एकादशस्कन्धपरिछेदः - त्रिनवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


बन्धुस्नेहं विजह्यां तव हि करुणया त्वय्युपावेशितात्मा

सर्वं त्यक्त्वा चरेयं सकलमपि जगद्वीक्ष्य मायालिवासम् ।

नानात्वाद् भ्रान्तिजन्यात् सति खलु गुणदोषावबोधे विधिर्वा

व्यासेधो वा कथं तौ त्वयि निहितमतेर्वीतवैषम्यबुद्धेः ॥१॥

क्षुत्तुष्णालोपमात्रे सततकृतधियो जन्तवः सन्त्यनन्ता -

स्तेभ्यो विज्ञानवत्त्वात् पुरुष इह वरस्तज्जनिर्दुर्लभैव ।

तन्नाप्यात्माऽऽत्मनः स्यात् सुहृदपि च रिपुर्यस्त्वायि न्यस्तचेता -

स्तापोच्छित्तेरुपायं स्मरति स हि सुहृत् स्वात्मवैरी ततोऽन्यः ॥२॥

त्वत्कारुण्ये प्रवृत्ते क इव नहि गुरुर्लोकवृत्तेऽपि भूमन्

सर्वाक्रान्तापि भूमिर्नहि चलति ततः सत्क्षमां शिक्षयेयम् ।

गृह्णीयामीश तत्तद्विषयपरिचयेऽप्यप्रसक्तिं समीराद्

व्याप्तत्वं चात्मनो मे गगनगुरुवशाद्भातु निर्लेपता च ॥३॥

स्वच्छः स्यां पावनोऽहं मधुर उदकवद्वह्निवन्मा स्म गृह्णां

सर्वान्नीनोऽपि दोषं तरुषु मां सर्वभूतेष्ववेयाम् ।

पुष्टिर्नष्टिः कलानां शशिन इव तनोर्नात्मनोऽतीति विद्यां

तोयादिव्यस्तमार्तण्डवदपि च तनुष्वेकतां त्वत्प्रसादात् ॥४॥

स्नेहाद् व्याधास्तपुत्रप्रणयमृतकपोतायितो मा स्म भूवं

प्राप्तं प्राश्र्नन् सहेय क्षुधमपि शयुवत् सिन्धुवत् स्यामगाधः ।

मा पप्तं योषिदादौ शिखिनि शलभवद् भृङ्गवत् सारभागी

भूयासं किंतु पद्वद्धनयचयनवशान्माहमीश प्रणेशम् ॥५॥

मा बध्याससं तरुण्या गज इव वशया नार्जयेयं धनौघं

हर्तान्यस्तं हि माध्वीहर इव मृगवन्मा मुहं ग्राम्यगीतैः ।

नात्यासज्जेय भोज्ये झष इव बडिशे पिङ्गलावन्निराशः

सुप्यां भर्तव्ययोगात् कुरर इव विभो सामिषोऽन्यैर्न हन्यै ॥६॥

वर्तेय त्यक्तमानः सुखमतिशिशुवन्निस्सहायश्र्चरेयं

कन्याया एकशेषो वलय इव विभो विर्जितान्योन्यघोषः ।

त्वच्चित्तो नावबुध्यै परमिषुकृदिव क्ष्माभृदायानघोष।

गेहेष्वन्यप्रणीतेष्वहिरिव निवसान्युन्दुरोर्मन्दिरेषु ॥७॥

त्वय्येव त्वत्कृतं त्वं क्षपयसि जगदित्यूर्णनाभात् प्रतीयां

त्वच्चिन्ता त्वत्स्वरूपं कुरुत इति दृढं शिक्षये पेशकारात् ।

विड्भस्मात्मा च देहो भवति गुरुवरो यो विवेकं विरक्ति

धत्ते संचिन्त्यमानो मम तु बहुरुजापीडितोऽयं विशेषात् ॥८॥

ही ही मे देहमोहं त्यज पवनपुराधीश यत्प्रेमहेतो -

र्गेहे वित्ते कलत्रादिषु च विवशितास्त्वत्पदं विस्मरन्ति ।

सोऽयं वह्नेः शुनो वा परिमह परतः साम्प्रतं चाक्षिकर्ण -

त्वग्जिह्वाद्या विकर्षन्त्यवशमत इतः कोऽपि न त्पत्पदाब्जे ॥९॥

दुर्वारो देहमोहो यदि पुनरधुना तर्हि निश्शेषरोगान्

हृत्वा भक्तिं द्रढिष्ठां कुरु तव पदपङ्केरुहे पङ्केजाक्ष ।

नूनं नानाभवान्ते समधिगतमिमं मुक्तिदं विप्रदेहं

क्षुद्रे हा हन्त मा मा क्षिप विषयरसे पाहि मां मारुतेश ॥१०॥

॥ इति गुरुशिक्षावर्णनं त्रिनवतितमदशकं समाप्तम् ॥

