वाल्मीकि n. एक व्याकरणकार, जिसके विसर्गसंधी के संबंधित अभिमतों का निर्देश तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में प्राप्त है
[तै. प्रा. ५.३६, ९.४,१८.६] ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. एक सुविख्यात महर्षि, जो ‘वाल्मीकि रामायण’ नामक संस्कृत भाषा के आद्य आर्ष महाकाव्य का रचयिता माना जाता है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के फलश्रुति अध्याय में आदिकवि वाल्मीकि का निर्देश प्राप्त है
[वा. रा. यु. १२८.१०५] । वहाँ वाल्मीकि के द्वारा प्राचीन काल में विरचित ‘रामायण’ नामक आदिकाव्य के पठन से पाठकों को धर्म, यश एवं आयुष्य प्राप्त होने की फलश्रुति दी गयी है । समस्त प्राचीन वाङ्य़य में आदिकवि वाल्मीकि के संबंध में यह एकमेव निर्देश माना जाता है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. आधुनिक अभ्यासकों के अनुसार, वाल्मीकि-रामायण के दो से छः तक काण्डों की रचना करनेवाला आदिकवि वाल्मीकि, एवं वाल्मीकि-रामायण के बाल एवं उत्तर काण्डों में निर्दिष्ट राम दशरथि राजा के समकालीन वाल्मीकि दो विभिन्न व्यक्ति थे । किन्तु ई. पू. १ ली शताब्दी में, इस ग्रंथ के बाल एवं उत्तर काण्ड की रचना जब समाप्त हो चुकी थी, उस समय आदिकवि वाल्मीकि एवं महर्षि वाल्मीकि ये दोनों एक ही मानने जाने की परंपरा प्रस्थापित हुई थी । वाल्मीकि-रामायण के उत्तर-काण्ड में निर्देशित महर्षि वाल्मीकि प्रचेतस् ऋषि का दसवाँ पुत्र था, एवं यह जाति से ब्राह्मण तथा अयोध्या के दशरथ राजा का मित्र था
[वा. रा. उ. ९६.१८, ४७.१६] ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. वाल्मीकि-रामायण के बालकाण्ड में इसे तपस्वी, महर्षि एवं मुनि कहा गया है
[वा. रा. बा. १.१, २.४, ४.४] । इसका आश्रम तमसा एवं गंगा के समीप ही था
[वा. रा. बा. २.३] । यह आश्रम गंगा नदी के दक्षिण में ही था, क्यों कि, सीता त्याग के समय, लक्ष्मण एवं सीता अयोध्या से निकलने के पश्र्चात् गंगा नदी पार कर इस आश्रम में पहुँचे
[वा. रा. उ. ४७] । बाद में प्रस्थापित हुए एक अन्य परंपरा के अनुसार, वाल्मीकि का आश्रम गंगा के उत्तर में यमुनानदी के किनारे, चित्रकूट के पास मानने जाने लगा
[वा. रा. अयो. ५६.१६ दाक्षिणात्य] ;
[अ. रा. २.६ रामचरित. २. १२४] । आजकल भी वह बॉंदा जिले में स्थित है । वाल्मीकि-रामायण में इसे अपने आश्रम का कुलपति कहा गया है । प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार, ‘कुलपति’ उस ऋषि को कहते थे, जो दस हज़ार विद्यार्थियों का पालनपोषण करता हुआ उन्हें शिक्षा प्रदान करता था । इससे प्रतीत होता है कि, वाल्मीकि का आश्रम काफ़ी बड़ा था ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. वाल्मीकि के पूर्वायुष्य से संबंधित अनेकानेक अख्यायिकाएँ महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है । किंतु वे काफ़ी उत्तरकालीन होने के कारण अविश्र्वसनीय प्रतीत होती है । महाभारत एवं पुराणों में वाल्मीकि को ‘भार्गव’ (भृगुवंश में उत्पन्न) कहा गया है । महाभारत के ‘रामोपाख्यान’ का रचयिता भी भार्गव बताया गया है
[म. शां. ५७.४०] । भार्गव च्यवन नामक ऋषि के संबंध में यह कथा प्रसिद्ध है कि, वह तपस्या करता हुआ इतने समय तक निश्र्चल रहा की, उसका शरीर ‘वाल्मीक’ से आच्छादित हुआ
