जयविजय n. कर्दम प्रजापति को देवहूती से उत्पन्न पुत्र । ये बडे विष्णुभक्त थे । हमेशा अष्टाक्षर मंत्र का जप तथा विष्णु का व्रत करते थे । इससे इन्हें विष्णु का साक्षात्कार होता था । ये यज्ञकर्म में भी कुशल थे । एकबार मरुत्त राजा के निमंत्रण से, ये उसके यज्ञ के लिये गये । उसमें जय ‘ब्रह्मा,’ तथा ‘विजय’ याजक हुआ । यज्ञसमाप्ति पर राजा ने इन्हें विपुल दक्षिणा दी । वह दक्षिणा ले कर घर आने के बाद, दक्षिणा का बँटवारा करने के बारे में इनमें झगडा हुआ । अन्त में जय ने विजय को, ‘तुम मगर बनोगे’ ऐसा शाप दिया । विजय ने भी जय को, ‘तुम हाथी बनोगे’ ऐसा शाप दिया । परंतु शीघ्र ही कृतकर्म के प्रति पश्चात्ताप हो कर, यह दोनों विष्णु की शरण में गये । विष्णु ने आश्वासन दिया, ‘शाप समाप्त होते ही मैं तुम्हारा उद्वार करुँगा’। शाप के अनुसार, एक मगर, तथा दूसरा हाथी बन कर, गंडकी के किनारे रहने लगे । बाद मे एक दिन हाथी कार्तिकस्नान के हेतु से गंडकी नदी में उतरा । मगरने उसका पैर पकड लिया । तब इसने विष्णु को पुकारा। विष्णु ने आकर दोनों का उद्धार किया । उन्हें वह विष्णुलोक ले गया । पश्चात् जय तथा विजय विष्णु के द्वारपाल
[स्कंद.२.४.२८] ;
[पद्म.उ. १११-११२] । बाद में सनकादि देवर्षियो को, विष्णुदर्शन के लिये इन्होंने जाने नही दिया । अतः उनके शाप से, वैकुंठ से पतित हो कर, ये असुरयोनि में गये । इनमें से जय ने हिरण्याक्ष का जन्म लिया । पृथ्वी सिर पर धारण कर के वह उसे पाताल ले गया । तब वराह अवतार धारण कर के, विष्णु ने इसक वध किया एवं पृथ्वी की रक्षा की
[भा.३.१६.३२] ;
[पद्म. उ.२३७] । अश्वियों ने, ‘तुम पृथ्वी पर तीन बार जन्म लोगे’ ऐसा शाप इन्हे दिया । इन्होने भी अश्वियों को, ‘तुम भी एक बार पृथ्वी पर जन्म लोगे’ ऐसा शाप दिया । शाप के अनुसार, जयविजय ने क्रमशः हिरण्याक्ष तथा हिरण्य कश्यपु के रुप में जन्म लिया, बाद में रामावतार के समय रावण तथा कुंभकर्ण, तथा कृष्णावतार में शिशुपाल तथा वक्रदन्त नामों से ये प्रसिद्ध हुएँ ।