो गुणन फल हो उसको अंशात्मक माने , उसमें २८ का भाग दिया तब जो लब्धि मिले उसको अंशादि माने . वह उस पूर्वोक्त गुणन फलमें युक्त कर देय और उसमें (अहर्गणमें ) ३८ का भाग देकर जो कलादि लब्धि मिले उसको घटा देय जो शेष रहे सो अहर्गणोत्पन्न बुधकेन्द्र होता है तदनन्तर पूर्वोक्त अनुसार बुधकेन्द्र साधे ॥१२॥
उदाहरण --अहर्गण १५२१ को ३ से गुणा किया तब ४५६३ अंशात्मक हुए इनमें २८ का भाग दिया तब अंशादिक लब्धि हुई १६२।५७।५१ इसमें तीनसे गुणा करे अंशात्मकअहर्गण ४५६३ जोड़ दिया तब ४७२५।५७।५१ हुए इनमें अहर्गण १५२१ में ३८ का भाग देकर जो कलादि लब्धि हुई ४० क .१ वि . इसको कलाओंमें घटाया ४७२५। ५७ /४०। ५१ /१ । तब ४७२५।१७।५० यहा ३० का भाग देकर पूर्वोक्त रीतिसे अंशोकी राशि करी तब १ रा . १५ अं . १७ क . ५० वि . यह अहर्गणोत्पन्नबुधकेन्द्र हुआ इसमें पूर्वोक्त ‘‘दिनगणेत्यादि ’’ रीतिके अनुसार बुधकेन्द्रके ध्रुव ४।३।२७।० को चक्र ८ से गुणा किया तब ८।८।२७।३६ हुआ , इसको घटाया १ /८। १५ /२७।१७ /३६।५० /१ । तब ४।१७।४१।५० हुआ , इसमें बुधकेन्द्रके क्षेपक ८।२९।३३। को जोड़ा तब १।१७।१४।५० यह बुधकेन्द्र हुआ ।
अब मध्यम गुरुके साधन करनेकी रीति लिखते हैं --
उदाहरण -- अहर्गण १५२१ में बारह १२ का भाग दिया तब अंशादि लब्ध हुए १२६ अं . ४५क . ० वि . । अहर्गण १५२१ में ७० भाग दिया तब कलादि लब्वि २१ क . ४३वि . हुए इनको अंशादि लब्धिमें घटाया तब १२६ अं . २३क . १७ वि . यह शेष रहे यही अहर्गणोत्पन्न गुरु हुआ । तब पूर्वोक्त रीतिके अनुसार अंशोमें ३० का भाग देकर राशि बनाई तब ४ रा . ६ अं . २३ क . १७ वि . यह अहर्गणोत्पन्न गुरु हुआ । तब गुरुके ध्रुव ०।२६।१८।० को चक्र ८ से गुणा करनेसे ७।०।२४ हुए इसको अहर्गणोत्पन्न गुरुमें घटाया तब ९ । ५ । ५९ । १७ शेष रहा इसे गुरुका क्षेपक ७।२।१६।० जोड़ा तब ।४।८।१५।१७ यह मध्यम गुरु हुआ ॥
अब शुक्रकेन्द्र लानेकी रीति लिखते हैं -
अहर्गणको तीनसे गुणा करके जो गुणनफल मिले उसको दो स्थानमें लिखकर एक स्थानमें पांचका भाग दे तब जो लब्धि हो उसको अंशादि जाने । फिर दूसरे स्थानमें लिखे हुए गुणित अहर्गणमें एक सौ इक्यासी का भाग दे जो लब्धि मिले उसको अंशादि माने , तदनन्तर दोनों लब्धियों का योग करे तब अहर्गणोत्पन्न शुक्र केन्द्र होता है । तदनन्तर उपरोक्त रीतिके अनुसार शुक्र केन्द्र लावे ॥१३॥
उदाहरण —— अहर्गण १५२१ को ३ तीनसे गुणा करा तौ ४५६३ हुए इनको दो स्थान में लिखा ४५६३।४५६३ फिर एक स्थान में ५ पांच का भाग दिया तब लब्धि हुए अंशादि ९१२ अंश ३६ क . वि . हुए ॥ फिर दूसरे स्थान में १८१ का भाग दिया तब अंशादि लब्धि मिले २५ अं . १२ क . ३५ वि . इन दोनों लब्धियों ९१२ /२५ । २६ /१२ । ३५ को जोड़ा तब ९३७।४८।३५ हुए । यहां अंशोमें तीस ३० का भाग देकर राशि बनाई तब ७ राशि ७ अंश ४८ कला ३५ विकला यह अहर्गणोत्पन्न केन्द्र शुक्र हुए तदनन्तर पूर्वोक्त ‘‘दिनगणभवेत्यादि ’’ रीतिके अनुसार केन्द्र शुक्र के ध्रव १।१४।२।० को चक्र ८ से गुणा करा तब ११।२२।१६।० हुए इसको अहर्गणोत्पन्न केन्द्र शुक्र ७।७।४८।३५ में घटाया तब ७।१५।३२।३५ शेष रहे इसमें शुक्र केन्द्रके क्षेपक ७।२०।९।० को जोड़ा तब ३।५।४१।३५ यक केन्द्र शुक्र हुआ । अहर्गणोत्पन्न केन्द्रशुक्रमें केन्द्रशुक्रका ध्रुवोनक्षेपक मिलानेसे भी यही केन्द्र शुक्र होता है ॥
अब मध्यम शनि लानेकी रीति लिखते हैं