[भा. ९.३] ; च्यवन भार्गव देखिये । यह कथा ‘वाल्मीकि’ (जिसका शरीर वाल्मीक से आच्छादित हो) नाम से मिलती-जुलती होने के कारण, वाल्मीकि एवं च्यवन इन दोनों के कथाओं में संमिश्रण किया गया, एवं इस कारण वाल्मीकि को भार्गव उपाधि प्रदान की गयी।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. वाल्मीकि के द्वारा वल्मीक से आच्छादित होने का इसी कथा का विकास, उत्तरकालीन साहित्य में वाल्मीकि को दस्यु, ब्रह्मघ्न एवं डाकू मानने में हो गया, जिसका सविस्तृत वर्णन स्कंद पुराण
[स्कंद. वै.२१] , एवं अध्यात्म रामायण में प्राप्त है । इस कथा के अनुसार, यह जन्म से तो ब्राह्मण था, किंतु निरंतर किरातों के साथ रहने से, एवं चोरी करने से इसका ब्राह्मणत्त्व नष्ट हुआ। एक शुद्रा के गर्भ से इसे अनेक शूद्रपुत्र भी उत्पन्न हुए। एक बार इसने सात मुनियों को देखा, जिंनका वस्त्रादि छीनने के उद्देश्य से इसने उन्हें रोक लिया। फिर उन ऋषियों ने इससे कहा, ‘जिन कुटुंबियों के लिए तुम नित्य पापसंचय करते हो, उनसे जा कर पूछ लो की, वे तुम्हारे इस पाप के सहभागी बनने के लिए तैयार है, या नहीं ’। इसके द्वारा कुटुंबियों को पूछने पर उन्होंने इसे कोरा जवाब दिया, ‘तुम्हारा पाप तुम सम्हाल लो, हम तो केवल धन के ही भोगनेवाले है’ । यह सुन कर इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ, एवं इसने उन ऋषियों की सलाह की अनुसार, निरंतर ‘मरा’ (‘राम’ शब्द का उलटा रूप) शब्द का जप करना प्रारंभ किया। एक सहस्त्र वर्षों तक निश्र्चल रहने के फलस्वरूप, इसके शरीर पर ‘वल्मीक’ बन गया। कालोपरांत ऋषियों ने इसे बाहर निकलने का आदेश दिया, एवं कहा, ‘वल्मीक में तपस्या करने कारण तुम्हारा दूसरा जन्म हुआ है । अतएव आज से तुम वाल्मीकि नाम से ही सुविख्यात होंगे’
[अ. रा. अयो. ६. ४२-८८] । स्कंद पुराण में भी यही कथा प्राप्त है, किंतु वहॉं ऋषि बनने के पूर्व इसका नाम अग्निशर्मन् दिया गया है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. कई अभ्यासकों के अनुसार, पुराणों में प्राप्त इन सारे कथाओं में वाल्मीकि की नीच जाति प्रतिध्वनित होती है । किंतु इस संबंध में निश्र्चित रूप से कहना कठिन है । जो कुछ भी हो, इन कथाओं के मूल रूप में ‘रामनाम’ का निर्देश अप्राप्य है । इससे प्रतीत होता है की, रामभक्तिसांप्रदाय का विकास होने के पश्र्चात्, यह सारा वृत्तांत रामनाम के गुणगान में परिणत कर दिया गया है
[बुल्के, रामकथा पृ. ४७] । पुराणों में इसे छब्बीसवॉं वेदव्यास एवं श्रीविष्णु का अवतार कहा गया है
[विष्णु. ३.३.१८] । यह निर्देश भी इसका महात्म्य बढाने के लिए ही किया गया होगा।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. इसकी शिष्य शाखा काफ़ी बडी थी, किन्तु उसमें भरद्वाज ऋषि प्रमुख था । एक बार यह भरद्वाज के साथ नदी से स्नान कर के वापस आ रहा था । मार्ग में इसने एक व्याध मैथुनासक्त क्रौंच पक्षियों में एक पर शरसंधान करते हुए देखा। उस समय उस पक्षी के प्रति इसके मन में दया उत्पन्न हुई, एवं इसके मुख से छंदोबद्ध आर्तवाणी निःसृत हुईः- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्र्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
