एकादशस्कन्धपरिछेदः - षण्णवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


त्वं हि ब्रह्मैव साक्षात् परमुरुमहिमन्नक्षराणामकार -

स्तारो मन्त्रेषु राज्ञां मनुरसि मुनिषु त्वं भृनुर्नारदोऽपि ।

प्रह्लादो दानवानां पशुषु च सुरभिः पक्षिणां वैनतेयो

नागानामस्यन्तः सुरसरिदपि च स्त्रोतसां विश्र्वमूर्ते ॥१॥

ब्रह्मण्यानां बलिसत्वं क्रतुषु च जपयज्ञोऽसि वीरेषु पार्थो

भक्तानामुद्धवस्त्वं बलमसि बलिनां धाम तेजस्विनां त्वम् ।

नास्त्यन्तस्त्वद्विभूतेर्विकसदतिशयं वस्तु सर्वं त्वमेव

त्वं जीवस्त्वं प्रधानं यदिह भवदृते तन्न किंचित् प्रपञ्चे ॥२॥

धर्मं वर्णाश्रमाणां श्रुतिपथविहितं त्वत्परत्वेन भक्त्या

कुर्वन्तोऽन्तर्विरागे विकसति शनकैः संत्यजन्तो लभन्ते ।

सत्तास्फूर्तिप्रियत्वात्मकमखिलपदार्थेषु भिन्नेष्वभिन्नं

निर्मूलं विश्र्वमूलं परममहमिति त्वद्विबोधं विशुद्धम् ॥३॥

ज्ञानं कर्मापि भक्तिस्त्रितयमिह भवत्प्रापकं तत्र

तावन्निर्विण्णानामशेषे विषय इह भवेञ्ज्ञानयोगेऽधिकारः ।

सक्तानां कर्मयोगस्त्वयि हि विनिहितो ये तु नात्यन्तसक्ता

नाप्यत्यन्तं विरक्तास्त्वयि च धृतरसा भक्तियोगे ह्यमीषाम् ॥४॥

ज्ञानं त्वद्भक्ततां वा लघु सकृतवशान्मर्त्यलोके लभन्ते

तस्मात् तत्रैव जन्म स्पृहयति भगवन् नाकगो नारको वा ।

आविष्टं मां तु दैवाद्भवजलनिधिपोतायिते मर्त्यदेहे

त्वं कृत्वा कर्णधारं गुरुमनुगुणवातायितस्तारयेथाः ॥५॥

अव्यक्तं मार्गयन्तः श्रुतिभिरपि नयैः केवलज्ञानलुब्धाः

क्लिश्यन्तेऽतीव सिद्धि बहुतरजनुषामन्त एवाप्रुवन्ति ।

दूरस्थः कर्मयोगोऽपि च परमफले नन्वयं भक्तियोग -

स्त्वामूलादेव हृद्यस्त्वरितमयि भवत्प्रापको वर्धतां मे ॥६॥

ज्ञानायैवातियत्नं मुनिरपवदते ब्रह्मतत्त्वं तु श़ृण्वन्

गाढं त्वत्पादभक्ति शरणमयति यस्तस्य मुक्तिः कराग्रे ।

त्वद्ध्यानेऽपीह तुल्या पुनरसुकरता चित्तचाञ्चल्यहेतो -

रभ्यासादाशु शक्यं तदपि वशयितुं त्वत्कृपाचारुताभ्याम् ॥७॥

निर्विण्णः कर्ममार्गे खलु विषमतमे त्वत्कथादौ च गाढं

जातश्रद्धोऽपि कामानयि भुवनपते नैव शक्रोमि हातुम् ।

तद्भूयो निश्र्चयेन त्वयि निहितमना दोषबुद्ध्य़ा भजंस्तान्

पुष्णीयां भक्तिमेव त्वयि हृदयगते मङ्क्षु नङ्क्ष्यन्ति सङ्गा ॥८॥

कश्र्चित् क्लेशार्जितार्थक्षयविमलमतिर्नुद्यमानो जनौघैः

प्रागेवं प्राह विप्रो न खलु मम जनाः कालकर्मग्रहा वा ।

चेतो मे दुःखहेतुस्तदिह गुणगणं भावयत्

सर्वकारीत्युक्वा शान्तो गतस्त्वां मम च कुरु विभो तादृशीं चित्तशान्तिम् ॥९॥

ऐलः प्रागुर्वशीं प्रत्यतिविवशमनाः सेवमानश्र्चिरं तां

गाढं निर्विद्य भूयो युवतिसुखमिदं क्षुद्रमेवेति गायन् ।

त्वद्भक्तिं प्राप्य पूर्णः सुखतरमचरत् तद्वदुद्धूय सङ्गं