प्रभो ! आपकी ही कृपासे आपमें चित्त निवेशित करके मैं कौटुम्बिक स्नेहका त्याग कर दूँ और सारे जगत्को मायाका विलास समझकर सारे विधि -निषेधमय कर्मोका परित्याग करके विचरण करूँ ; क्योंकि वर्णाश्रमादि भेद भ्रान्तिजन्य होनेके कारण गुण -दोषका ज्ञान होनेपर ही विधि -निषेध होते हैं । परंतु जिसकी बुद्धि आपमें निहित है अतएव जिसका नानात्वभ्रम नष्ट हो गया है , ऐसे मेरे लिये विधिनिषेध कैसे हो सकते हैं ॥१॥

इस भूतलपर भूख -प्यासकी निवृत्तिके लिये सतत प्रयत्न करनेवाले पशु आदि असंख्य जीव हैं , परंतु विज्ञानसंपन्न होनेके कारण मनुष्य उन सबसे श्रेष्ठ है । इसीलिये मनुष्य -जन्मका प्राप्त होना दुर्लभ ही है । मनुष्योंमें भी आत्मा ही अपना मित्र तथा आत्मा ही अपना शत्रु है । जो आपमें दत्तचित्त होकर मोक्षोपायको जानता है , वह सुहृद् है और उससे भिन्न अपना वैरी है ॥२॥

भूमन ! लोकव्यवहारमें भी दया होनपर स्थावर -जंगम वस्तुओंमेसे कौन गुरु (शिक्षाप्रद ) नही हो सकता है ? अर्थात सभी हो सकते है । भूमि सबसे आक्रान्त होनेपर भी अपने स्थानसे विचलित नहीं होती है , अतः पृथ्वीसे मैं उत्तम क्षमाकी शिक्षा लूँगा । ईश ! भिन्नभिन्न विषयोंके साथ सम्पर्क होनेपर भी उनमें आसक्त न होनेकी शिक्षा मैं वायुसे ग्रहण करूँगा । आत्मा शरीरके बाहर -भीतर व्याप्त है , साथ ही वह निर्लेप भी है - यह शिक्षा मुझे आकाशरूपी गुरुसे प्राप्त होगी ॥३॥

भगवन् ! आपकी कृपासे मैं जलकी भॉंति निर्मल , पावन तथा मधुर स्वभाववाला होऊँ । सर्वभक्षी होनेपर भी मैं अग्नि -सदृश दोषभागी न होऊँ । जैसे वृक्षोंमें अग्नि व्याप्त है , उसी प्रकार मैं भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मरूपसे वर्तमान हूँ -ऐसा ज्ञान प्राप्त करूँ । चन्द्रमाकी कलाओंका जैसे क्षय और पोषण होता है , किंतु चन्द्रमाका नहीं , वैसे ही शरीरके ही अवयवोंमें षड्भवावविकार होते रहेत हैं , उनसे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं होता तथा जैसे एक ही सूर्य विभिन्न घटोदकोंमें भिन्न -भिन्न प्रकारसे प्रतिभासित होता है वस्तुतः वह है एक ही , उसी प्रकार विभिन्न शरीरोंमें विभिन्न रूपसे लक्षित होनेपर भी आत्मा एक ही है - ऐसा अभेद -ज्ञान मैं सूर्यसे प्राप्त करूँ ॥४॥

ईश ! व्याधद्वारा पकड़े गये पुत्रोंके प्रेमवश प्राण समर्पण करनेवाले कपोतके समान मैं स्नेहवश कुटुम्बमें आसक्त न होऊँ । अजगरकी तरह यदृच्छप्राप्त पदार्थोंको खाकर भूखको भी सहन करनेमें समर्थ बनूँ । सिन्धु -तुल्य अगाध होऊँ । जैसे पतिंगे अग्निपर मोहित होकर उसमें कूदकर जल मरते हैं , उसी तरह स्त्रियोंपर भोग्यबुद्धिसे आसक्त होकर मैं भी नष्ट न हो जाऊँ । भौरेकी तरह सारग्राही बनूँ । परंतु कहीं ऐसा न हो कि जैसे भ्रमर पुष्प - रसको एकत्रित करनेमें तन्मय हो जाता है और सायंकाल पुष्पके बंद हो जानेपर उसीमें बँध जाता हे , वैसे ही मैं भी धन -संग्रहके वशीभूत होकर नष्ट हो जाऊँ ॥५॥