[वा. रा. बा. २.१५] ।अकस्मात् मुख से निकले हुए शब्दों को एक वृत्तबद्ध अनुष्टुभ् श्र्लोक का रूप प्राप्त होने का चमत्कार देख कर, इसे मन ही मन अत्यंत आश्र्चर्य हुआ। इसके साथ ही साथ, क्रोध में एक निषाद को इतना कड़ा शाप देने के कारण, इसे अत्यंत दुःख भी हुआ। इसी दुःखित अवस्था में यह बैठा था कि, ब्रह्मा वहाँ प्रकट हुए एवं उन्होंने कहा, ‘पछताने का कोई कारण नहीं है । यह श्र्लोक तुम्हारी कीर्ति का कारण बनेगा। इसी छंद में तुम राम के चरित्र की रचना करो’। ब्रह्मा के इस आदेशानुसार, इसने चौबीससहस्त्र श्र्लोकों से युक्त रामायण ग्रन्थ की रचना की
[वा. रा. बा. २] ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. रामकथा की रचना करने की प्रेरणा वाल्मीकि को कैसी प्राप्त हुई, इस संबंध में इसने नारद के साथ किये एक संवाद का निर्देश वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । एक बार तप एवं स्वाध्याय में मग्न, एवं भाषणकुशल नारद से इसने प्रश्न किया, ‘इस संसार में ऐसा कौन महापुरुष है, जो आचार विचार, एवं पराक्रम में आदर्श माना जा सकता है ’। उस समय नारद ने इसे रामकथा का सार सुनाया, जिसे ही श्र्लोकबद्ध कर, इसने अपने ‘रामायण’ महाकाव्य की रचना की
[वा. रा. बा. १] । इस आख्यायिका से प्रतीत होता है कि, तत्कालीन समाज में रामकथा से संबंधित जो कथाएँ लोककथा के रूप में वर्तमान थी, उन्हींको वाल्मीकि ने छंदोबद्ध रूप दे कर रामायण की रचना की।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. राम के द्वारा सीता का त्याग होने पर इसीने उसे सँभाला, एवं उसकी रक्षा की। उस समय सीता गर्भवती थी । बाद में यथावकाश उसे दो जुड़वे पुत्र उत्पन्न हुए। उनका ‘कुश’ एवं ‘लव’ नामकरण इसी ने ही किया, एवं उन्हें पालपोस कर विद्यादान भी किया। वे कुमार बड़े होने पर, इसने उन्हें स्वयं के द्वारा विरचित रामायण काव्य सिखाया। पश्र्चात् कुश लव ने वाल्मीकि के द्वारा विरचित रामायण का गायन सर्वत्र करना शुरू किया। इस प्रकार वे अयोध्या नगरी में भी पहुँच गये, जहाँ राम दशरथि के अश्र्वमेध यज्ञ के स्थान पर उन्होंने रामायण का गान किया
[वा. रा. उ. ९३-९४] ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. कुशलव के द्वारा किये गये रामायण के साभिनय गायन से राम मंत्रमुग्ध हुआ, एवं जब उसे पता चला कि, ये ऋषिकुमार सामान्य भाट नही, बल्कि उसीके ही पुत्र है, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सीता को अपने पास बुलवा लिया। उस समय वाल्मीकि स्वयं सीता के साथ रामसभा में उपस्थित हुआ, एवं इसने सीता के सतीत्व की साक्ष दी। उस समय इसने अपने सहस्त्र वर्षों के तप का, एवं सत्यप्रतिज्ञता का निर्देश कर सीता का स्वीकार करने की प्रार्थना राम से की
[वा. रा. उ. 96.20] । पश्र्चात् इसीके कहने पर सीता ने पातिव्रत्य की कसम खा कर भूमि में प्रवेश किया।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. पौराणिक साहित्य में रामायण, महाभारत एवं भागवत ये तीन प्रमुख ग्रंथ माने जाते है, एवं इस साहित्य में प्राप्त तत्त्वज्ञान की ‘प्रस्थानत्रयी’ भी इन्हीं ग्रंथो से बनी हुई मानी जाती है । वेदात ग्रंथों की प्रस्थानत्रयी में अंतर्भूत किये जानेवाले भगवद्गीता, उपनिषद एवं ब्रह्मसूत्र की तरह, पौराणिक साहित्य की प्रस्थानत्रयी बनानेवाले ये तीन ग्रंथ भी भारतीय तत्त्वज्ञान का विकास एवं प्रसार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते है । उपर्युक्त ग्रंथों में से रामायण एवं भागवत क्रमशः कर्मयोग, और भक्तितत्त्वज्ञान के प्रतिपादक ग्रंथ है । इसी कारण दैनंदिन व्यवहार की दृष्टि से, रामायण ग्रंथ भागवत से अधिक हृदयस्पर्शी एवं आदर्शभूत प्रतीत होता है । इस ग्रंथ में आदर्श पुत्र, भ्राता, पिता, माता आदि के जो कर्तव्य बतायें गये हैं, वे एक आदर्श बन कर व्यक्तिमात्र को आदर्श जीवन की स्फूर्ति प्रदान करते है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. इस प्रकार रामायण में भारतीय दृष्टिकोन से आदर्श जीवन का चित्रण प्राप्त है, किन्तु उस जीवन के संबंधित तत्त्वज्ञान वहॉं ग्रथित नहीं हैं, जो महाभारत में प्राप्त है । महाभारत मुख्यतः एक तत्त्वज्ञानविषयक ग्रंथ है, जिसमें आदर्शात्मक व्यक्तिचित्रण के साथ साथ, आदर्श-जीवन के संबंधित भारतीय तत्त्वज्ञान भी ग्रथित किया गया है । व्यक्तिविषयक आदर्शों को शास्त्रप्रामाण्य एवं तत्त्वज्ञान की चौकट में बिठाने के कारण, महाभारत सारे पुराण ग्रंथों में एक श्रेष्ठ श्रेणि का तत्त्वज्ञान-ग्रंथ बन गया है । किन्तु इसी तत्त्वप्रधानता के कारण, महाभारत में वर्णित व्यक्तिगुणों के आदर्श धुंधले से हो गये हैं, जिनका सर्वोच्च श्रेणि का सरल चित्रण रामायण में पाया जाता है । इस प्रकार जहॉं महाभारत की सारी कथावस्तु परस्पर स्पर्धा, मत्सर, कुटिलता एवं विजिगिषु वृत्ति जैसे राजस एवं तामस वृत्तियों से ओतप्रोत भरी हुई है, वहॉं रामायण की कथावस्तु में स्वार्थत्याग, पितृपरायणता, बंधुप्रेम जैसे सात्विक गुण ही प्रकर्ष से चित्रित किये गये है । यही कारण है कि, वाल्मीकि-रामायण महाभारत से कतिपय अधिक लोकप्रिय है, एवं उससे स्फूर्ति पा कर भारत एवं दक्षिणीपूर्व एशिया की सभी भाषाओं में की गयी रामकथाविषयक समस्त रचनाएँ, सदियों से जनता के नित्यपाठ के ग्रंथ बन चुकी हैं (राम दशरथि देखिये) । इस प्रकार, जहाँ महाभारत में वर्णित व्यक्तितत्त्वज्ञानविषयक चर्चाओं के विषय बन चुकी है, वहाँ वाल्मीकिरामायण में वर्णित राम, लक्ष्मण एवं सीता देवतास्वरूप पा कर सारे भरतखंड में उनकी पूजा की जा रही है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. संस्कृत साहित्य के इतिहास में रामायण एवं महाभारत इन दोनों ग्रंथों को महाकाव्य कहा जाता है । किंतु प्रतिपाद्य विषय एवं निवेदनशैली इन दोनो दृष्टि से वे एक दूसरे से बिल्कुल विभिन्न है । जहाँ महाभारत एक इतिहासप्रधान काव्य है, वहॉं रामायण एक काव्यप्रधान चरित्र है । महाभारत के अनुक्रमणीपर्व में उस ग्रंथ को सर्वत्र ‘भारत का इतिहास’ (भारतस्येतिहास), भारत की ऐतिहासिक कथाएँ (भारतसंज्ञिताः कथाः) कहा गया है
[म. आ. १.१४.१७] । इसके विरूद्ध रामायण में, ‘राम एवं सीता के चरित्र का, एवं रावणवध का काव्य मैं कथन करता हूँ’ ऐसे वाल्मीकि के द्वारा कथन किया गया है-- काव्य रामायण कृत्स्नं सीतायाश्र्चरितम् महत् | पौलस्त्यवधमित्येव चकार चरितव्रतः।।
[वा. रा. बा. ४.७.] । इस प्रकार महाभारत की कथावस्तु अनेकानेक ऐतिहासिक कथाउपकथाओं को एकत्रित कर रचायी गयी है । किन्तु वाल्मीकि-रामायण की सारी कथावस्तु राम एवं उसके परिवार के चरित्र से मर्यादित है । राम, लक्ष्मण, सीता, दशरथ, आदि का ‘हसित,’ ‘भाषित’ एवं ‘चेष्टित’ (पराक्रम) का वर्णन करना, यही उसका प्रधान हेतु है