भक्तोत्तंसं क्रिया मां पवनपुरपते हन्त मे रुन्धि रोगान् ॥१०॥

॥ इति भगवद्विभूतिवर्णनादि षण्णवतितमदशकं समाप्तम् ॥

महान् महिमशाली विश्र्वमूर्ते ! आप ही साक्षात् परब्रह्म हैं । आप ही अक्षरोंमें आकार , मन्त्रोंमें प्रणव और राजाओंमे आदिराज मनु हैं । ब्रह्मर्षियोंमें भृगु , देवर्षियोंमें नारद , दानवोंमें प्रह्लाद , पशुओंमें सुरभि , पक्षियोंमें गरुड़ , नागोंमें अनन्त और नदियोंमें गङ्गा भी आप ही हैं ॥१॥

आप ब्राह्मण -भक्तोंमें बलि हैं । यज्ञोंमें जप -यज्ञ , वीरोंमें अर्जुन और भक्तोंमे उद्धवके रूपमें आप ही वर्तमान हैं । आप ही बलवानोंके बल तथा तेजस्वियोंके तेज हैं । कहॉंतक कहूँ , आपकी विभूतिका अन्त नहीं है । अतः जितनी अतिशय विकासयुक्त वस्तुएँ हैं , उन सबके रूपमें आप ही हैं । आप ही जीव तथा आप ही प्रधान (प्रकृति ) हैं । इस प्रपञ्चमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है , जो आपसे रहित हो ॥२॥

वर्णों तथा आश्रमोंके वेदमार्ग -प्रतिपादित धर्मका भगवदर्पणबुद्धिसे भक्तिपूर्वक आचरण करते हुए जब शनैः शनैः अन्तःकरणमें विराग उत्पन्न हो जाता है , तब साधक उन विहित कर्मोंका भी विधिपूर्वक त्याग करके परमहंस हो जाता हैं । तत्पश्र्चात् सत्ता , स्फूर्ति और प्रियत्व जिसका स्वरूप है तथा जो स्वभावतः पृथक् -पृथक् दीखनेवाले सम्पूर्ण पदार्थोंमें एकरूपसे स्थित , निष्कारण और जगज्जमादिका कारण है , वह परब्रह्म ही मेरा स्वरूप है —— इस प्रकारका आपका स्वरूपभूत विशुद्ध ज्ञान उन्हें प्राप्त हो जाता है ॥३॥

ज्ञानयोग , कर्मयोग और भक्तियोग —— ये तीनों ही आपकी प्राप्ति करानेवाले हैं । इनमें जिनका समस्त विषयोंमें विराग हो गया है , वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं और जो विरक्त नहीं हुए है , उनका भगवदर्पण -बुद्धिसे किये जानेवाले कर्मयोगमें अधिकार है । किंतु जो न तो विषयोंमें अत्यन्त आसक्त हैं न अत्यन्त विरक्त ही हैं , परंतु आपकी कथा आदिमें श्रद्धा रखनेवाले हैं , उनके लिये भक्तियोग ही अधिकरणीय है ॥४॥

भगवन् ! इस मृत्युलोकमें पुण्यके फलस्वरूप ज्ञान तथा आपकी भक्तिको मनुष्य अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं । इसी कारण स्वर्गवासी तथा नरकनिवासी सभी लोग मृत्युलोकमें ही जन्म ग्रहण करनेकी स्पृहा करते हैं । उसी मर्त्यलोकमें दैववश मैं भवसागरसे पार होनेके लिये नौकास्वरूप इस मर्त्यलोकमें दैववश मैं भवसागरसे पार होनेके लिये नौकास्वरूप इस मर्त्यदेहमें प्रविष्ट हुआ हूँ । अब आप मुझे कर्णधारस्वरूप गुरुकी प्राप्ति कराकर स्वयं अनुकूल वायुका -सा आचरण करते हुए इस भवसागरसे पार कर दीजिये ॥५॥

