महर्षि ऋभु ब्रह्माके मानस पुत्रोंमेंसे एक हैं । ये स्वभावसे ही ब्रह्मतत्त्वज्ञ तथा निवृत्तिपरायण भक्त हैं । तथापि सदगुरुमर्यादाकी रक्षाके लिये इन्होंने श्रद्धाभक्तियुक्त होकर अपने बड़े भाई सनत्सुजातकी शरण ली थी । उनसे सम्प्रदायगत मन्त्र, योग और ज्ञान प्राप्त करके ये सर्वदा सहज स्थितिमें ही रहने लगे । मल, विक्षेप तथा आवरणसे रहित होकर ये जहाँ कहीं भी पड़े रहते । शरीरके अतिरिक्त इनकी कोई कुटी नहीं थी ।
यों ही विचरते हुए महर्षि ऋभु एक दिन पुलस्त्य ऋषिके आश्रमके समीप जा पहुँचे । वहाँ पुलस्त्यका पुत्र निदाघ वेदाध्ययन कर रहा था । निदाधने आगे आकर नमस्कार किया । उसके अधिकारको देखकर महर्षि ऋभुको बड़ी दया आयी । उन्होंने कहा - ' इस जीवनका वास्तविक लाभ आत्मज्ञान प्राप्त करना है । यदि वेदोंको सम्पूर्णतः रट जाय और वस्तुतत्त्वका ज्ञान न हो तो वह किस कामका है ? निदाघ ! तुम आत्मज्ञानका सम्पादन करो । '
महर्षि ऋभुकी बात सुनकर उसकी जिज्ञासा जग गयी । उसने इन्हींकी शरण ली । अपने पिताका आश्रम छोड़कर वह इनके साथ भ्रमण करने लगा । उसकी सेवामें तन्मयता और त्याग देखकर महर्षिने उसे तत्त्वज्ञानका उपदेश किया । उपदेशके पश्चात् आज्ञा की कि ' निदाघ ! जाकर गृहस्थधर्मका अवलम्बन लो । मेरी आज्ञाका पालन करो ।'
गुरुदेवकी आज्ञा पाकर निदाघ अपने पिताके पास आया । उन्होंने उसका विवाह कर दिया । इसके पश्चात् देविका नदीके तटपर वीरनगरके पास एक उपवनमें निदाघने अपना आश्रम बनाया और वहाँ वह अपनी पत्नीके साथ गार्हत्ध्यका पालन करने लगा । कर्मपरायण हो गया ।
बहुत दिनोंके बाद ऋभुको उसकी याद आयी । अपने अङ्गीकृत जनका कल्याण करनेके लिये वे वहाँ पहुँच गये । महापुरुष जिसे एक बार स्वीकार कर लेते हैं, उसे फिर कभी नहीं छोड़ते । वे बलिवैश्वदेवके समय निदाघके द्वारपर उपस्थित हुए । निदाघने उन्हें न पहचाननेपर भी गृहस्थधर्मानुसार अतिथिको भगवद्रूप समझकर उनकी रुचिके अनुसार भोजन कराया । अन्तमें उसने प्रश्न किया कि ' महाराज ! भोजनसे तृप्त हो गये क्या ? आप कहाँ रहते हैं ? कहाँसे आ रहे हैं ? और किधर पधारनेकी इच्छा है ?' महर्षि ऋभुने अपने कृपालु स्वभावके कारण उपदेश करते हुए उत्तर दिया - ' ब्राह्मण ! भूख और प्यास प्राणोंको ही लगती है । मैं प्राण नहीं हूँ । जब भूख - प्यास मुझे लगती ही नहीं, तब तृप्ति - अतृप्ति क्या बताऊँ ? स्वस्थता और तृप्ति मनके ही धर्म हैं । आत्मा इनसे सर्वथा पृथक् है । रहने और आने - जानेके सम्बन्धमें जो पूछा, उसका उत्तर सुनो । आत्मा आकाशकी भाँति सर्वगत है । उसका आना - जाना नहीं बनता । मैं न आता हूँ, न जाता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता ही हूँ । तृप्ति - अतृप्तिके हेतु ये सब रस आदि विषय परिवर्तनशील हैं । कभी अतृप्तिकर पदार्थ तृप्तिकर हो जाते हैं और कभी