[वा. रा. बा. ३.४] । इन दोनों ग्रंथों का प्रतिपाद्य विषय इस तरह सर्वतोपरि भिन्न होने के कारण, उनकी निवेदनशैली भी एक दूसरे से विभिन्न है । रामायण की निवेदनशैली वर्णनात्मक, विशेषणात्मक एवं अधिक तर काव्यमय है । उसमें प्रसाद होते हुए भी गतिमानता कम है । इसके विरुद्ध महाभारत की निवेदनशैली साफ़सुथरी, नाट्यपूर्ण एवं गतिमान् है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. इसी कारण हिन्दुधर्मग्रंथों में रामायण की श्रेष्ठता के संबंध में डॉ. विंटरनिट्झ से ले कर विनोबाजी भावे तक सभी विद्वानों की एकवाक्यता है । श्री. विनोबाजी ने लिखा है, ‘चित्तशुद्धि प्रदान करनेवाले समस्त हिन्दुधर्म ग्रंथों में वाल्मीकिरामायण भगवद्गीता से भी अधिक श्रेष्ठ है । जहाँ भगवद्गीता नवनीत है, वहॉं रामायण माता के दूध के समान है । नवनीत का उपयोग मर्यादित लोग ही कर सकते है, किन्तु माता का दूध तो सभीं के लिए लाभदायक रहता है’। इसलिए वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ में ब्रह्मा ने रामायण के संबंधित जो आशीर्वचन वाल्मीकि को प्रदान किया है, वह सही प्रतीत होता हैः- यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्र्च महीतले तावद्रामायणकथा लोकेपु प्रचरिष्यति।।
[वा. रा. बा. २.३६] । (इस सृष्टि में जब तक पर्वत खड़े है, एवं नदियॉं बहती है, तब तक रामकथा का गान लोक करते ही रहेंगे) ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. डॉ. याकोबी के अनुसार, वार्ण्य विषय की दृष्टि से ‘वाल्मीकि-रामायण’ दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैः- १. बाल एवं अयोध्या कांड में वर्णित अयोध्य की घटनाएँ, जिनका केंद्रबिंदु इक्ष्वाकुराजा दशरथ है; २. दंडकारण्य एवं रावणवध से संबंधित घटनाएँ, जिनका केंद्रबिंदु रावण दशग्रीव है । इनमें से अयोध्या की घटनाएँ ऐतिहासिक प्रतीत होती है, जिनका आधार किसी निर्वासित इक्ष्वाकुवंशीय राजकुमार से है । रावणवध से संबंधित घटनाओं का मूल उद्गम वेदों में वर्णित देवताओं की कथाओं में देखा जा सकता है
[याकोबी, रामायण पृ. ८६, १२७] । रामकथा से संबंधित इन सारे आख्यान-काव्यों की रचना इक्ष्वाकुवंश के सूतों ने सर्वप्रथम की, जिनमें रावण एवं हनुमत् से संबंधित प्रचलित आख्यानों को मिला कर वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। जिस प्रकार वाल्मीकि के पूर्व रामकथा मौखिक रूप में वर्तमान थी, उसी प्रकार दीर्घकाल तक ‘वाल्मीकि-रामायण’ भी मौखिक रूप में ही जीवित रहा। इस काव्य की रचना के पश्र्चात्, कुशीलवों ने उसे कंठस्थ किया, एवं वर्षों तक वे उसे गाते रहे। किंतु अंत में इस काव्य को लिपिबद्ध करने का कार्य भी स्वयं वाल्मीकि ने ही किया, जो ‘वाल्मीकि रामायण’ के रूप आज भी वर्तमान है । इसीसे ही स्फूर्ति पा कर भारत की सभी भाषाओं में रामकथा पर आधारित अनेकानेक ग्रंन्थों की रचना हुई, जिनके कारण वाल्मीकि एक प्रातःस्मरणीय विभूति बन गयाः- मधुममय-भणतीनां मार्गदर्शी महर्षिः।