द्वितीयस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


व्यक्ताव्यक्तमिदं न किंचिदभवत्प्राक्प्राकृतप्रक्षये

मायायां गुणसाम्यरुद्धविकृतौ त्वय्यागतायां लयम् ।

नो मृत्युश्र्च तदामृतं च समभून्नाह्नो न रात्रेः स्थितिस्तत्रैकस्त्वमशिष्यथाः

किल परानन्दप्रकाशात्मना ॥१॥

कालः कर्म गुणाश्र्च जीवनिवहा विश्र्वं च कार्यं विभो

चिल्लीलारातिमेयुषि त्वयि तदा निर्ल्लीनतामाययुः ।

तेषां नैव वदन्त्यसत्त्वमयि भो शक्त्यात्मना तिष्ठतां

नो चेत् किं गगनप्रसूनसदृशां भूयो भवेत्सम्भवः ॥२॥

एवं च द्विपरार्द्धकालविगतावीक्षां सिसृक्षात्मिकां

बिभ्राणे त्वयि चुक्षुभे त्रिभुवनीभावाय माया स्वयम् ।

मायातः खलु कालशक्तिरखिलादृष्टं स्वभावोऽपि च

प्रादुर्भूय गुणान् विकास्य विदधुः तस्याः सहायक्रियाम् ॥३॥

मायासंनिहितोऽप्रविष्टवपुषा साक्षीति गीतो भवान् भेदैस्तां प्रतिबिम्बितो

विविशिवान् भवता संचोदिता च स्वयं माया सा खलु बुद्धितत्त्वमसृजद्योऽसौ महानुच्यते ॥४॥

तन्नासौ त्रिगुणात्मकोऽपि च महान् सत्त्वप्रधानः स्वयं जीवेऽस्मिन् खलु निर्विकल्पमहामित्युद्बोधनिष्पादकः ।

चक्रेऽस्मिन् सविकल्पबोधकमहंतत्त्वं महान् खल्वसौ सम्पुष्टं त्रिगुणैस्तकोऽतिबहुलं विष्णो भवत्प्रेरणात् ॥५॥

सोऽहं च त्रिगुणक्रमात् त्रिविधतामासाद्य वैकारिको भूयस्तैजसतामसाविति भवन्नाद्येन सत्त्वत्मना ।

देवनिन्द्रियमानिनोऽकृत दिशावातार्कपाश्यश्र्विनो

वह्नीन्द्राच्युतमित्रकान् विधुविधिश्रीरुद्रशारीरकान् ॥६॥

भूमन्मानसबुद्ध्य़ंकृतिमिलाच्चित्ताख्यवृत्तयान्वितं

तच्चान्तःकरणं विभो तव बलात् सत्त्वांश एवासृजत् ।

जातस्तैजसतो दशेन्द्रियगणस्तत्तामसांशात्पुनस्तन्मात्रं नभसो मरुत्पुरपते शब्दोऽजनि त्वद्बलात् ॥७॥

शब्दाद् व्योम ततस्ससर्जिथ विभो स्पर्शं ततो मरुतं तस्माद् रूपमतो महोऽथ च रसं तोयं च गन्धं महीम् ।

एवं माधव पूर्वपूर्वकलनादाद्याद्यधर्मान्वितं भूतग्राममिमं त्वमेव भगवन् प्राकाशयस्तामसात् ॥८॥

एते भूतगणास्तथोन्द्रियगणा देवाश्र्च जाताः पृथङनो शेकुर्भुवनाण्डनिर्मितिविधौ दैवैरमीभिस्तदा ।

त्वं नानाविधसूक्तिभिर्नुतगुणस्तत्त्वान्यमून्याविशंश्र्चेष्टाशक्तिमुदीर्य तानि घटयन् हैरण्यमण्डं व्यधाः ॥९॥

अण्डं तत्खलु पूर्वसृष्टसलिलेऽतिष्ठत्सहस्त्रं समा

निर्भिन्द्रन्नकृथाश्र्चतुर्दशजगद्रूपं विराडाह्णयम् ।

साहस्त्रैः करपादमूर्धनिवहैर्निश्शेषजीवात्मको निर्भातोऽसि मरुत्पुराधिप स मां त्रायस्व सर्वामयात् ॥१०॥

॥ इति विराट्पुरुषोत्पत्तिवर्णनं पञ्चमदशकं समाप्तम् ॥

भगवन् ! पहले प्राकृतप्रलयके समय स्थूल -सूक्ष्मस्वरूप यह शरीरादि कुछ भी नही था । त्रिगुणोंकी साम्यावस्थासे कार्यके अवरुद्ध हो जानेपर माया भी आपमें ही लीन हो गयी थी , जिससे न मृत्यु था न मोक्ष । यहॉंतक कि दिन -रातकी स्थिति भी नही रह गयी थी । उस समय सच्चिदानन्दस्वरूपसे केवल आप ही शेष थे ॥१॥

विभो ! जब आपकी स्वस्वरूपानुंसंधानस्वरूपा लीलामें रति उत्पन्न होती है , उस समय काल , कर्म , गुण , जीवसमूह , अखिल विश्र्व -मायाके ये सब कार्य चित्स्वरूप आपमें अदृश्य हो जाते हैं । उस समय भी श्रुतियॉं कारणरूपसे आपमें स्थित हुए इन काल -कर्मादिको सत्ताहीन नहीं बतलातीं । अन्यथा यदि इन्हें सत्ताहीन मान लिया जाय तो आकाश -कुसुमके समान क्या इनका पुनः प्रलयके अन्तमें उत्पन्न होना सम्भव हो सकेगा अर्थात् नहीं ॥२॥

