गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुदेर्देवो महेश्वरः । गुरु साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥
'गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महेश्वर हैं और गुरु ही साक्षात् परब्रह्म हैं । उन गुरुको नमस्कार है ।'
जीवनमें किसीपर श्रद्धा हो, किसीपर भी पूर्ण विश्वात हो तो बस, बेड़ा पार ही समझिये । किसीके वचनको माननेकी इच्छा हो, आज्ञापालनकी दृढता हो तो उसके लिये जीवनमें कौन सा काम दुर्लभ है । सबसे अधिक श्रद्धेय, सबसे अधिक विश्वसनीय, सबसे अधिक प्रेमास्पद श्रीसदगुरु ही हैं, जो निरन्तर शिष्यका अज्ञान दूर करनेके लिये मनसे चेष्टा करते रहते हैं । गुरुके बराबर दयालु, उनके बराबर हितैषी जगतमें कौन होगा । जिन्होंने भी कुछ प्राप्त किया है, गुरुकृपासे ही प्राप्त किया है ।
प्राचीन कालमें आजकी भाँति विद्यालय, हाईस्कूल और पाठशालाएँ तथा काँलेज नहीं थे । विद्वान् तपस्वी गुरु जंगलोंमें रहते थे, वही शिष्य पहूँच जाते थे । वहाँ भी कोई नियमसे कापी-पुस्तक लेकर चार छः घंटे पढा़ई नहीं होती थी । गुरु अपने शिष्योंको कम सौंप देते थे, स्वयं भी काम करते थे । काम करते - करते बातों ही बातोंमें वे अनेकों प्रकारकी शिक्षा दे देते थे । और किसीपर गुरुकी परम कृपा हो गयी तो उसे स्वयं ही सब विद्याएँ आ जाती थी ।
ऐसे ही एक आयोदधौम्या नामके ऋषि थे । उनके यहाँ आरुणि, उपमन्यु और वेद नामके तीन विद्यार्थी पढ़ते थे । धौम्य ऋषि बड़े परिश्रमी थे, वे विद्यार्थियोंसे खुब काम लेते थे । किंतु उनके विद्यार्थी भी इतने गुरुभक्त थे किस गुरुजी जो भी आज्ञा देते, उसका पालन वे बड़ी तत्परताके साथ करते । कभी उनकी आज्ञाका उल्लंघन न करते । उनके कड़े शासनके ही कारण अधिक विद्यार्थी उनके यहाँ नहीं आये । पर जो आये, वे तपानेपर खरा सोना बनकर ही गये । तीनों ही विद्यार्थी आदर्श गुरुभक्त छात्र, निकले । एक दिन खुब वर्षा हो रही थी, गुरुजीने पात्र्चालदेशके आरुणिसे कहा - ' बेटा आरूणि । तुम अभी चले जाओ और वर्षामें ही खेतकी मेड़ बाँध आओ, जिससे वर्षाका पानी खेतके बाहर न निकलने पाये । सब पानी बाहर निकल जायगा तो फसल अच्छी नहीं होगी । पानी खेतमें ही सुखना चाहिये ।'
गुरुकी आज्ञा पाकर आरुणि खेतपर गया । मुसलधार पानी पड़ रहा था । खेतमें खूब पानी भरा था, एक जगह बड़ी ऊँची मेड़ थी । वह मेड़ पानीके वेगसे बहुत कट गयी थी । पानी उसमेंसे बड़ी तेजीके साथ निकल रहा था । आरुणिने फावड़ीसे इधर -उधरकी बहुत - सी मिट्टी लेकर उस कटी हुई मेड़पर डाली । जबतक वह मिट्टी रखता और दुसरी मिट्टि रखनेके लिये लाता, तबतक पहली मिट्टी बह जाती । उसने जी तोड़कर परिश्रम किया, किंतु जलका वेग इतना तीव्र था कि वह पानीको रोक न सका । तब उसे बड़ी चिन्ता हुई । उसने सोचा गुरुकी आज्ञा हैं कि पानी खेतसे निकलने न पाये और पानी निरन्तर निकल रहा है । अतः उसे एक बात सुझी । फावड़ेको रखकर वह कटी हुई मेड़की जगह स्वयं लेट गया । उसके लेटनेसे पानी रुक गया । थोड़ी देरमें वर्षा भी बंद हो गयी । किंतु खेतमें पानी भरा हुआ था । वह यदि उठता है तो सब पानी निकल जाता है, अतः वह यदि उठता है तो सब पानी निकल जाता है, अतः वह वहीं चुपचाप पानी रोके पड़ा रहा । वहाँ पड़े - पड़े उसे रात्रि हो गयी । अन्तःकरणसे सदा भलाईमें निरते रहनेवाले गुरुने सन्ध्याको आपने सब सब शिष्योंको बुलाया उनमें आरुणि नहीं था । गुरुजीने सबसे पूछा - ' आरुणि कहाँ गया ?' शिष्योंने कहा - ' भगवन् ! आपने ही तो उसे प्रातः खेतकी भेड़ बनाने भेजा था ।' गुरुने सोचा - ' ओहो ! प्रातह्कालसे अभीतक नहीं आया ! चलो, चलें, उसका पता लगायें ।' यह कहकर वे शिष्योंके साथ प्रकाश लेकर आरुणिकी खोजमें चले । उन्होंने इधर उधर बहुत ढूँढा, किंतु आरुणि कहीं दीखा ही नहीं । तब गुरुजीने जोरोंसे खोज कर रहे हैं ।' दुसरे आरुणिने पड़े ही पड़े उत्तर किया- ' गुरुजी ! मैं यहाँ मेड़ बना हुआ पड़ा हूँ ।' आवाजके सहारे गुरुजी वहाँ पहूँचे । उन्होंने जाकर देखा कि आरुणि सचमुच भेड़ बना पड़ा है और पानीको रोके हुए है । गुरुजीने कहा- पड़ा है और पानीको रोके हुए है । गुरुजीने कहा - ' बेटा ! अब तुम निकल आओ ।' गुरुजीका आज्ञा पाकर आरुणि मेड़को काटकर निकल आया, गुरुजीका हृदय भर आया । उन्होंने अपने प्यारे शिष्यको छातीसे चिपटा लिया, प्रेमसे उसका माथा सूँधा और आशीर्वाद दिया - ' बेटा ! मैं तुम्हारी गुरुभक्तिसे बहुत प्रसन्न हूँ । तुम्हें बिना पढ़ेव ही सब विद्या आ जायगी, तुम जगत्में यशस्वी और भगवभ्दक्त होओगे । आजसे तुम्हारा नाम उद्दालक हुआ ।' वे ही आरुणि मुनि उद्दालकके, नामसे प्रसिद्ध हुए, जिनका संवाद उपनिषद्में आता है ।