कुशाके आस्तरणसे युक्त कूर्म मत्स्य और फ़लसे युक्त और जिनमें हस्ती दर्पण और वज्र इनका चिन्ह अथवा श्रेष्ठ द्रव्यका चिन्ह हो ॥२१॥
जिनमें श्रेष्ठपक्षी और मृगका चिन्ह हो अथवा वृषका चिन्ह हो अ सब कालमें स्थित हैं स्वस्तिक ( सथिया ) और वेदीसे युक्त और नंदावर्तके चिन्हसे युक्त ॥२२॥ पद्माआदि लक्षणोंसे युक्त शिला सन्पूर्ण अर्थकी सिध्दिको देती है तिसी प्रकार गौ और अश्वके चरणका जिसमें चिन्ह हो ऐसी शिला सुखकी दाता होती है ॥२३॥ मांसभक्षक पक्षी मृग इनके चरणोंसे चिहित और पक्षियोंसे चिहित दिड:मुख और बहुत दीन और दीर्घ ह्रस्व फ़टी शिला श्रेष्ठ नहीं होती ॥२४॥
विरुध्दवर्ण फ़टी और टूटी और लक्षणोंसे हीन शिला त्यागनेके योग्य है और जिनमें श्रेष्ठ प्राणियोंके रुपका वा उत्तम द्रव्यका चिन्ह हो ॥२५॥
और जो शास्त्रमें उक्त लक्षणोंसे युक्त हो ऐसी शिला सदैव सुखदायी होती है । अब संक्षेपसे ईंटोंके लक्षणोंको सुनो ॥२६॥
जो एक वर्णकी हो और भलीप्रकार पकी हो वे श्रेष्ठ होती हैं और जो अत्यंत जीर्ण अर्थात पुरानी वा भुरभुरी हों वे वर्जित हैं और अंगारोंसे युक्त ( जली ) और कृष्णवर्णकी और कंकरों सहित ईट श्रेष्ठ नहीं होतीं ॥२७॥ भग्न विभ्रमसे हीन ( ऊंची नीची ) वे भी यत्नसे वर्जने योग्य हैं और श्रेष्ठप्रमाण सहित रक्तवर्णको चतुरस्त्र ( चौकोर ) और मनोरम ईट श्रेष्ठ होती हैं ॥२८॥
नंदा आदि शिला गृहके मानके अनुसार अंगुलोंसे युक्त होनी चाहिये और शिलाओंसे बनेहुए प्रासादमें शिलाओंका न्यास करना ॥२९॥
ईंटोंसे बनेहुए प्रासादमें ईटोंका विन्यास ( लगाना ) और उतनेही प्रमाणसे उसके जो पीठ वह भी करवाना ॥३०॥
आधार नामकी जो शिला है वह भुली प्रकार दृढ और अच्छी मनोहर हों शैलके मंदिरमें शैलका और ईंटोंकेमें ईंटका पीठ कहा है ॥३१॥
शिलाओंका न्यास आदि जो है उसको भद्र्नामके मंदिरमें मूलपाद कहते हैं चार वेदियोंसे युक्त गर्तोंको चारों कोणमें बनवाकर ॥३२॥
उनके उपर शुक्ल तण्डुलोंका पूरण करे और आग्नेयाआदि क्रमसे उनके स्थानोंकी कल्पना करै ॥३३॥
वहां आधारशिलाको रखकर और स्थिरो भव० इस मन्त्रसे उसकी प्रतिष्ठा करके और चारों कोणोंमें शिलाओंको रखकर ॥३४॥
उनके मध्यमें और रखनेके क्रमसे कलशका स्थापन करे उनके और पद्म महापद्म शंख और मकर ॥३५॥
ये सुंदर चार कलश मन्त्रोंसे अभिमंत्रित और पंचपल्लव पंचगंध और सर्वोंषधियुक्त हों ॥३६॥
समुद्रसे पैदाहुये रत्न और श्रेष्ठ धातुओंसे और पवित्र तीर्थोंके जलोंसे युक्त हों और गूलरके पत्ते उनमें हों ॥३७॥
उन कलशोंके ऊपर शुभ दिन और शुभ लग्नमें नन्दानामकी शिलाका स्थापन करैं और पूर्णजलसे अस्त्राय फ़ट इस मन्त्रको पढकत और स्नान कराकर ॥३८॥
फ़िर स्नान करके और मन्त्रसे संमार्जन करके चारोंतरफ़से पूर्ण करदे । ॐ नन्दाये नम: इस मन्त्रको पढ करके गन्ध आदि पूजाकी सामग्रियोंको चढावे ॥३९॥
गीत वादित्रके शब्द और वेदकी ध्वनिसे युक्त पूर्व और उत्तरको है शिर जिसका ऐसी उस शिलाका शुध्द होकर स्थापन करे ॥४०॥