आषाढ़ : शुक्ल पक्ष
धनुर्धर अर्जुन बोले - "हे भगवन् ! आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या व्रत है ? उस दिन कौन से देवता की पूजा होती है ? उसकी विधि क्या है ? यह सब विस्तारपूर्वक कहिए ।
श्री कृष्ण भगवान् बोले - "हे अर्जुन ! एक समय नारदजी ने ब्रह्मा जी से यही प्रश्न पूछा था । तब ब्रह्माजी ने कहा कि नारद ! तुमने कलियुग में प्राणिमात्र के उद्धार के लिए सबसे उत्तम प्रश्न किया है, क्योंकि एकादशी का व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ होता है । इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । इस एकादशी का नाम पद्मा है । इसके व्रत करने से विष्णु भगवान् प्रसन्न होते हैं ।" इस संदर्भ में मैं तुम्हें एक पौराणिक कथा सुनाता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो -
"मान्धाता नाम का एक सूर्यवंशी राजा था । वह सत्यवादी, महान् प्रतापी और चक्रवर्ती था । वह अपनी प्रजा का पालन सन्तान की तरह करता था । इसकी समस्त प्रजा धन-धान्य से परिपूर्ण थी और सुखपूर्वक रहती थी । उसके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था । कभी किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा नहीं आती थी । किन्तु न जाने देव क्यों रुष्ट हो गए । राजा से क्या गलती हुई कि एक बार उसके राज्य में अकाल पड़ गया और प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यन्त दुःखी रहने लगी । राज्य में यज्ञ होना बन्द हो गये ।
एक दिन दुःखी होकर प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी - "हे राजन् ! समस्त विश्व की सृष्टि का मुख्य कारण वर्षा है । इसी वर्षा के अभाव से राज्य में अकाल पड़ गया है और अकाल से प्रजा मर रही है । हे भूपति ! आप कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे हम लोगों का दुःख दूर हो । यदि शीघ्र ही अकाल से छुटकारा न मिला तो विवश होकर प्रजा को किसी दूसरे राज्य में शरण लेनी होगी ।"
इस पर राजा मान्धाता बोला - "आप लोग ठीक कह रहे हैं । वर्षा न होने से आप लोग बहुत दुःखी हैं । राजा के पापों के कारण ही प्रजा को दुःख भोगना पड़ता है । मैं बहुत सोच-बिचार कर रहा हूं, फिर भी मुझे अपना कोई दोष नहीं दिखलाई दे रहा है । आप लोगों के दुःख को दूर करने के लिए मैं बहुत यत्न कर रहा हूं । किन्तु आप चिंतित न हों, मैं इसका कुछ-न-कुछ उपाय अवश्य ही करुंगा ।"
आश्वासन पाकर प्रजाजन चले गए । राजा मान्धाता भगवान् की पूजा कर कुछ मुख्य व्यक्तियों को साथ लेकर वन को चल दिया । वहां वह ऋषियों के आश्रमों में घूमते-घूमते अन्त में ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम पर पहुंच गया । राजा रथ से उतरा और आश्रम में चला गया । वहां मुनि अभी नित्य कर्म से निवृत हुए थे कि राजा ने उनके सम्मुख जाकर प्रणाम किया ।
मुनि ने उनको आशीर्वाद दिया, फिर पूछा - "हे राजन् ! आप इस स्थान पर किस प्रयोजन से पधारे हैं, सो कहिए ।"
राजा बोले - "हे महर्षि ! मेरे राज्य में तीन वर्ष से वर्षा नहीं हो रही है । इससे अकाल पड़ गया है और प्रजा दुःख भोग रही है । राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट मिलता है, ऐसा शास्त्रों में लिखा है । मैं धर्मानुसार राज्य करता हूं, फिर यह अकाल कैसे पड़ गया, इसका मुझे अभी तक पता न लग सका । अब मैं आपके पास इसी सन्देह की निवृत्ति के लिए आया हूं । आप कृपा कर मेरी इस समस्या का समाधान कर मेरी प्रजा के कष्ट को दूर करने के लिए कोई उपाय बतलाइए ।"
इस पर वह ऋषि बोले - "हे राजन् ! यह सतयुग सब युगों में श्रेष्ठ है । इसमें धर्म के चारों चरण सम्मिलित हैं । इस युग में केवल ब्राह्मणों को ही तपस्या करने तथा वेद पढ़ने का अधिकार है । परन्तु आपके राज्य में एक शुद्र तपस्या कर रहा है । इसी दोष के कारण आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है । यदि आप प्रजा का भला चाहते हैं तो उस शूद्र का वध करवा दीजिए । जब तक ऐसा नहीं करेंगे, तब तक आपका राज्य अकाल की पीड़ा से मुक्त नहीं होगा ।"
इस पर राजा बोले - "हे मुनीश्वर ! मैं उस निरपराध तपस्या करने वाले शूद्र को नहीं मार सकता । किसी निर्दोष मनुष्य की हत्या करना मेरे नियमों के विरुद्ध है और मेरी आत्मा इसे किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करेगी । आप इस दोष से छूटने का कोई दूसरा उपाय बतालाइये ।"
तब ऋषि बोले - "हे राजन् ! यदि तुम ऐसा ही चाहते हो तो आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पद्मा नाम की एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करो । इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी और प्रजा भी पूर्व की भांति सुख पायेगी क्योंकि इस एकादशी का व्रत सिद्धियों को देने वाला और उपद्रवों को शान्त करने वाला है ।"
मुनि के इन वचनों को सुनकर राजा अपने नगर को वापस आया और विधिपूर्वक पद्मा एकादशी व्रत किया । उस व्रत के प्रभाव से राज्य में वर्षा हुई और मनुष्यों को सुख पहुंचा ।
इस एकादशी को देवशयनी एकादशी भी कहते हैं । इस व्रत के करने से विष्णु भगवान् प्रसन्न होते हैं । अतः मोक्ष की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को एकादशी का व्रत करना चाहिए । चातुर्मास्य व्रत भी इसी एकादशी के व्रत से शुरु किया जाता है ।
कथासार
अपनी किसी समस्या से छुटकारा पाने के लिए किसी दूसरे का अहित नहीं करना चाहिए । अपनी शक्ति से और भगवान पर पूरी श्रद्धा और आस्था रखकर सन्तों के कथनानुसार सत्कर्म करने से बड़ी-बड़ी विपदाओं से छुटकारा मिल जाता है ।