विभो ! जैसे मैथुनकी इच्छावाली हथिनीके अङ्ग -सङ्गसे गजेन्द्र बन्धनमें पड़ जाता है , उसी प्रकार तरुणी स्त्रीमें आसक्त होकर मैं भी बन्धनका भागी न बनूँ । (मधुमक्खीकी भॉंति त्याग -भोगविहीन ) धनराशिका संचय न करूँ ; क्योंक्कि शहद निकालनेवाले पुरुषकी तरह उसे दूसरे ही लोग हरण कर लेंगे । शिकारीकी वीणाके शब्दपर मुग्ध हुए मृगकी भॉंति मैं ग्राम्य -गीतोंसे मोहित न होऊँ । जैसे कॉंटेमें लगे हुए मांसमें स्वादवश मछली आसक्त हो जाती है , उसी प्रकार मेरी स्वादिष्ठ भोज्य पदार्थोंमे अधिक असक्ति न हो । मैं पिङ्गलाके समान भर्तव्ययोगसे निराश होकर सुखपूर्वक शयन करूँ । आमिषयुक्त एक कुररपक्षीको देखकर जैसे दूसरे बलवान् कुरर झपट पड़ते हैं , उसी प्रकार मैं भी रक्षणीय धनके सम्बन्धसे अन्य बलवानोंद्वारा मार न डाला जाऊँ ॥६॥

विभो ! अबूझ शिशु -तुल्य मानापमानका त्याग करके मैं सुखपूर्वक व्यवहार करूँ । जैसे कुमारी कन्याने शब्दके भयसे अपनी सभी चूड़ियोंको तोड़कर केवल एकको ही छोड़ रखा था , उसी प्रकार मैं भी पारस्परिक व्यर्थके वार्तालापोंसे दूर रहकर अकेला ही विचरण करूँ । मनोयोगपूर्वक कार्यमें संलग्न रहनेके कारण जैसे बाणकर्ताको निकटसे जाते हुए राजाकी सवारीका शब्द नहीं सुन पड़ा , वैसे ही मैं भी आपमें ऐसा दत्तचित्त हो जाऊँ जिससे मुझे दुसरेका भान ही न हो । सर्प चूहोंके बनाये हुए बिलोंमें निवास करता है , उसी प्रकार मैं भी गृहासक्तिका त्याग करके दूसरोंद्वारा बनाये हुए घरोंमें निवास करता हुआ काल -यापन करूँ ॥७॥

जैसे मकड़ी स्वनिर्मित तन्तुवितानको पुनः अपनेमें ही समेट लेती है , उसी प्रकार आप स्वरचित जगत्को स्वयं अपनेमें ही लीन कर लेते हैं —— ऐसा ज्ञान मैं मकड़ीसे ग्रहण करूँ । आपका ध्यान आपके सारूप्यको प्राप्त करानेवाला है —— ऐसी सुदृढ़ शिक्षा मैं भृंगी कीटसे प्राप्त करूँ । जिसका अन्तिम परिणाम दूसरोंद्वारा खाये जानेपर विष्ठा और जलाये जानेपर भस्म है , वह यह मेरा शरीर भी एक श्रेष्ठ गुरु है ; क्योंकि सम्यक् विचार करनेपर यह विवेक -विरक्तिका आधार बनाता है । किंतु मेरा यह शरीर तो अनेकों व्याधियोंसे पीड़ित है , इसलिये विशेष रूपसे विवेक - विरक्तिका कारण हो रहा है ॥८॥

पवनपुराधीश ! हाय ! हाय ! जिस शरीरमें प्रेम होनेके कारण लोग गेह , वित्त , कलत्रादिमें आसक्त होकर उन्हीके योगक्षेमकी चिन्तामें ग्रस्त रहते हैं , जिससे उन्हें आपके चरणोंकी विस्मृति हो जाती है ; मेरे उस देहकी ममताको छुड़ा दीजिये । यह शरीर प्राण निकल जानेपर अग्नि अथवा कुञेका भोजन हो जाता है तथा जीवित रहनेपर आँख , कान , त्वचा , जिह्वा आदि इन्द्रियॉं इसे परवशकी भॉंति इधर -उधर अपने -अपने विषयोंकी ओर खींचती रहती हैं । इनमेंसे कोई भी इसे आपके चरणकमलकी ओर प्रेरित नहीं करती ॥९॥

कमलनयन ! यदि इस समय पुनः इस देह -मोहका परित्याग करना दुष्कर है तो इस जन्ममें मेरे समस्त रोगोंका विनाश करके अपने चरणकमलमें मेरी भक्ति सुदृढ़ कर दीजिये । निश्र्चय ही यह मुक्तिदायक ब्राह्मण -शरीर मुझे अनेकों जन्मोंके पश्र्चात् प्राप्त हुआ। हाय ! हाय ! इसे क्षुद्र विषयभोगोंमें मत लगाइये , मत लगाइये । मारुतेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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