अयि भगवन् ! केवल ज्ञानपर लुभाये हुए लोग श्रुतियों तथा युक्तियोंद्वारा अव्यक्त ब्रह्मकी खोज करते हुए अत्यन्त क्लेश सहते हैं , तब कहीं बहुत -से -जन्मोंके अन्तमें ही उन्हें सिद्धिकी प्राप्ति होती है और कर्मयोग भी परम -फल ——मोक्ष -प्राप्तिके विषयमें बहुत दूर है । केवल यह भक्तियोग ही ऐसा है , जो आरम्भसे ही मनोहर तथा शीघ्र ही आपकी प्राप्ति करा देनेवाला है ; अतः मेरे हृदयमें उसीकी वृद्धि होती रहे ॥६॥

मुनि वेदव्यास पुराणोंमें जगह -जगह केवल ज्ञानके लिये अतिशय प्रयत्न करनेका प्रतिषेध करते हैं । परंतु जो ब्रह्मतत्त्वको सुनकर आपके चरणोंमें सुदृढ़ भक्ति करके शरणापन्न हो जाता है , मुक्ति उसके करतलगत हो जाती है । यद्यपि आपके ध्यानमें भी चित्तकी चञ्चलताके कारण वैसी ही दुष्करता है , तथापि आपकी कृपा तथा श्रीविग्रहके सौन्दर्यके बलसे बारंबार अभ्यास करनेपर चित्त शीध्र ही वशमें किया जा सकता है ॥७॥

अयि भुवनपते ! यद्यपि दुःखबहुल कर्ममार्गसे विरक्त होकर आपकी कथा आदिमें मेरी गाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो गयी है , तथापि पुत्र -वित्त आदिकी कामनाओंका त्याग करनेके लिये मैं अपनेको असमर्थ ही पा रहा हूँ । इसी कारण बारंबार निश्र्चय करके आपमें दत्तचित्त होकर दोषबुद्धिसे उन कामनाओंका सेवन करते हुए भी मैं भक्तिका ही पोषण करता रहूँ , जिस भक्तिके प्रभावसे हृदयमें आपके आ विराजनेपर विषयवासनाएँ तुरंत ही नष्ट हो जाती हैं ॥८॥

पूर्वकालमें एक ब्राह्मण थे , उनका महान् क्लेशसे उपर्जित धन जब नष्ट हो गया , तब निर्विण्ण होनेके कारण उनकी बुद्धि विमल हो गयी (और वे घरसे निकल पड़े । मार्गमें जन -समूह उन्हें तरह -तरहसे पीड़ित करने लगा । तब उन्होंने ऐसी गाथा गायी —— ‘मेरे दुःखका कारण ये मनुष्यगण , काल , कर्म और ग्रह आदि नहीं हैं , इसका कारण तो मेरा चित्त ही है । वही चित्त (आत्मामें कर्तृत्व -भोक्तृत्व आदि ) गुणसमूहोंका आरोप करके सब कुछ करता है । ’ ऐस कहकर वे शान्त हो गये और अन्तमें आपके सारूप्यको प्राप्त हो गये । विभो ! मेरे भी चित्तको उसी प्रकार शान्त कर दीजिये ॥९॥

प्राचीन कालमें इलानन्दन पुरूरवा अपनेसे आसी हुई उर्वशीके प्रति अत्यन्त आसक्त होकर चिरकालतक उसके साथ विहार करते रहे । समय —भङ्ग होनेके कारण जब वह स्वर्ग चली गयी , तब राजाको अतिशय वैराग्य हो गया और उन्होंने यह गाथा गायी — ‘यह स्त्री -सुख अतिशय क्षुद्र है । ’ तत्पश्र्चात् आपकी भक्ति प्राप्त करके सफल -मनोरथ हो वे सुखपूर्वक जीवन -निर्वाह करने लगे । पवनपुरपते ! उसी प्रकार मेरी विषयासक्तिको नष्ट करके मुझे भी भक्तश्रेष्ठ बना दीजिये और मेरे रोगोंको दूर कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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