नैन भरि देख्यौ नंदकुमार ।
ता दिनतें सब भूलि गयौ हौं बिसर्यौ पन परवार ॥
बिन देखे हौं बिकल भयौं हौं अंग-अंग सब हारि ।
ताते सुधि है साँवरि मूरतिकी लोचन भरि भरि बारि ॥
रुप-रास पैमित नहीं मानों कैसें मिलै लो कन्हाइ ।
कुंभनदास प्रभु गोबरधन-धर मिलियै बहुरि री माइ ॥
हिलगिन कठिन है या मनकी ।
जाके लिये देखि मेरी सजनी लाज गयी सब तनकी ॥
धरम जाउ अरु लोग हँसौं सब अरु गावौ कुल गारी ।
सो क्यौं रहै ताहि बिनु देखे जा जाकौ हितकारी ॥
रसलुबधक निमिख न छाँड़त है ज्यों अधीन मृग गानों ।
कुंभनदास सनेह परम श्रीगोबरधन-धर जानों ॥