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. वाल्मीकिप्रणीत रामायण संस्कृत भाषा का आदिकाव्य माना जाता है, जिसकी रचना अनुष्टुभ् छंद में की गयी है । वाल्मीकि रामायण के पूर्वकाल में रचित कई वैदिक ऋचाएँ अनुष्टुभ् छंद में भी थी । किंतु वे लघु गुरु-अक्षरों के नियंत्रणरहित होने के कारण, गाने के लिए योग्य (गेय) नही थी । इस कारण ब्राह्मण, आरण्यक जैसे वैदिकोत्तर साहित्य में अनुष्टुभ् छंद का लोप हो कर, इन सारे ग्रन्थों की रचना गद्य में ही की जाने लगी। इस अवस्था में, वेदों में प्राप्त अनुष्टुभ् छंद को लघुगुरु अक्षरों के नियंत्रण में बिठा कर वाल्मीकि ने सर्वप्रथम अपने ‘मा निषाद’ श्र्लोक की, एवं तत्पश्र्चात् समग्र रामायण की रचना की। छंदःशास्त्रीय दृष्टि से वाल्मीकि के द्वारा प्रस्थापित नये अनुष्टुभ् छंद की विशेषता निम्नप्रकार थीः--श्र्लोक षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्। द्विचतुःपादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।। (वाल्मीकि के द्वारा प्रस्थापित अनुष्टुभ् छंद में, श्र्लोक के हर एक पाद का पाँचवाँ लघु, एवं छठवाँ अक्षर गुरु था । इसी प्रकार समापादों में से सातवॉं अक्षर ह्रस्व, एवं विषमपाद में सातवाँ अक्षर दीर्घ था) । इसी अनुष्टुभ् छंद के रचना के कारण वाल्मीकि संस्कृत भाषा का आदि-कवि कहलाया गया। इतना ही नहीं ‘विश्र्व’ जैसे संस्कृत भाषा के शब्दकोश में ‘कवि’ शब्द का अर्थ भी ‘वाल्मीकि’ ही दिया गया है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. वाल्मीकि के द्वारा रामायण की रचना एक पाठ्य़ काव्य के नाते नहीं, बल्कि एक गेय काव्य के नाते की गयी थी । रामायण की रचना समाप्त होने के पश्र्चात्, काव्य को नाट्यरूप में गानेवाले गायकों कि खोज वाल्मीकि ने की थीः- चिन्तयामास को न्वेतत् प्रयुञ्जादिति प्रभुः।। पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम्। जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तंत्रीलय-समन्वितम्।।
[वा. रा. बा. ४.३, ८] । (रामायण की रचना करने के पश्र्चात्, इस महाकाव्य के सभिनय गायन का प्रयोग त्रिताल एवं सप्तजाति में तथा वीणा के स्वरों में कौन गायक कर सकेगा, इस संबंध में वाल्मीकि खोज करने लगा।) वाल्मीकि के काल में रामायण का केवल गायन ही नही, बल्कि अभिनय भी किया जाता था, ऐसा स्पष्ट निर्देश वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । वहाँ रामायण का गायन करनेवाले कुशलव को ‘स्थानकोविद’ (कोमल, मध्य एवं उच्च स्वरोच्चारों में प्रवीण), ‘मार्गगानतज्ज्ञ’ (मार्ग नामक गायनप्रकार में कुशल) ही नहीं, बल्कि ‘गांधर्वतत्वज्ञ’ (नाट्यशास्त्रज्ञ), एवं ‘रूपलक्षणसंपन्न’ (अभिनयसंपन्न) कहा गया है
[वा. रा. बा. ४.१०.११] ; कुशीलव देखिये । वाल्किप्रणीत रामकथा को आधुनिक काव्य के गेय छंदों में बॉंध कर गीतों के रूप में प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न, मराठी के सुविख्यात कवि ग.दि. माडगूळकर के द्वारा ‘गीतरामायण’ में किया गया है । गेय रूप में रामायणकाव्य अधिक मधुर प्रतीत होता है, इसका अनुभव ‘गीतरामायण’ के श्रवण से आता है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. जिस प्रकार वाल्मीकि संस्कृत भाषा का आदिकवि है, उसी प्रकार इसके द्वारा विरचित रामायण संस्कृत भाषा का पहला ‘आर्ष महाकाव्य’ माना जाता है । ‘आर्ष महाकाव्य’ के गुणवैशिष्ट्य महाभारत में निम्नप्रकार दिये गये है -- इतिहासप्रवानार्थं शीलचरित्र्यवर्धनम्। धीरोदत्तं च गहनं श्रव्यैवृत्तैरलंकृतम्।। लोकयात्राक्रमश्र्चापि पावनः प्रतिपाद्यते। विचित्रार्थपदाख्यानं सूक्ष्मार्थन्यायबृंहितम्।। (इतिहास पर आधारित, एवं सदाचारसंपन्न आदर्शों का