दुःशासन n. (सो.कुरु.) धृतराष्ट्र का द्वितीय पुत्र
[म.आ.१०८.२] । यह दुर्योधन की अनुमति से व्यवहार करता था, इसलिये उसने इसे यौवराज्य प्रदान किया था । यह पौलस्त्य का अंशावतार था । इसने शस्त्रास्त्रविद्या तथा धनुर्विद्या की शिक्षा द्रोण से ली थी । द्रौपदी स्वयंवर के समय, उपस्थित राजाओं में यह भी शामिल था
[म.आ.१७७.१] । बाद में द्रौपदीसहित पांडव द्यूत में हार गये । कर्णद्वारा कानाफूसी मिलने पर, इसने भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्रहरण किया । कृष्ण की आराधना कर, द्रौपदी ने अपनी रक्षा की । इसी समय दुःशासन का वध कर, उसके रक्त का प्राशन करने की घोर प्रतिज्ञा भीमसेन ने की
[म.स.६१.४६] । पांडव अशातवास में थे । तब उन्हें ढूँढने के उद्देश से कौरवों ने, मत्स्य देश के विराट राजा की गोशालाओं का ध्वंस किया, तब जबरदस्ती से उसकी गायों का हरण किया । इस हमले में दुःशासन शामिल था
[म.वि३३.३] । अर्जुन ने विराटपुत्र उत्तर को सारथि बना कर, गोहरण कर के भागनेवाले कौरर्वोका पीछा किया । तब दुःशासन, विकर्ण, दुःसह तथा विर्विशति नामक चार योद्धाओं ने महाधनुर्धर अर्जुन पर एक साथ आक्रमण किया । दुःशासन ने, उत्तर को घायल किया अर्जुन के वक्षभाग पर प्रहार कर उसे जख्मी किया । परंतु आखिर अर्जुन ने अपने बाणों से इसे घायल किया, एवं इसे भगा दिया
[म.वि.५६.२१-२२] । भारतीययुद्ध के प्रथम दिन कें संग्राम में, नकुल के साथ इसका द्वंद्वयुद्ध हुआ था
[म.भी४५.२२-२४] । पश्चात् भीष्मद्वारा इकठ्ठी की गयी सेना को भेद कर, भीम ने दुःशासनादि योद्धाओं पर आक्रमण किया । तब दुःशासन ने उसे घेर लिया
[म.भी.७३.१०] । भीष्मार्जुन युद्ध के समय शिखंडिन को सामने ले कर अर्जुन युद्ध करने लगा । यह देखते ही भीष्म के संरक्षण के लिये, दुःशासन ने अर्जुन पर आक्रमण किया । दोनों में युद्ध हो कर, दुःशासन घायल हुआ
[म.भी.१०६.४३] । पश्चात सामने की कौरव सेना की पंक्ति तोड कर, अर्जुन उन्हें घायल करने लगा । उस समय पुनः दुःशासन तथा अर्जुन में युद्ध हो कर उसमें भी दुःशासन का पराभव हुआ
[म.द्रो.६५.५] । अभिमन्यु का पराक्रम देख कर, द्रोण द्वारा की गई उसकी प्रशंसा, दुर्योधन से सही नहीं गई । उसने दुःशासनादि वीरों को उस पर आक्रमण करने की आज्ञा दी । दुःशासन तथा अभिमन्यु में काफी देर तक तुमुल युद्ध हुआ । अभिमन्यु के प्रबल बाणों से, व्यथित हो कर दुःशासन रथ में गिर पडा । इसे प्रचल मूर्च्छा आई । इसका सारथि इसे रण से दूर ले गया
[म.द्रो.३९.११-१२] । बाद में रणांगण में, सात्यकि से मिलते ही घबरा कर दुःशासन भाग आया, तब द्रोण ने इसका अत्यंत उपहास किया
[म.द्रो.९८] । वास्तविक देखा जावे, तो सात्यकि के साथ हुएँ में ही दुःशासन मर सकता था, परंतु द्रौपदी वस्त्रहरण के समय की, भीम की प्रतिज्ञा का स्मरण हो कर, उसने दुःशासन का वध नहीं किया
