शिवगीता - अध्याय ३

विविध गीतामे प्राचीन ऋषी मुनींद्वारा रचा हुवा विश्व कल्याणकारी मार्गदर्शक तत्त्वोंका संग्रह है।

Gita has the essence of Hinduism, Hindu philosophy and a guide to peaceful life and ever lasting world peace.


अगस्त्यजी बोले कामक्रोधादिसे पीडित हो मनुष्य हितकारी वचन नही सुनता, उसको हितकारी वचन ऐसे अच्छे नही लगते जैसे मरणशीलको औषधि अच्छी नही लगती ॥१॥

जिस सीता को मायावी दैत्य सागरके बीचमें ले गया है, हे राम! वह तुम्हारे निकट अब किस प्रकारसे आ सकती है ॥२॥

जिसके द्वारपर वानरोंके यूथोंके समान सब देवता बांध लिये गये है । देवताओंकी स्त्री जिसके यहां चमर ढोरती है ॥३॥

जो शिवजी के वर से गर्वित हो सम्पूर्ण त्रिलोकी को भोगता है और भय से रहित है उसे तुम कैसे जीतोगे ॥४॥

इन्द्रजित भी उसका पुत्र शिव के वरदान से गर्वित है उसके आगे से देवता संग्राम में बहुतबार भाग गये है ॥५॥

देवताओं को भय देनेवाला जिसका भाई कुम्भकर्ण बड़ा भयंकर है और अनेक प्रकार दिव्यास्त्र धारण करनेवाला चिरंजीवी विभीषण है ॥६॥

देव और दानवोंको दुर्गम जिसका लंकानाम दुर्ग है, और करोड़ो जिसके यहां चतुरंगिणी सेना है ॥७॥

हे राजन्! फिर अकेले तुम उसे कैसे जीतोगे, तुम्हारी यह बात ऐसी है, कि जैसे कोई बालक चन्द्रमाको हाथसे लेना चाहे इसी प्रकार तुम काम से मोहित होकर उसके जीतने की इच्छा करते हो ॥८॥

श्रीरामचन्द्रजी बोले हे मुनिश्रेष्ठ! मै क्षत्रिय हूं और मेरी भार्या राक्षसने हरण कर ली है, जो मै उसे न मारूंगा तौ मेरे जीने से क्या फल है ॥९॥

इस कारण तुम्हारे तत्वबोधसे मुझे कुछभी प्रयोजन नही है, यह कामक्रोधादिक मेरे शरीरको भस्म किये डालते है ॥१०॥

और अपनी प्रियाके हरण होने और शत्रुसे पराभव होनेसे अहंकारभी नित्य और मेरे जीवनको हरण करनेको उद्यत है ॥११॥

हे मुनिश्रेष्ठ! जिसको तत्त्वज्ञान की इच्छा हो वह लोकके पुरुषों में नीच है । इस कारण सागर लंघकर युद्धमे उसके मारने के उपायको आप कहिये आपसे श्रेष्ठ और कोई मेरा गुरु नही ॥१२॥

अगस्त्य उवाच ॥

अगस्त्यजी बोले । जो ऐसी इच्छा है, तो पार्वतीके पति शिव अविनाशी की शरण में जाओ, वह भगवान प्रसन्न होकर तुमको मन वांछित फल देंगे ॥१३॥

इन्द्रादि देवता हरि और ब्रह्माभी जिसको नही जीतसके वह शिवजीके अनुग्रह बिना तुमसे कैसा मारा जायगा ॥१४॥

इस कारण विरजामार्गसे मै तुमको दीक्षा देता हूँ इस मार्ग से तुम मनुष्यपन छोड़कर तेजोमय हो जाओगे ॥१५॥

जिसके प्रतापसे युद्धमे शत्रुओंको मारकर सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त हो जाओगे और सम्पूर्ण धरामंडलको भोगकर अन्तमें शिवलोकको जाओगे ॥१६॥

सूत उवाच ।

सूतजी बोले, तब रामचन्द्रजी मुनिश्रेष्ठको दंडवत प्रणाम करके दुःख त्याग प्रसन्नमन हो बोले ॥१७॥

श्रीराम उवाच ।

श्रीरामचन्द्रजी बोले - हे मुने ! मै कृतार्थ हो गया, मेरे कार्य सिद्ध होगये जब समुद्र पीनेवाले आप मेरे ऊपर प्रसन्न हो तो मुझे क्या दुर्लभ है । इस कारण हे मुनिश्रेष्थ! आप मुझसे विरजादीक्षाकी विधि कहिये ॥१८॥

अगस्त्य उवाच ।

अगस्त्यजी बोले, शुक्लपक्षकी चौदस अष्टमी वा एकादशी सोमवार अथवा आर्द्रा नक्षत्रमें यह कार्य आरंभ करना ॥१९॥

जिनको वायुश्रेष्ठ, रुद्र, अग्नि, परमेश्वर, निरंतर जगत के नियंता सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मादिकोंसे भी परे शिव कहते है ॥२०॥