प्रतिपादन करनेवाले काव्य को आर्ष महाकाव्य कहते है । वह सद्गुण एवं सदाचार को पोषक, धीरोदत्त एवं गहन आशय से परिपूर्ण, श्रवणीय छंदों से युक्त रहता है) ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. इस ग्रंथ में उत्तर भारत, पंजाब एवं दक्षिण भारत के अनेकानेक भौगोलिक स्थलों का निर्देश एवं जानकारी प्राप्त है । कोसल देश एवं गंगा नदी के पडोस के स्थलों का भौगोलिक स्थान, एवं स्थलवर्णन उस ग्रंथ में जितने स्पष्ट रूप से प्राप्त है, उतनी स्पष्टता से दक्षिण भारत के स्थलों का वर्णन नही मिलता। इससे प्रतीत होता है कि, वाल्मीकि को उत्तर भारत एवं पंजाब प्रदेश की जितनी सूक्ष्म जानकारी थी, उतनी दक्षिण भारत एवं मध्यभारत की नहीं थी । कई अभ्यासकों के अनुसार, वाल्मीकि स्वयं उत्तर भारत का निवासी था, एवं गंगा नदी को मिलने वाली तमसा नदी के किनारे अयोध्या नगरी के समीप इसका आश्रम था । वाल्मीकि रामायण में निर्दिष्ट प्रमुख भौगोलिक स्थल निम्न प्रकार हैः-- (१) उत्तर भारत के स्थलः---१. अयोध्या
[वा. रा. बा. ६.१] ; 2. सरयू नदी
[वा. रा. बा. २४.१०] ; ३. तमसा नदी
[वा. रा. बा. २.४] ; ४. कोसल देश
[वा. रा. अयो. ५०.१०] ; ५. शृंगवेरपुर
[वा. रा. अयो. ५०.२६] ; ६. नंदिग्राम
[वा. रा. अयो. ११५.१२] ; ७. मिथिला, सिद्धाश्रम, गौतमाश्रम, एवं विशाला नगरी
[वा. रा. बा. ३१.६८] ; ८. गरिव्रज अथवा राजगृह
[वा. रा. अयो. ६८.२१] ; ९. भरद्वाजाश्रम
[वा. रा. अयो. ५४.९] ; १०. बाह्लीक
[वा. रा. अयो. ६८.१८] ; ११. भरत का अयोध्या-केकय-गिरिव्रज प्रवास
[वा. रा. अयो. ६८. १२-२१,७१.१-१८] । (२) दक्षिण भारत के स्थल---१. पंचवटी
[वा. रा. अर. १३.१२] ; २. पंपा नदी,
[वा. रा. अर. ६.१७] ; ३. दण्डकारण्य
[वा. रा. बा. १०.२५] ; ४. अगस्त्याश्रम
[वा. रा. अर. ११.८३] ; ५. जनस्थान
[व. रा. उ. ८१.२०] ; ६. किष्किंधा
[वा. रा. कि. १२.१४] ७. लंका
[वा. रा. किं. ५८.१९-२०] ; ८. विंध्याद्रि
[वा. रा. कि. ६०.७] ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. रामायण के सात कांडों में से, दूसरे से ले कर छटवे तक के कांडों (अर्थात् अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर एवं युद्ध) की रचना स्वयं वाल्मीकि के द्वारा की गयी थी । बाकी बचे हुए दो कांड (अर्थात् पहला बालकांड, एवं सातवा उत्तरकांड) वाल्मीकि के द्वारा विरचित ‘आदि रामायण’ में अंतर्भूत नही थे । उनकी रचना वाल्मीकि के उत्तरकालीन मानी जाती है । इन दोनों कांडों में वाल्मीकि का एक पौराणिक व्यक्ति के रूप में निर्देश प्राप्त है । आधुनिक अभ्यासकों के अनुसार, वाल्मीकि के ‘आदिकाव्य’ का रचनाकाल महाभारत के पूर्व में, अर्थात ३०० ई. पू. माना जाता है; एवं वाल्मीकि के प्रचलित रामायण का रचनाकाल दूसरि शताब्दी ई. पूव माना जाता है । वाल्मीकि के ‘आदिकाव्य’ के रचनाकाल के संबंध में विभिन्न संशोधकों के अनुमान निम्नप्रकार है- २. डॉ. याकोबी-६ वी शताब्दी ई. पू. २. डॉ. मॅक्डोनेल ६ वी शताब्दी ई. पू.; ३. डॉ. मोनियर विल्यम्स - ५ वी शताब्दी ई. पू.; ४. श्री. चिं. वि. वैद्य-५ वी शताब्दी ई. पू.; ५. डॉ. कीथ-४ शताब्दी ई. पू.; ६. डॉ. विंटरनित्स-३ री शताब्दी ई. पू.। उपर्युक्त विद्वानों में से, डॉ. याकोबी, डॉ. विल्यम्स, श्री. वैद्य, एवं डॉ. मॅक्डोनेल वाल्मीकि के ‘आदिकाव्य’ की रचना बौद्ध साहित्य के पूर्वकालीन मानते है । किंतु बौद्ध साहित्य में जहाँ रामकथा संबंधी स्फुट आख्यान आदि का निर्देश प्राप्त है, वहाँ वाल्मीकि रामायण का निर्देश अप्राप्य है । इससे उस ग्रंथ की रचना बौद्ध साहित्य के उत्तरकालीन ही प्रतीत होती है । पाणिनि के ‘अष्टअध्यायी’ में भी वाल्मीकि अथवा वाल्मीकि रामायण का निर्देश अप्राप्य है । किंतु उस ग्रंथ में कैकयी, कौसल्या, शूर्पणखा आदि रामकथा से संबंधित व्यक्तियों का निर्देश मिलता है
