शंडामर्क n. एक ऋषिद्वय, जो असुरों का पुरोहित था
[तै. सं. ६.४.१०.१] ;
[मै. सं. ४.६.३] ;
[तै. ब्रा. १.१.१.५] ;
[श. ब्रा. ४.२.१.४-६] । वैदिक साहित्य में इन दोनों का अलग-अलग निर्देश भी प्राप्त है
[वा. सं. ७.२.१२-१३, १६.१७] । ‘शुक्रामंथिग्रह’ ग्रहण करने की पद्धति इन दो पुरोहितों के कारण प्रस्थापित हुई थी
[तै. सं. ६.४.१०] ।
शंडामर्क n. बृहस्पति जिस प्रकार देवों का पुरोहित था, उसी प्रकार शंड एवं मर्क असुरों के पुरोहित थे । इन्हींके कारण असुर-पक्ष सदैव अजय रहता था । अंत में इन्हें सोम की लालच दिखा कर, देवों ने इन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया, एवं इस प्रकार असुरों को पराजित किया । आगे चल कर, देवों के द्वारा यज्ञ प्रारंभ करते ही, सोमप्राप्ति की आशा से ये उपस्थित हुए। किंतु देवों ने इन्हें सोम देने से साफ इन्कार किया, एवं फजिहत कर इन्हें यज्ञस्थान से दूर भगा दिया
[तै. सं. ६.४.१०] ;
[तै. ब्रा. १.१.१] ।
शंडामर्क n. इस साहित्य में इन्हें शुक्र एवं गो के चार पुत्रों में से दो कहा गया है, एवं इनके अन्य दो भाइयों के नाम त्वष्ट्ट एवं वरत्रिन् बताये गये हैं। ये शुक्र के प्रमुख शिष्यों में से दो थे, एवं असुरपक्ष को विजय प्राप्त कराने के हेतु शुक्र ने इन्हें असुरों का प्रमुख गुरु बनाया था । किंतु अंत में देवों ने इन्हें सोम की लालच दिखा कर अपने पक्ष में दाखल कराया, एवं इस प्रकार असुरों को पराजित करने के कार्य में देवपक्ष सफल बन गया
[वायु. ९८.६२-६७] ;
[मत्स्य. ४७.५४, २२..३३] ;
[ब्रह्मांड. ३.७२-७३] ।
शंडामर्क n. असुरराज हिरण्यकशिपु ने इन्हें अपने पुत्र प्रह्लाद का गुरु नियुक्त किया था, किंतु यह कार्य भी ये सुयोग्य प्रकार से पूरा न कर सके
[भा. ७.५.१] ।