एक बहुत ही धर्मात्मा राजा भगवानका बड़ा भक्त था । धर्मपूर्वक राज्य करनेपर यथाकाल उसकी मृत्यु हो गयी । पुण्यात्मा होनेपर भी किसी एक पापका फल भुगतानेके लिये यमदूत उसे सम्मानपूर्वक नरकमार्गसे ले गये । नरलोंका दृश्य देखकर राजाका हदय दहल गया । वहाँके पीड़ित प्राणियोंका चीत्कार उससे सुना नहीं जाता था । वहाँका दृश्य देखकर ज्यों ही वह यमसेवकोंके साथ नरक छोड़कर जाने लगा, त्यों ही नरककी असह्य पीड़ा भोगनेवाले सब - के - सब नरकवासी बड़े जोरोंसे चिल्ला उठे और करुण विलाप करते हुए पुकारकर राजासे कहने लगे - ' राजन् ! आप कृपा कीजिये । घड़ीभर तो आप यहाँ और ठहर जाइये । आपके अङ्गसे स्पर्श करके आनेवाली हवासे हमें बड़ा ही सुख मिल रहा है, इस सुखद - शीतल वायुके स्पर्शमात्रसे हमारी सारी नारकी पीड़ा और जलन एकदम चली गयी है और हमपर मानो आनन्दकी वर्षा हो रही हैं; दया कीजिये ।' राजाने यह सुनकर यमदूतोंसे पूछा - ' मेरे यहाँ रहनेसे इन लोगोंको सुख मिलनेका क्या कारण है ? मैंने ऐसा कौन सा कार्य किया है, जिसके कारण इनपर आनन्दकी वर्षा हो रही है ?' यमदूतोंने कहा -- ' महाराज ! आपने पितृ, देवता, अतिथि, और आश्रितोंका भरण - पोषण पहले करके उनसे बचे हुए द्रव्यसे अपना मरण - पोषण किया है तथा श्रीहरिका स्मरण किया है, इसीलिये आपके शरीरसे स्पर्श की हुई हवासे इन पापियोंका नरक - यातना सहज ही नष्ट हो रही है । आपके तेज और आपके दर्शनसे पापियोंको पीड़ा पहुँचानेवाले यमराजके अस्त्र - शस्त्र, तीक्ष्ण चोंचवाले पक्षी, नरकाग्नि आदि सभी तेजहत होकर नृदु हो गये हैं; इसीलिये नरकवासी पापियोंको इतना सुख मिल रहा है ।' यह सुनकर राजाने कहा -- ' इनके सुखसे मुझे बड़ा सुख मिल रहा है; मेरी ऐसी मान्यता है कि आर्त प्राणियोंकी रक्षा करनेमें जो सुख होता है, स्वर्ग या ब्रह्म लोकमें भी वैसा सुख नहीं होता । यदि मेरे यहाँ रहनेसे इनकी पीड़ा दूर होती है तो दूतो ! मै तो पत्थरकी तरह अचल होकर यही रहूँगा ।' राजाकी यह बात सुनकर दूतोंने कहा -- ' चलिये, यह तो पापियोंके नरकभोगका स्थान नरक है । आप यहाँ क्यों रहेंगे आप दिव्यलोकोंमें अपने पुण्योंका फल भोगिये ।'
राजाने कहा - ' जबतक इनका दुःखोंसे छुटकारा नहीं होगा, तबतक मैं यहाँसे नहीं हटूँगा; क्योंकि मेरे यहाँ रहनेसे इन्हें सुख मिल रहा है । आर्त और आतुर होकर शरण चाहनेवाले शत्रुपर भी जो मनुष्य अनुग्रह नहीं करता, उसके जीवनको धिक्कार है । दुखियोंके दुःख दूर करनेमें जिसका मन नहीं है, उसके यज्ञ, दान, तप आदि कुछ भी इस लोक और परलोकमें सुखके कारण नहीं होते । बालक, आतुर, दुखी और वृद्धोंके प्रति जिसका चित्त कठोर है, मेरी समझमें वह मनुष्य नहीं, राक्षस है । इन लोगोंके पास रहनेसे मुझे नारकीय अग्निके तापसे अथवा भूख - प्यासके कारण बेसुध कर देनेवाला महान् दुःख क्यों न भोगना पड़े, इनको सुखी करनेसे मिले हुए उस दुःखको मैं अपने लिये स्वर्गसुखसे भी बढ़कर समझूँगा । मुझ एकके दुःख पानेसे यदि इतने आर्त जीवोंको सुख होता है, तो इससे बढ़कर मुझे और क्या लाभ होगा ।'
यमदूतोंने कहा - ' महाराज ! देखिये, ये साक्षात् धर्म और देवराज इन्द्र आपको ले जानेके लिये यहाँ आये हैं; अब आपको जाना ही पड़ेगा, अतएव पधारिये ।' धर्मने कहा -- ' राजन् ! आपने सम्यक् प्रकारसे मेरी उपासना की है, इसीलिये मैं स्वयं आपको स्वर्गमें ले जाऊँगा; आप डर न करें, विमानपर जल्दी सवार हों ।' राजाने कहा -- ' धर्मराज ! हजारो जीव नरकमें दुःख पा रहे हैं और मेरे यहाँ रहनेसे इनका दुःख दूर होता है; ऐसी हालतमें मैं यहोंसे नहीं जा सकता ।' इन्द्र बोले -- ' राजन् ! अपने - अपने कर्मफलसे ये पापीलोग नरक भोग रहे हैं । आपको भी अपने कर्मोका फल भोगनेके लिये स्वर्गमें चलना चाहिये । इन नरकवासियोंपर दया करनेसे आपका पुण्य लाखों गुना और भी बढ़ गया है । अतएव इस पुण्यफलके भोगके लिये आप अवश्य स्वर्ग चलिये ।' राजाने कहा -- ' जब मेरे पुण्यसे इनको सुख मिलता है, तब मैं अपना सब पुण्य इनको देता हूँ । इस पुण्यसे ये सारे यातनाभोगी पापी नरकसे छूट जायँ । मैं यही रहूँगा !' इन्द्रने कहा -- ' महाराज ! आपके पुण्यदानसे देखिये, सारे पापी नरकसे छूटकर विमानोंपर सवार होकर जा रहे हैं । पर इस पुण्यदानसे आपका पुण्य इतना बढ़ गया है कि अब आप और भी ऊँची गतिमें जायँगे ।'
राजापर पुष्पवृष्टि होने लगी और इन्द्र उन्हें विमानपर चढ़ाकर स्वर्गमें ले गये । नरकके सारे प्राणियोंका उद्वार हो गया ।