अहर्गणमें ३० का भाग देकर जो लब्धि मिले उसको अंशादि जाने उस (अहर्गण ) में फिर १५६ एक सौ छप्पनका भाग देकर जो कलादि लब्धि मिले असको जोड दे तब अहर्गणोत्पन्न शनि होता है उससे पूर्वोक्त रीति से मध्यम शनि लावे ॥ऽऽ॥
उदाहरण --अहर्गण १५२१ में ३० का भाग दिया तो लब्धि अंशादि ५० अं .४२ क . हुए तदनन्तर अहर्गण १५२१ में १५६ का भाग दिया तब लब्धि हुए ९ क . ४५वि . इन दोनों लब्धियोंको जोडा तो ५०।५१।४५ हुए यहां अंशों ५० में ३० तीस का भाग देकर राशि बनाई तब १।२०।५१।४५ यह अहर्गणोत्पन्न शनि हुआ । तदनन्तर पूर्व कही हुई ‘‘दिनगणेत्यादि ’’ रीति के अनुसार शनिके ध्रुव ७।१५।४२।० को चक्र ८ से गुणा करा तब ०।५।३६।० इसको अहर्गणोत्पन्न शनि १।२०।५१।४५ में घटाया तब १ । १४ । १५ । ४५ रहे इनमें शनि का क्षेपक ९।१५।२१।० जोडा तब ११।०।३६।४५ यह मध्यम शनि हुआ , अहर्गणोत्पन्न शनिमें शनिका ध्रुवोनक्षेपक युक्त करनेसे भी मध्यम शनि बनता है ।
इस प्रकार मध्यम ग्रहोंको साधकर डेढ़ श्लोक में मध्यम ग्रहोंकी कलादि दिनगति लिखते हैं --
गो कहिये नौ ९ अज्ञ कहिये ५ पांच अर्थात् ५९ कला और गज कहिये ८ आठ विकला यह सूर्यकी मध्यम गति है , अभ्र कहये शून्य ० गो कहिये नौ ९ अश्व कहिये ७ अर्थात् ७९० कला और पांच ५ अग्नि कहिये ३ तीन अर्थात् ३५ विकला चन्द्रमाकी मध्यम गति है और षट् कहिये ६ छः कला तथा इला कहिये १ एक , अब्धि कहिये ४ चार अर्थात् ४१ विकला यह चन्द्रोच्चकी मध्यम गति है । तीन कला कु कहिये १ एक शशि कहिये १ एक अर्थात् ११ विकला यह राहुकी मध्यम गति है । इन्दु कहिये १ एक राम कहिये ३ तीन अर्थात् ३१ कला और तर्क कहिये ६ छः अश्विन कहिये २ दो अर्थात् २६ विकला यह मंगलकी मध्यमगति है। अरि कहिये ६ छः अहि कहिये ८ आठ क्षमा कहिये १ एक अर्थात् १८६ कला और जिन कहिये २४ चौबीस विकला यह बुधकेन्द्रकी मध्यम गति है । शर कहिये ५ पांच कला और ख कहिये ० शून्य विकला गुरुकी मध्यम गति है । अदि कहिये ७ सात गुण कहिये ३ तीन अर्थात् ३७ कला शुक्रकेन्द्रकी मध्यम गति है । दो कला शनिकी मध्यम गति है ॥१४॥१५॥ यह सब नीचे कोठामें स्पष्ट रीतिसे लिखते हैं --
नाम |
रवि |
चंद्र |
चन्द्रोच्च |
राहु |
मंगळ |
बुधके० |
गुरू |
शुक्रके० |
श० |
कला |
९५ |
७९० |
६ |
३ |
३१ |
१८६ |
५ |
३७ |
२ |
विकला |
८ |
३५ |
४१ |
११ |
२६ |
२४ |
० |
० |
० |
कौन ग्रह किस ग्रन्थके अनुसार लानेसे वेधसे मिलता है यह विषय लिखते है --
सूर्य सूर्यसिद्धान्तानुसार वेधसे मिलता है । चन्द्रोच्च सूर्यसिद्धान्तानुसार वेधसे मिलता है । और नौ ९ कलाहीन चन्द्रमा भी सूर्यसिद्धान्तके अनुसार वेधसे मिलता है । गुरुमङ्गल और राहु यह आर्यसिद्धान्तके अनुसार वेधसे मिलते हैं । बुधकेन्द्र ब्रह्मसिद्धान्तके अनुसार वेधसे मिलता है और ५ पांच अंशाधिक शनि आर्यसिद्धान्तके अनुसार वेधसे मिलता है । शुक्रकेन्द्र तब वेधसे मिलता है जब ब्रह्मसिद्धान्त और आर्यसिद्धान्त दोनोंकी रीतिके अनुसार साधकर उन दोनोंका योग करके आधा कर लेय इस प्रकार पूर्वोक्त ग्रन्थोंके अनुसार साधे हुये यह ग्रह वेधसे मिल जाते है । इस ग्रंथमें पूर्वोक्त रीतियोंके अनुसार ग्रह साधकर ग्रहणादि पर्व , व्रतादि धर्न्मकार्य , नीतिकार्य और विवाहादि मङ्गकार्य आदिको कहे ॥१६॥
इति श्रीगणकवर्यपण्डितगणेशदैवज्ञकृतौ ग्रहलाघवाख्यकरण ग्रन्थे पश्र्चिमोत्तरदेशीयमुरादाबादपत्तनवास्तव्यगौडवंशावतंसश्रीयुतभेलानाथतनुजपंडितरामत्वरूपशर्म्मणा
विरचितया विस्तृतोदाहरणसनाथीकृतान्वयसमन्वितया भाषाव्याख्यया सहितो मध्यमग्रहसाधनाधिकारः समाप्तिमितः ॥१॥