[पां. सू. ७.३.२, ४.१.१५५, ६. २.१२२] । इससे प्रतीत होता है कि, पाणिनि के काल में यापि रामकथा प्रचलित थी, फिर भी वाल्मीकि रामायण की रचना उस समय नही हुई थी ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. महाभारत एवं ‘वाल्मीकि रामायण’ में से रामायण ही महाभारत से पूर्वकालीन प्रतीत होता है । कारण कि, महाभारत में वाल्मीकि के कई उद्धरण प्राप्त हैं, पर रामायण में महाभारत का निर्देश तक नही आता। सात्यकि ने भूरिश्रवस् राजा का प्रायोपविष्ट अवस्था में शिरच्छेद किया। अपने इस कृत्य का समर्थन देते हुए, सात्यकि वाल्मीकि का एक श्र्लोकार्ध
[वा. रा. यु. ८१.२८ हनुमत्-इंद्रजित् संवाद] उद्धृत करते हुए कहता हैः- अपि चायं पुरा गीतः श्र्लोको वाल्मीकिना भुवि। न हन्तव्या स्त्रियश्र्चेति यद्ब्रवीषि प्लवंगम।। सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा।। पीडाकरममित्राणां यत्स्यत्कर्तव्यमेव तत्।।
[म. द्रो. 118.48.975--976*] महाभारत में अन्यत्र रामायण को प्राचीनकाल में रचा गया काव्य (पुरागीतः) कहा गया है
[म. व. २७३.६] ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. -इस ग्रंथ के संप्रति चार प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें १०-१५ सर्गों से बढ़ कर अधिक विभिन्नता नही हैः- (१) उदिच्य पाठ, जो निर्णयसागर प्रेस एवं गुजराती प्रिंन्टिंग प्रेस, बंबई के द्वारा प्रकाशित है । इस पर नागोजीभट्ट के द्वारा ‘तिलक टीका’ प्राप्त है, जो रामायण की सब से विस्तृत एवं उत्कृष्ठ टीका मानी जाती है । (२) दाक्षिणात्य पाठ, जो मध्वविलास बुक डेपो, कुंभकोणम् के द्वारा प्रकाशित है । इस संस्करण पर श्रीमध्वाचार्य के तत्वज्ञान का काफ़ी प्रभाव प्रतीत होता है । फिर भी, यह संस्करण ‘उदिच्य पाठ’ से मिलता-जुलता है (३) गौडीय पाठ, जो डॉ. जी. गोरेसियो के द्वारा संपादित, एवं कलकत्ता संस्कृत सिरीज में १८४३-१८६७ ई. के बीच प्रकाशित हो चुका है । (४) पश्र्चिमोत्तरीय (काश्मीरी) पाठ, जो लाहोर के डी. ए. व्ही. कॉलेज के द्वारा १९२३ ई. में प्रकाशित किया गया है ।
वाल्मीकि (आदिकवि) n. ‘वाल्मीकि भार्गव’---एक ऋषि, जो वरुण एवं चर्षणी के दो पुत्रों में से एक था
[भा. ६.१८.४] । इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त हैः- १. वाल्मीकिसूत्र; २. वाल्मीकिशिक्षा; ३. वाल्मीकिहृदय; ४. गंगाष्टक (उ.उ) ।
वाल्मीकि II. n. एक पक्षिराज, जो गरुडवंशीय सुपर्णपक्षियों के वंश में उत्पन्न हुआ था । दास के अनुसार, यह पक्षी न हो कर, सप्तसिंधु की यायावर आर्य जाति थी
[ऋ.ग्वेदिक इंडिया, पृ. ६५, १४८] । ये कर्म से क्षत्रिय थे, एवं बड़े ही विष्णुभक्त थे
[म. उ. ९९.६, ८] ।
वाल्मीकि III. n. एक व्यास (व्यास देखिये) ।
वाल्मीकि IV. n. एक शिवभक्त, जिसने शिवभक्ति के संबंध में अपना अनुभव युधिष्ठिर को कथन किया था
[म. अनु. १८.८-१०] ।