[म.द्रो ६६.२६] । इस प्रकार घनघोर भारतीययुद्ध चालू ही था । उस समय भीम ने दुःशासन पर आक्रमण किया । दोनों का घमासान युद्ध हो कर दुःशासन ने भीम पर साक्षात् मृत्यु के समान, प्रचंड शक्ति छोडी । परंतु भीम ने अपनी गदा यूँ फेंकी जिससे उस दारुण शक्ति का विदारण हो कर, वह गदा दुःशासन के मस्तक पर जा गिरी । तत्काल दुःशासन भूमि पर गिर पडा । उसके मस्त से रुधिरस्त्राव होने लगा । तत्काल भीम इसपर झपटा । ‘द्रौपदी वस्त्रहरण,’ ‘केशग्रहण’ तथा वनगमन के समय, ‘गौर्गौ’ कहने का स्मरण उसे दे कर, एवं अपनी प्रतिज्ञा का भी स्मरण दिलाकर भीम ने इसके गले पर पैर रखा । इसके दोनों हाथ पकडे । पास ही में खडे दुर्योधन, कर्ण कृपाचार्य अश्वत्थामा आदि वीरों की ओर देख कर भीम ने क्रोध से कहा, ‘अगर किसी में सामर्थ्य हो तो वह इसकी रक्षा करे । मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार, अब मैं इसका रक्तप्राशन करनेवाला हूँ । इतना कह कर उसने दुःशासन का वक्षविदारण किया, तथा सब के सामने इसका रक्त प्राशन करने लगा । वक्षस्थलभेद होने के कारण, दुःशासन की तत्काल मृत्यु हो गई
[म.क.६१] । दुःशासन की मृत्यु के वाद, गांधारी ने श्रीकृष्ण के पास, अत्यंत शोक व्यक्त किया । रोते-रोते वह बोली जिस प्रकार सिंह के द्वारा कोई प्रचंड हाथी मारा जाये, उस प्रकार भीम द्वारा मारा गया मेरा दुःशासन अपने प्रचंड बाहु फैला कर सोया है
[म.स्त्री.१८.१९.२०] । दुःशासन को दौःशासनि नामक एक अत्यंत पराक्रमी पुत्र था । भारतीययुद्ध में दौःशासनि तथा अभिमन्यु का प्रचंड युद्ध हुआ । अनेक वीरों से लड कर थका हुआ अभिमन्यु दौःशासनि के एक गदाप्रहार से वेहोश हो गया
[म.द्रो.४८.१२] । बाद में दौःशासनि को द्रौपदी पुत्र ने मारा
[म.क.४.१४] । यह सब शस्त्रास्त्रविद्या, सारथ्यकर्म तथा धनुर्विद्या में निपुण, अत्यंत शूर एवं पराक्रमी था
[म.उ.१६२.१९] । परंतु दुष्टबुद्धि एवं मत्सरी होने के कारण, इसका नाश हुआ ।
दुःशासन II. n. खड्गबाहु के पुत्र का सेनापति । एक बार गर्व से एक उन्मत्त हाथी पर यह बैठा । उस हाथी ने पैरों के नीचे कुचल कर इसे मार डाला । बाद में यह हाथी हुआ । सिंहल देश के नृप ने इसे खड्गबाहु को दिया । उसने इसे एक कवि को दिया । उसने इसे मालव राजा को बेच दिया । उसने इसका अच्छा पालनपोषण किया । फिर भी यह मृतप्रायसा होने लगा । तब स्वयं राजा इसके पास आया । हाथी ने मनुष्यवाणी से उसे कहा, ‘गीता के १७ र्वे अध्याय का पाठ करनेवाला कोई व्यक्ति मेरे पास आयेगा, तो मेरी मानसिक पीड नष्ट होगी,’। इतना कह कर इसने अपना पूर्ववृत्तांत राजा को निवेदन किया । राजा ने उपरोक्त प्रकार का ब्राह्मण लाकर उसके द्वारा अभिमंत्रित जल हाथी पर डलवाया । जल के गिरते ही यह दिव्यदेह धारण कर स्वर्ग गया
[पद्म.उ.१९१] ।