धरम दुर्यो कलिराज दिखाई ॥
कीनों प्रगट प्रताप आपनौ सब बिपरीत चलाई ।
धन भौ मीत, धरम भौ बैरी पतितन सो हितवाई ॥
जोगी जती तपी संन्यासी ब्रत छाँड़यो अकुलाई ।
बरनास्त्रमकी कौन चलावै संतनहूमें आई ॥
देखत संत भयानक लागत भावते ससुर जमाई ।
संपति सुकृत सनेह मान चित ग्रह ब्यौहार बड़ाई ॥
कियो कुमंत्री लोभ आपुनों महामोह जु सहाई ।
काम क्रोध मद मोह मत्सरा दीन्हीं देस दुहाई ॥
दान लैनकौं बड़े पातकी मचलनकौं बँभनाई ।
लरन मरनकौं बड़े तामसी वारौं कोटि कसाई ॥
उपदेसनकौं गुरु गोसाईं आचरनैं अधमाई ।
ब्यासदासके सुकृत साँकरेमें गोपाल सहाई ॥
साधन बैरागी जड़ बंग ।
धातु रसायन औषध सेवत निसिदिन बढ़त अनंग ॥
सुक-बचननकौ रंग न लाग्यौ भयौ न संसै भंग ।
बिष बिकारगुन उपजै बित लगि सबै करत चित भंग ॥
बनमें रहत गहत कामिनि कुच सेवत पीन उतंग ।
धनि धनि साधु ! दंभकी मूरति, दियो छाड़ि हरि संग ॥
लोभ बचन बाननि अँग-अंगनि सोभित निकर निषंग ।
ब्यास आस जम पासि गरे, तिहि भावै राग न रंग ॥
जो दुख होत बिमुख घर आये ।
ज्यौं कारौ लागे कारी निसि, कोटिक बीछू खाये ॥
दुपहर जेठ जरत बारुमें घायन लौन लगाये ।
काँटन माँझ भिरै बिनु पनहीं, मूड़ै टोला खाये ॥
ज्यों बाँझहिं दुख होत सौतिकौ सुंदर बेटा जाये ।
देखतही मुख होत जितौ दुख बिसरत नहिं बिसराये ॥
भटकत फिरत निलज बरजत ही कूकर ज्यों झहराये ।
गारी देत बिलग नहिं मानत फूलत दमरी पाये ॥
अति दुख दुष्ट जगतमें जेते नैक न मेरे भाये ।
भूलि दरस नहिं कीजौ वाकौ, ब्यास बचन बिसराये ॥
सुने न देखे भगत भिखारी ।
तिनके दाम कामकौ लोभ न जिनके कुंजबिहारी ॥
सुक नारद अरु सिव सनकादिक, जे अनुरागी भारी ।
तिनको मत भागवत न समुझै सबकी बुधि पचि हारी ॥
रसना इंद्री दोऊ बैरिन जिनकी अनी अन्यारी ।
करि आहार बिहार परसपर बैर करत बिभचारी ॥
बिषइनिकी परतीति न हरिसों प्रीति रीति बाजारी ।
ब्यास आस-सागरमें बूडै़ आई भगति बिसारी ॥
जो सुख होत भगत घर आये ।
सो सुख होत नहीं बहु संपति, बाँझहिं बेटा जाये ॥
जो सुख होत भगत चरनोदक पीवत गात लगाये ।
सो सुख सपनेहू नहिं पैयत कोटिक तीरथ न्हाये ॥
जो सुख भगतनकौ मुख देखत उपजत दुख बिसराये ।
सो सुख होत न कामिहिं कबहूँ कामिनि उर लपटाये ॥
जो सुख कबहुँ न पैयत पितु घर सुतकौ पूत खिलाये ।
सो सुख होत भगत बचननि सुनि नैननि नीर बहाये ॥
जो सुख होत मिलत साधुनसों छिन-छिन रंग बढ़ाये ।
सो सुख होत न नेक ब्यासकौं लंक सुमेरहु पाये ॥
हरि बिनु को अपनौं संसार ।
माया मोह बँध्यो जग बूड़त, काल नदीकी धार ॥
जैसे संघट होत नावमें रहत न पैले पार ।
सुत संपति दारा सों ऐसे बिछुरत लगै न बार ॥
जैसे सपने रंक पाय निधि जानै कछू न सार ।
ऐसे छिन भंगुर देहीके गरबहि करत गँवार ॥
जैसे अंधरे टेकत डोलत गनत न खाइ पनार ।
ऐसे ब्यास बहुत उपदेसे सुनि-सुनि गये न पार ॥
कहत सुनत बहुतै दिन बीते भगति न मनमें आई ।
स्यामकृपा बिनु, साधुसंग बिनु कहि कौने रति पाई ॥
अपने अपने मत-मद भूले करत आपनी भाई ।
कह्यो हमारौ बहुत करत हैं, बहुतनमें प्रभुताई ॥
मैं समझी सब काहु न समझी, मैं सबहिन समझाई ।
भोरे भगत हुते सब तबके, हमरे बहु चतुराई ॥
हमही अति परिपक्व भये औरनिकै सबै कचाई ।
कहनि सुहेली रहनि दुहेली बातनि बहुत बड़ाई ॥
हरि मंदिर माला धरि, गुरु करि जीवनके सुखदाई ।
दया दीनता दासभाव बिनु मिलैं न ब्यास कन्हाई ॥