तृप्तिकर अतृप्तिकर हो जाते हैं । अतः विषमस्वभाव पदार्थोंपर आस्था मत करो; इनकी ओरसे दृष्टि मोड़कर त्रिगुण, व्यवस्था और समस्त अनात्म वस्तुओंसे ऊपर उठकर अपने आपमें स्थिर हो जाओ । ये सब संसारी लोग मायाके चक्करमें पड़कर अपने स्वरुपको भूले हुए हैं । तुम इस मायापर विजय प्राप्त करो ।' महर्षि ऋभुके इन अमृतमय वचनोंको सुनकर निदाघ उनके चरणोंपर गिर पड़े । फिर उन्होंने बतलाया कि ' मैं तुम्हारा गुरु ऋभु हूँ ।' निदाघको बड़ी प्रसन्नता हुई, महर्षि चले गये ।
बहुत दिनोंके पश्चात् फिर महर्षि ऋभु वहाँ पधारे । संयोगवश उस दिन वीरपुरनरेशकी सवारी निकल रही थी । सड़कपर बड़ी भीड़ थी । निदाघ एक ओर खड़े होकर भीद हट जानेकी प्रतीक्षा कर रहे थे । इतनेमें ही महर्षिने इनके पास आकर पूछा - ' यह भीड़ कैसी है ?"
निदाघने उत्तर दिया - ' राजाकी सवारी निकलनेके कारण भीड़ है ।' उन्होंने पूछा - ' तुम तो जानकार जान पड़ते हो । मुझे बताओ इनमें कौन राजा है और कौन दूसरे लोग हैं ?' निदाघने कहा - ' जो इस पर्वतके समान ऊँचे हाथीपर सवार हैं, वे राजा हैं । उनके अतिरिक्त दूसरे लोग हैं ।' ऋभुने पूछा - ' महाराज ! मुझे हाथी और राजाका ऐसा लक्षण बताओ कि मैं समझ सकूँ कि ऊपर क्या है ? नीचे क्या है ?' यह प्रश्न सुनकर निदाघ झपटकर उनपर सवार हो गये और कहा - ' देखो, मैं राजाकी भाँति ऊपर हूँ । तुम हाथीके समान नीचे हो । अब समझ जाओ राजा और हाथी कौन हैं ।' महर्षि ऋभुने बड़ी शान्तिसे कहा - ' यदि तुम राजा और मैं हाथीकी भाँति स्थित हूँ तो बताओ तुम कौन हो और मैं कौन हूँ ?' यह बात सुनते ही निदाष उनके चरणोंपर गिर पड़े, वह हाथ जोड़कर कहने लगे - ' प्रभो ! आप अवश्य ही मेरे गुरुदेव ऋबु हैं । आपके समान अद्वैतसंस्कार - संस्कृतचित्त और किसीका नहीं है । आप अवश्य - अवश्य मेरे गुरुदेव हैं, मैंने अनजानमें बड़ा अपराध क्षमा करें ।' ऋभुने हँसते हुए कहा -
' कौन किसका अपराध करता है ? यदि एक वृक्षकी दो शाखाएँ परस्पर रगड़ खायँ तो उनमें किसका अपराध है ? मैंने तुम्हें पहले व्यतिरेक मार्गसे आत्माका उपदेश किया था । उसे तुम भूल गये । अब अन्वय - मार्गसे किया है । इसपर परिनिष्ठित हो जाओ । यदि इन दोनों मागोंपर विचार करोगे तो संसारमें रहकर भी तुम इससे अलिप्त रहोगे ।' निदाघने उनकी बड़ी स्तुति की । वे स्वच्छन्दतया चले गये ।
ऋभुकी इस क्षमाशीलताको सुनकर सनकादि गुरुओंको बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने ब्रह्माके सामने इनकी महिमा और इनका नाम क्षमाका एक अक्षर लेकर ऋभुक्ष रख दिया । तबसे साम्प्रदायिक लोग इन्हें ऋभुक्षानन्दके नामसे स्मरण करते हैं । इनकी कृपासे निदाघ आत्मनिष्ठ हो गये । आज भी महर्षि ऋभु हमारे पास न जाने किस रुपमें आते होंगे । उन्होंने न जाने निदाघ - जैसे कितनोंको संसारसागरसे पार उतारा होगा ।