आपत्काल स्वदेश और जन को जैसा मिला है अभी
वैसा और कभी न था.समय ने क्या-क्या दिखाया नहीं.
सारा देश विवर्ण है, विकल है, अत्यंत उद्विग्न है,
लांछा के हतदर्प है, व्यथित है, विक्षुब्ध है, श्रांत है.
सोचा है, विनियोग आज अपना कैसे, कहाँ, क्या करूँ,
क्या बोलूँ, हृदयानुसारि भाषा मेरी अभी स्तब्ध है,
स्तब्धीभाव असंगतार्थ बन के बाधा दिखाता हुआ
प्राणों को अवसन्न छॊड़ कर के जाना कहाँ व्यस्त है.
ऎसे में कवि, आज जन्मदिन की क्या भेंट आगे धरूँ,
सूने में जिसको सहेज कर ही उल्लास पाऊँ. इसे
भावोच्छ्वास न मानना, हृदय का एकांत आह्वान है,
अंतर्वृत्ति दुराव छोड़ सहसा आई यहाँ शब्द में.
तारुण्याश्रित प्राण मार्ग अपने नेत्रों अभी देखते
बैठे हैं. उन को तुरंत रण का आदेश ही चाहिए,
वाणी की कवि की नवीन महिमा, उज्जीवनी शक्ति, से
लाएगी उन को सहास पथ में साक्षी जहाँ कर्म है.
संकल्पाश्रित आत्मतेज जग में जागे, मुमूर्षा हटे,
प्राणों का अवसाद जाए. मन में उत्साह का, मान का,
आ जाए वह ओज फिर से, मानी जिसे प्राण से,
ऊँचा आसन दे शरीर तज के मार्तंडभेदी रहे.
बोएँगे हम कर्म-क्षेत्र अपना, आत्मा नया बीज है,
सींचेंगे लग के प्ररोह इस के, थोड़ा नहीं रक्त है.
कोई हो अब और आक्रमण का दुर्योग देंगे नहीं,
खेती मानव की हरी लहलही फैले बढ़े प्यार से.
ऊषा का अनुराग पूर्व नभ से हेमाद्री के श्रंग को,
वर्णालंकृति दे, समस्त वसुधा सुस्नात हो;मुक्ति से,
अन्वेषी अभिमान मान अपना पाएँ. सुधि तृप्त हों,
प्राणों को यह ज्योति दिव्य कर दे, सद्भाव धारा बहे.
गाते हैं हम गान नित्य सब के, पाया इन्हें खोज के,
रक्षा में इनकी मनुष्य अपना होगा खड़ा दर्प से,
ये ही जीवन स्रोत हैं, चयन हैं अव्यर्थ संधान के,
संधानोत्सुक प्राण स्पर्श करके आएँ, सुधासार लें.
काव्यों का अनुगान भावमय हो, पाथेय हो, तेज हो,
सोतों का चुपचाप हाथ पकड़े, लाए उन्हें क्षेत्र में.
द्र्ष्टा हो तुम, मौन गान मन के देते रहे हो यहाँ
प्राणाकार. अभिन्न भाव भर के फूलो फलो वृक्ष से.