विवेकवैराग्यनाम - ॥ समास सातवां - विषयत्यागनिरूपणनाम ॥
इस ग्रंथमें प्रत्येक छंद ‘मुख्य आत्मनुभूति से’ एवं सभी ग्रंथों की सम्मति लेकर लिखा है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
न्याय निष्ठुर बोलना । बहुतों को लगे उबानेवाला । मतली होने पर भोजन करना । विहित नहीं ॥१॥
विषयों की निंदा की बहुतों ने । और उन्हें ही सेवन करते गये । विषय त्याग से देह चले । यह तो होये ना ॥२॥
बोलना एक कुरना एक । उसका नाम हीन विवेक । ऐसा करें तो सकल लोक । हंसने लगते ॥३॥
विषयत्यागे बिन तो कहीं । परलोक तो पाते नहीं । ऐसा कहते ठाई ठाई । देखें अच्छे से ॥४॥
प्रपंची खाते भोजन करते । परमार्थी क्या उपवास करते । उभय तो समान दिखते । विषयों के विषय में ॥५॥
देह चलते विषय त्यागे । ऐसा कौन है जग में । इसका उत्तर मुझे । निरूपित करें हे देव ॥६॥
विषय सारे ही त्याग दें । तभी फिर परमार्थ करे । ऐसे देखने पर उलझनें । दिखती हैं ॥७॥
ऐसा श्रोता ने किया प्रश्न । वक्ता उत्तर करें कथन । सावधान होकर लगाये मन । इस विषय में ॥८॥
वैराग्य से करें त्याग । तभी परमार्थयोग । प्रपंच त्यागने से सर्वोत्तम । परमार्थ होता ॥९॥
पहले ज्ञानी हो गये । उन्होंने भी बहुत कष्ट किये । तभी तो विख्यात हुये । भूमंडल पर ॥१०॥
अन्य मत्सर करते ही गये । अन्न अन्न कहते मर गये । कई लोग भ्रष्ट हुये । पेट के लिये ॥११॥
मूलतः ही वैराग्य नहीं । ज्ञान प्रत्यय का नहीं । शुचि आचार भी नहीं । भजन कैसा ॥१२॥
इस प्रकार के जन । स्वयं को कहते सज्जन । देखने जाओ तो अनुमान । सारा ही दिखे ॥१३॥
जिन्हें नहीं अनुताप । यही तो एक पूर्वपाप । क्षण क्षण विक्षेप । पराधिकता से ॥१४॥
मुझे नहीं तुझे भी सजेना । यह तो सारा जानते है जन । खाते को भूखा देख सके ना । ऐसा है ॥१५॥
भाग्य पुरुष बड़े बड़े । दिवालियें उनकी निंदा करे । साव को चोर देखे । और चिढ़े जैसा ॥१६॥
वैराग्य समान नहीं भाग्य । वैराग्य नहीं वह अभाग्य । वैराग्य ना हो तो योग्य । परमार्थ नहीं ॥१७॥
प्रत्ययज्ञानी वीतरागी । विवेकबल से सर्व त्यागी । वह जानिये महायोगी । ईश्वरी पुरुष ॥१८॥
अष्ट सिद्धियों की उपेक्षा । करके ली योगदीक्षा । घर घर में मांगे भिक्षा । महादेव ॥१९॥
ईश्वर की बराबरी । कैसे करेगा वेषधारी । इस कारण समान सभी । होते नहीं ॥२०॥
उदास और विवेक । उसे खोजते सकल लोक । जो है लालची मूर्ख रंक । वे रहते दीन ॥२१॥
जो आचरण से वंचित हुये । जो विचार से भ्रष्ट हुये । विवेक करना भूल गये । विषयलोभी ॥२२॥
भजन तो प्रिय लगे ना । पुरश्चरण कदापि होये ना । भलों से उनकी निभे ना । इस कारण ॥२३॥
वैराग्य कर के भ्रष्ट होये ना । ज्ञान भजन त्यागे ना । व्युत्पन्न और वाद करेना । ऐसे थोड़े ॥२४॥
कष्ट करे तो फसल पके । ऊंची वस्तु तत्काल बिके । जानकार लोग कौतुक से । झेलते उसे ॥२५॥
अन्य सभी मंद हुये । दुराशावश खोटे हुये । ज्ञान संकुचित किये । भ्रष्टाकार से ॥२६॥
सबल विषय त्यागना । शुद्ध कार्यकारण लेना । विषयत्याग के लक्षण । पहचानना ऐसे ॥२७॥
सभी कुछ कर्ता देव । नहीं प्रकृति का ठांव । विवेक का अभिप्राव । विवेकी जानते ॥२८॥
शूरता के लिये तत्पर । उसे मानते छोटे श्रेष्ठतर । कामगार और अंगचोर । एक कैसे ॥२९॥
तार्किक त्यागात्याग जाने । बोले जैसा चलना जाने । पिंड्ब्रह्मांड सकल जाने । यथायोग्य ॥३०॥
ऐसा जो सर्वज्ञाता । उत्तम लक्षणों में पूर्णतः । उससे ही सार्थकता । सहज ही होती ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे विषयत्यागनिरूपणनाम समास सातवां ॥७॥
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Last Updated : December 08, 2023
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