कैलास ४० चालीस हाथका, वितानक ३४ चौतीस हाथका, बत्तीस ३२ हाथका नन्दिवर्ध्दन कहा है. तीस ३० हाथका नन्दन और सर्वतोभद्रक कहा है ॥१०१॥
ये चारो १६ सोलह हाथके देवताओंको प्यारे होते हैं. कैलास मृगराज वितानच्छन्दक और गज ॥१०२॥
ये बारह हाथके होते हैं. इनमें सिंहनादक गरुडके आठ कोन होते हैं. सिंहके दश १० कोन कहे हैं ॥१०३॥
इसी प्रमाणसे शुभ है लक्षण जिनका ऐसे शुभ प्रासाद बनाने, यक्ष राक्षस नाग इनका आठ ८ हाथका मन्दिर श्रेष्ठ होता है ॥१०४॥
तैसेही मेरु आदि सात ज्येष्ठ ( उत्तम ) लिंगके शुभदायी कहे हैं. जो मध्यमें श्रीवृक्षक आदि आठ ८ कहे है ॥१०५॥
हंस आदि जो पांच कहे हैं वे सब शुभदायी होते हैं, इसके अनन्तर शक्ति सहित लिंगके लक्षणको कहते हैं ॥१०६॥
लिंगकी लम्बाईके अंगुलोंसे बुध्दिमान मनुष्य लिंगके विस्तारको गिने और लिंगके विस्तारका जितना मानहो उससे तिगुना विस्तार पीठका होता है ॥१०७॥ गर्भगेहका जो विस्तार है उसके तीन भागकी कल्पना करे उन भागोंमें एक भागसे पीठका विस्तार करे ॥१०८॥
विष्णुके भागपर्यन्त पीठोंकी दीर्घताको करे, मूल मध्य ऊर्ध्व भागमें ब्रह्मा विष्णु और शिव इनके अंशोको रक्खे ॥१०९॥
अब क्रम क्रमसे पीठिकाके यथार्थ लक्षणको कहता हूं-पी्ठकी ऊंचाईमेंयथायोग्य सोलह भागोंको करे ॥११०॥
उनमेंसे १ एक भाग भूमिमें प्रविष्ट होता है. चार भागोंकी जगती कहाती है एक भागका वृत्त होता है. वृत्तके भागसे ऊर्ध्वभाग होता है ॥१११॥
तीन भागोंसे कण्ठ होता है, कण्ठके तीसरे भागका पद होता है ऊर्ध्वमें जो एक भाग है उसके शेषनागकी पट्टिका होती है ॥११२॥
जहांतक जगती है वहांतक एक भाग भूमिमें प्रविष्ट होता है. उस जगतीका अर्थात जलके प्रवाहका निर्गम शेषपट्टिका पर्य्यत होता है अर्थात मकानके पुस्तेतक जगती बनावे. जलके निकसनेके लिये वह प्रमाणसे बनवानी ॥११३॥
लिंग बाण आदिकोंको सात अंश वा तीन भागसे बनवावे अथवा ५ पांच भाग वा दो भाग जिस प्रकारशिर रहै उस प्रकार यथायोग्य बनवावे सातभागसे बनाये लिंगमें चार अंशोको बनवावे ॥११४॥
पीठके मध्यमें जो गर्त है उससे तीसरा वा एक भागका और पांच भागके गर्तमें तीन भाग दो भागके गर्तमें आधाभाग क्रमसे रक्खे ॥११५॥
इसी प्रकार बाणआदि लिंगोका प्रवेश शिवजीने कहा है. शिर स्थूल हो, मूल कृश हो और उन्नत ( ऊंचे ) में उसके मुखमें शिर हो ॥११६॥
जिसका पृष्ठभाग नीचा हो ऐसा चिन्ह बाण गेह आदि लिंगमें होता है. जिनके मुख और पृष्ठभाग आदिका ज्ञान न हो उनका शिर ऐसा होना चाहिये जिसके मुखका स्पर्श कन्या करसके ॥११७॥
ज्येष्ठ मध्यम कनिष्ठ भेदसे तीन प्रकारकी ब्रम्हाकी शिला होती है उससे तीन गुने विस्तारसे वा अन्य प्रकारसे प्राकार ( परकोटा ) बनवावे ॥११८॥
पूर्वोक्त पीठोंके विस्तारसे अधिक अंगुलोंसे तीन भाग पीठके विस्तारको करके उसके एक भागके प्रमाणसे ॥११९॥
दीर्घ ( लंबाई ) करे और प्रणाल ( पन्नाला ) को उसके त्रिभागके एक विस्तारसे बनवावे और ब्रह्मसूत्रके चतुष्कमें कूर्मशिलाके स्थापन करनेके अनन्तर कूर्मशिलाके गर्भमें द्वादश मुख सोनेके कूर्मका स्थापन करे और उस कूर्मके ऊपर ॥१२०॥