ज्ञानदशक मायोद्भवनाम - ॥ समास पांचवा - स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम ॥
३५० वर्ष पूर्व मानव की अत्यंत हीन दीन अवस्था देख, उससे उसकी मुक्तता हो इस उदार हेतु से श्रीसमर्थ ने मानव को शिक्षा दी ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
केवल मूर्ख वे ना जाने । इस कारण कहना पड़े । लक्षण पंचभूतों के । विशद करके ॥१॥
पंचभूतों का कर्दम हुआ । अब कहने से ना अलग होता । परंतु जो कुछ अलग ना हो सकता। वह करके दिखलाऊं ॥२॥
पर्वत पाषाण शिला शिखर । नाना वर्णों के छोटे बड़े आकार । कंकड़ पत्थर के बहुत प्रकार । जानिये पृथ्वी ॥३॥
मृत्तिका नाना रंगो की । जो कि नाना जगहों की । धूल बालू नाना प्रकारों की । मिलकर पृथ्वी ॥४॥
पुर पट्टण मनोहर । नाना मंदिर दामोदर । नाना देवालय शिखर । मिलकर पृथ्वी ॥५॥
सप्त द्वीपावती पृथ्वी । कैसे कहें उसकी महती । जानिये नवखंड मिलाकर बनती । वसुंधरा ॥६॥
नाना देव नाना नृपति । नाना भाषा नाना रीति । लक्ष चौरासी उत्पत्ति । मिलकर पृथ्वी ॥७॥
नाना उध्वस्त' जो बन । नाना तरूवरों के बन । गिरीकंदर नाना स्थान । मिलकर पृथ्वी ॥८॥
नाना रचना की देव ने । जो जो निर्माण की मानव ने । सकल मिलकर श्रोता जानें । बनी पृथ्वी ॥९॥
नाना धातु सुवर्णादिक । नाना रत्न जो अनेक । नाना काष्ठवृक्षादिक । मिलकर पृथ्वी ॥१०॥
अब रहने दो बहुत यह बस । जड़ांश और कठिनांश । सकल पृथ्वी यह विश्वास । मानना चाहियें ॥११॥
कहे पृथ्वी के रूप । अब कहा जाता आप । श्रोता पहचानें रूप । सावधान होकर ॥१२॥
वापी कूप सरोवर । नाना सरिताओं का नीर। मेघ और सप्त सागर। मिलकर आप ॥१३॥
श्लोकार्ध- क्षारक्षीरसुरासर्पिर्दधि इक्षुर्जलं तथा ॥छ॥
क्षारसमुद्र दिखता है । सकल जन दृष्टि से देखते हैं । जहां लवण होता है । वही क्षारसिंधु ॥१४॥
एक दूध का सागर । उसका नाम क्षीरसागर । देवने दिया निरंतर । उपमन्यु को ॥१५॥
एक समुद्र मद्य का । एक जानें घृत का । एक शुध्द दही का । समुद्र है ॥१६॥
एक ईख के रस का । एक वह शुद्ध जल का । ऐसे सात समुद्रों का । आवरण पृथ्वी को ॥१७॥
एवं भूमंडल का जल । नाना स्थलों के सकल । मिलकर सारा केवल । आप जानें ॥१८॥
पृथ्वीगर्भ में कई एक । पृथ्वी तल पर आवरणोदक। तीनो लोकों के उदक । मिलकर आप ॥१९॥
नाना वल्ली बहुविध । नाना तरूवरों के रस । मधु पारा अमृत विष । मिलकर आप ॥२०॥
नाना रस स्नेहादिक । इनसे भी अलग अनेक । जल से अलग आवश्यक । आप कहलाते ॥२१॥
सार्द्र और शीतल । जल के समान तरल । शुक्लीत श्रोणित मूत्र लार । आप कहलाते ॥२२॥
आप को संकेत से जानें। तरल गीला पहचानें। मृद शीतल स्वभाव से । आप कहलाते ॥२३॥
हुआ आप का संकेत । तरल मृद चिकनाहट । स्वेद श्लेष्मा अश्रु समस्त । आप जानिये ॥२४॥
तेज सुनें हो सावधान । चंद्र सूर्य तारांगण । दिव्य देह सतेजपन । को तेज बोलिये ॥२५॥
वन्हि मेघों की विद्युल्लता । वन्हि सृष्टि का संहारकर्ता । वन्हि सागर को जलाता । वडवाग्नि ॥२६॥
वन्हि शंकर के नेत्रों का । वन्हि काल की क्षुधा का । वन्हि परिघ भूगोल का । तेज कहलाये ॥२७॥
जो जो प्रकाशरूप । वह सारा तेज का स्वरूप । शोषक उष्णादि आरोप । तेज जानिये ॥२८॥
वायु जानिये चंचल । चैतन्य को चेताये केवल । बोलना हिलना सकल । वायु के कारण ॥२९॥
