रामकृष्ण

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


यह मनुष्य - जीवन बड़ा दुर्लभ है । इसकी प्राप्ति संसारका सुख भोगनेके लिये नहीं, भगवानको प्राप्त करके संसारबन्धनसे मुक्त हो जानेके लिये ही हुई है । वे लोग बड़े भाग्यशाली, हैं जो भगवानके लिये लौकिक सुखोंपर लात मारकर कठिन - से - कठिन तपस्यामें प्रवृत्त हो जाते हैं । प्राचीन कालमें विप्रवर रामकृष्ण मुनि ऐसे ही महात्मा हो गये हैं । वे महान् सत्यवादी, शीलवान्, श्रेष्ठ भगवद्भक्त, समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाले, शत्रु और मित्रके प्रति समान भाव रखनेवाले, जितात्मा, जितेन्द्रिय और तपस्वी तथा ब्रह्मनिष्ठ एवं तत्त्ववेत्ता थे । एक दिन भगवानके सच्चिदानन्दमय सगुण साकार विग्रहका दर्शन करनेके लिये वे वेङ्कटाचलके मनोरम शिखरपर गये और एक सरोवरके तटपर तपस्या करने लगे । वे अपने सब अङ्गोंको स्थिर करके खड़े रहते थे । इस प्रकार कई सौ वर्ष व्यतीत हो गये । उनके शरीरपर वल्मीक ( बाँबी ) की मिट्टी जम गयी, जिससे उनके सब अङ्ग आच्छादित हो गये । तो भी महामुनि रामकृष्ण तपस्यासे भय हो गया । वे यह नहीं जानते थे कि वीतराग महात्माकी दृष्टिमें स्वर्गके समस्त भोग सूकरविष्ठासे भी गये बीते हैं । उन्होंने अपने स्वभावके अनुसार महर्षिको तपस्यासे विचलित करनेके लिये घोर प्रयत्न किया । मेघोंको भेजकर उनके ऊपर बड़े वेगसे मूसलधार वृष्टि करवायी । लगातार सात दिनोंतक वर्षा होती रही, फिर भी मुनिने अपने नेत्र बंद करके वर्षाके दुःसह कष्टको सहन किया । तत्पश्चात् बड़ी भारी गड़गड़ाहटके साथ बिजली ठीक वल्मीकके ऊपर गिरी । वल्मीक ढह गया परंतु मुनिपर आँच नहीं आयी । रामकृष्णने आँख खोलकर देखा तो सामने शङ्ख - चक्र - गदाधारी भगवान् विष्णु विराजमान हैं । वे गरुड़पर आरुढ़ थे । गलेमें मनोहर वनमाला उनकी शोभा बढ़ा रही थी । उनका त्रिभुवनमोहन रुप देखकर रामकृष्ण मुनि कृतार्थ हो गये । उनकी आँखें एकटक होकर भगवानकी रुपसुधाका पान करने लगीं । भगवानने मुनिके कानोंमें अमृत उँड़ेलते हुए मधुर वचनोंमें कहा - ' रामकृष्ण ! तुम वेदशास्त्रोंके पारङ्गत विद्वान् और तपस्याकी निधि हो । तुम्हारे इस दुष्कर तपसे मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ । आज मेरे प्रादुर्भावका दिन है, सूर्य मकरराशिपर विराजमान हैं, महातिथि पूर्णिमाका भी योग आ पहुँचा है । साथ ही पुष्यनक्षत्रका भी सुयोग आ गया है । आजके दिन तुम्हें स्त्रानपूर्वक मेरा दर्शन हुआ है, अतः तुम्हारा सम्पूर्ण मनोरथ सफल होगा । इस शरीरका अन्त होनेपर तुम मेरे योगिजनदुर्लभ वैकुण्ठ धाममें निवास करोगे । आजसे यह सरोवर तुम्हारे पवित्र नामकी स्मृतिसे युक्त होकर ' कृष्णतीर्थ ' के नामसे विख्यात होगा । तुम्हारे - जैसे संतपुरुष ही महातीर्थरुप हैं । उनके सम्पर्कसे ही तीर्थोंमे तीर्थत्व प्रकट होता है । जो लोग यहाँ स्नान करेगे, वे भी सब पापोंसे मुक्त होकर उत्तम गतिके भागी होगे ।'

यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । आज भी वह महातीर्थ मुनिवर रामकृष्णके भक्तिभावका पवित्र संस्मरण कराता हुआ वेंकटगिरिकी शोभा बढ़ा रहा है ।

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Last Updated : April 29, 2009

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