इस प्रकार द्विपरार्धकालके समाप्त होनेपर जब आपमें सृष्टिनिर्माणकी इच्छा उत्पन्न होती है , उस समय आपकी दृष्टिको प्राप्तकर माया स्वयं त्रैलोक्यरूपसे विवर्तन करनेके लिये क्षुब्ध हो उठती है । तब उस मायासे ईश्र्वरकी कालशक्ति , जीवोंका सृकृत -दृष्कृतरूप अखिल अदृष्ट और स्वभाव भी प्रकट होकर तीनों गुणोंका विकास करके उस मायाकी सहायता करने लगते हैं ॥३॥

आप मायोपाधिक तथा अनुपाहित स्वरूपद्वारा उपलक्षित हैं , ऐसे आपको वेदान्तने सबका साक्षी बतलाया है । जीव भी आपके अतिरिक्त अन्य नहीं हैं । आप ही भेदोंका आश्रय लेकर प्रतिबिम्बरूपसे उस मायामें प्रविष्ट हुए हैं । तदनन्तर काल -कर्म -स्वभावद्वारा संक्षुब्ध हुई तथा आपद्वारा प्रेरित स्वयं उस मायाने ही ऐसे बुद्धितत्तवकी रचना की है , जिसे महत्ततव कहा जाता हैं ॥४॥

इस प्रकार मायाके कार्येंमें यह महत्तत्त्व स्वयं त्रिगुणात्मक होनेपर भी सत्त्वप्रधान है । यही इस जीवमें ‘मैं निर्विकल्प -मनुष्यत्वादि विशेशणोंसे रहित हूँ ’ इस प्रकारके ज्ञानका निष्पादन करनेवाला है । विष्णो ! आपकी प्रेरणासे उसी महत्तत्त्वने ऐसे अहंतत्त्वका निर्माण किया है जो इस जीवमें ‘मैं सविकल्प हूँ ’ ऐसे ज्ञानका उत्पादक , त्रिगुणोंद्वारा परिपोषित तथा अतिशय तमःप्रधान है ॥५॥

यों महत्तत्त्वसे प्रादुर्भूत हुए उस अहंतत्त्वसे उत्पन्न होकर पुनः सत्त्वरज -तम यों त्रिगुणक्रमसे क्रमशः वैकारिक , तैजस , तामस स्वरूप धारण करके सत्त्वात्मक वैकारिक अहंतत्त्वके द्वारा दिक् , वायु , सूर्य , वरूण और अश्र्विनीकुमार (जो क्रमशः श्रोत्र , त्वक् , चक्षु , जिह्णा और घ्राण -इन ज्ञानेन्द्रियोंके अधिष्ठातृ -देवता हैं ) तथा अग्नि , इन्द्र , भगवान् विष्णु , मित्र और प्रजापति (जो क्रमशः वाक् , पाणि , पाद , पायु और उपस्थ —— इन कर्मेंन्द्रियोंके अधिष्ठाता हैं ) एवं चन्द्र , ब्रह्मा , श्रीरुद्र और क्षेत्रज्ञ (जो मन , बुद्धि , अहंकार , चित्त —— इस अन्तःकरण -चतुष्टयके देवता हैं ) आदि इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ -देवताओंको उत्पन्न किया ॥६॥

भूमन् आपके ही बलसे सात्त्विक अहंतत्त्वने ही मन , बुद्धि और अहंकारसे संयुक्त चित्त नामक वृत्तिसे समन्वित अन्तःकरणकी रचना की । विभो ! रजोगुण -प्रधान तैजस अहंकारसे पञ्चज्ञानेन्द्रिय तथा पञ्चकर्मेन्द्रिय -यों दस इन्द्रियोंका समुदाय उत्पन्न हुआ ! मरुत्पुरपरते ! पुनः आपकी प्रेरणासे उसके मातस अंशसे आकाशका तन्मात्रस्वरूप शब्द प्रकट हुआ ॥७॥

विभो ! उस शब्दसे आकाश , आकाशसे वायु -गुण स्पर्श , स्पर्शसे वायु वायुसे तेजोगुण रूप , रूपसे तेज , तेजसे जलका गुण रस , रससे जल , जलसे पृथ्वी -गुण गन्ध और गन्धसे पृथ्वीकी रचना आपने ही की है । षडैश्र्वर्यसम्पन्न माधव ! यों पूर्व -पूर्वके सम्मेलनसे उत्तरोत्तर आदिआदिके धर्मोंसे समन्वित इस भूतसमूहको आपने ही तामस अहंकारसे प्रकट किया है ॥८॥

जब ये भूतगण , इन्द्रियसमुदाय तथा उनके अधिष्ठातृ -देवता उत्पन्न होकर पृथक् -पृथक् ब्रह्माण्डके निर्माण -कार्यमें समर्थ नहीं हुए , तब उन देवोंने नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति की । यों स्तुति किये जानेपर आपने उन तत्त्वोंमें प्रविष्ट होकर उनकी क्रियाशक्तिका उत्पादन किया और फिर उन्हें परस्पर संयुक्त करके इस हिरण्यमय ब्रह्माण्डकी रचना की ॥९॥

वह अचेतन अण्ड जब सहस्त्रों वर्षोंतक पूर्वरचित आवरण -जलमें पड़ा रहा , तब आपने अंशसे उसमें प्रविष्ट होकर विभिन्न रूपोंमें उसे विभक्त करते हुए चौदह भुवनरूप विराट्संज्ञक शरीरका निर्माण किया । तत्पश्र्चात् आप हजारों हाथ -पैर -मस्तक आदि अवयवसमूहोंसे संयुक्त हो अखिल चराचर जीवस्वरूपमें प्रकाशित हो रहे हैं ।मरुत्पुराधिप । वही आप सम्पूर्ण रोगोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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