जो ब्रह्मा, विष्णु, अग्नि, वायु इनके भी उत्पन्न करनेवाले है इस प्रकार सदाशिवका ध्यान करके, अग्निबीजसे गृहाग्निका ध्यान कर देह उत्पत्तिके कारणभूत, जो पंचमहाभूत है, वह वायुबीजसे पृथक है, इस प्रकार भावना करके ॥२१॥

उन महाभूतों के गुणका क्रमसे ध्यान करे कि, गृहाग्निसे दग्ध होनेवाली भावना करावै, उसका प्रकार-मात्रा अर्थात पंच महाभूतोंके गुण- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द यह पांच है पृथ्वीमेम पांचही गुण रहते है, जलमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस यह चार तेज में शब्द, स्पर्श, रूप यह तीन, वायु मे शब्द और स्पर्श यह दो और आकाश मे शब्द यह एक ही गुण है । इसकी उत्पत्ति का क्रम आकाशसे वायु, वायुसे तेज, तेजसे जल, जलसे पृथ्वी उत्पन्न होती है और इससे विपरीत अर्थात् पृथ्वी जलमे, जल तेजमें, तेज वायुमें, वायु आकाशमें लय हो जाता है अधिक अधिक गुण के भूत न्यून न्यून गुणवाले भुतों मे लय हो जाते है, और इन सबकी अमात्रा जिसका गुण नही, उन अहंकारादिकोंको लय करै अर्थात् पंचमहाभूतोंका अहंकारमें, अहंकारका महतत्त्वमें, महतत्त्वका मायामें, मायाका सबके आधारभूत, परमात्मामें लय करे फिर अमृतबीजसे लयके विपरीत क्रम करके यह देहोत्पति विषयमें प्रवृत्त है ऐसी भावना करके मै दिव्यदेह हू और पूर्वदेहके उत्पन्न करने हारे सब गुण और द्रव्यका अग्निबीजसे दाह करके उसका परमात्मा मे लयकरके अमृतबीजसे पुनरुज्जीवन करके यह देह अमृत और दिव्य है, ऐसी भावना करै । इस प्रकार भूतशुद्धि करके पाशुपतव्रतका आरंभ करै ॥२२॥२३॥

फिर प्रातःकालही मै पाशुपतव्रतको करूंगा ऐसा संक्षेपसे संकल्प करके अपनी शाखा तथा गृह्यसूत्र से अग्नि स्थापन करे ॥२४॥

उसी दिन व्रत रखकर पवित्र हो श्वेतवस्त्र धारण करे शुक्ल यज्ञोपवीत और शुक्लमाला पहरे ॥२५॥

अन्तःकरण एकाग्र कर (प्राणापानव्यानोदानसमाना मे शुद्ध्यन्ताम् तथा (ज्योतिरहं विरजा विपाप्मा भूयासं स्वाहा) इत्यादि विराजामंत्रके अनुवाकपर्यन्त समिधा आज्य और चरुसे हवन करै ॥२६॥

हवनके अनन्तर (यातेअग्नियज्ञियातनूः) इस मंत्रसे अग्नि कोआत्मामें आरोपण करके अग्निके भस्मको (अग्निरिति भस्म इत्यादि) मंत्रोसे अभिमंत्रित कर ललाटादि अंगोमें धारण करे ॥२७॥

जिस ब्राह्मणके शरीरमें भस्म लगी होती है । वह महापतकोसे भी छूट जाता है इसमें संदेह नही ॥२८॥

जिस कारणसे कि, भस्म अग्नि का वीर्य है, मै भी अग्निवीर्यके धारण करनेसे बलवान हो जाऊंगा ॥ इस प्रकार जो नित्य भस्म स्नान करता तथा जितेन्द्रिय हो, भस्मपर शयन करता है ॥२९॥

वह सब पाप से मुक्त होकर शिवलोकको प्राप्त होता है, हे राजन ! तुम इस प्रकार करो और शिवसहस्त्रनाम मै तुमको देता हूं इससे तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण होंगे ॥३०॥

सूत उवाच ।

सूतजी बोले, ऐसा कहकर अगस्त्यजीने रामचन्द्रका शिवसहस्त्रनामका उपदेश किया ॥३१॥

जो कि सब वेदोंको सार है, जो शिवजीका प्रत्यक्ष करनेवाला है उसको देकर अगस्त्यजी ने कहा हे राम! तुम इसे दिनरात जपो ॥३२॥

तब भगवान शिवजी प्रसन्न होकर पाशुपत अस्त्र तुमको देंगे, जिससे तुम शत्रुओं को मारकर प्रियाको प्राप्त होगे ॥३३॥

उसी अस्त्र के प्रभावसे सागर को शोष सकोगे संहार कालमें शिवजी इसी ही अस्त्र से जगतको संहार करते है ॥३४॥

इति श्रीपद्मपुराणे शिवगितासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे अगस्त्यराघवसंवादे विरजादीक्षा निरुपणं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥

उसके बिना पाये दानवोंसे जय पाना बडा दुर्लभ है । इस कारण इस अस्त्रके पानेके निमित्त शिवजीकी शरण जाओ ॥३५॥

इति श्रीपद्मपुराणे० अगस्त्यराघवसंवादे शिवगीताभाषाटीकायां तृतीयोध्याः ॥३॥

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Last Updated : October 15, 2010

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