हिले डुले वह सारा पवन । कुछ न चले पवन बिन । सृष्टि संचालन का कारण । मूल वह वायु ॥३०॥
चलन मुड़ना और प्रसारण । निरोध और आकुंचन । सकल जानिये पवन । चंचलरूपी ॥३१॥
प्राण अपान और व्यान । चौथा उदान और समान । नाग कूर्म कर्कश जान । देवदत्त धनंजय ॥३२॥
जितना भी कुछ होता चलन । उतने वायु के लक्षण । चंद्र सूर्य तारांगण । वायु ही धर्ता ॥३३॥
आकाश जानिये पोला । निर्मल और निश्चल । अवकाशरूप सकल । आकाश जानिये ॥३४॥
आकाश सभी को व्यापक । आकाश अनेकों में एक । आकाश में कौतुक । चार भूतों का ॥३५॥
नहीं आकाश जैसा सार । आकाश सभी से बढकर । देखें अगर आकाश का विचार । है स्वरूपसमान ॥३६॥
तब शिष्य ने लिया आक्षेप । दोनों के समान ही रूप । फिर आकाश को ही स्वरूप । क्यों ना कहें ॥३७॥
आकाश स्वरूप में क्या भेद । देखने पर दिखते अभेद । आकाश वस्तु ही स्वतः सिद्ध । क्यों न कहें ॥३८॥
वस्तु अचल अढल । वस्तु निर्मल निश्चल । वैसे ही आकाश केवल । वस्तु के समान ॥३९॥
सुनकर वक्ता कहे वचन । वस्तु निर्गुण पुरातन । आकाश में सप्त गुण । शास्त्रों में है निरूपित ॥४०॥
काम क्रोध शोक मोहो । भय अज्ञान शून्यत्व देखो । ऐसा सप्तविध स्वभाव जो । है आकाश का ॥४१॥
ऐसा शास्त्राधार से कहा । इस कारण आकाश भूत हुआ । स्वरूप निर्विकार व्यापक रहा । उपमारहित ॥४२॥
कांच का फर्श और जल । समान ही लगता सकल । परंतु एक कांच एक जल । सयाने जानते ॥४३॥
रूई में स्फटिक गिरा । लोगों ने तद्रूप देखा । उससे कपालमोक्ष हुआ। कपास से ना होता ॥४४॥
चांवल में श्वेत कंकड़ । चांवल समान ही वक्र । चबाने पर गिरते दांत । तब समझे ॥४५॥
त्रिभाग में पत्थर रहता । त्रिभाग समान ही दिखता । खोजने पर अलग दिखता । कठोर गुण से ॥४६॥
गुड़समान गुड़पत्थर । परंतु वह सख्त कठोर । मूलहटी और नागवेल । एक कहें नहीं ॥४७॥
सोना और सोनपीतल । एक ही लगते केवल । परंतु पीतल को लगते ही ज्वाल । कालिमा चढ़े ॥४८॥
छोड़ो ये हीन दृष्टांत । आकाश याने केवल भूत । वह भूत और अनंत । एक कैसे ॥४९॥
वस्तु का होता ही नहीं वर्ण । आकाश है श्यामवर्ण । दोनों में साम्यता विचक्षण । करेंगे कैसे ॥५०॥
श्रोता कहते कैसा रूप । आकाश मूलतः ही अरूप । आकाश वस्तु ही तद्रूप । भेद नहीं ॥५१॥
चारों भूतों को नाश है । आकाश को कहां नाश है । आकाश को न शोभे । वर्ण व्यक्ति विकार ॥५२॥
आकाश अचल दिखता । उसका क्या नष्ट होते दिखता । हमारे मत से अगर देखा । तो आकाश शाश्वत ॥५३॥
ऐसे सुनकर वचन । वक्ता बोले प्रतिवचन । सुन अब लक्षण । आकाश के ॥५४॥
आकाश तम से बना । इस कारण काम क्रोध से वेष्टित हुआ । अज्ञान शून्यत्व कहा गया । नाम उसका ॥५५॥
अज्ञान से काम क्रोधादिक । मोह भय और शोक । यह अज्ञान का विवेक । आकाशगुण से ॥५६॥
नास्तिक नकारवचन । वही शून्य का लक्षण । उसे कहते हृदयशून्य । अज्ञान प्राणी ॥५७॥
आकाश स्तब्धता से शून्य । शून्य याने वह अज्ञान । अज्ञान याने कठिन । रूप उसका ॥५८॥
कठिन शून्य विकारवंत । उसे कैसे कहें संत । मन को लगे ये तद्वत ! बाह्य दृष्टि से ॥५९॥
आकाश में मिल गया अज्ञान । ज्ञान से नष्ट होता यह कर्दम । आकाश को इस कारण । नाश है ॥६०॥
वैसे आकाश और स्वरूप । देखने पर लगते एकरूप । परंतु दोनों में विक्षेप । शून्यत्व का ॥६१॥
यू ही देखें अगर कल्पना से । सरीखा ही लगे निश्चय से। परंतु आकाश स्वरूप में। भेद है ॥६२॥
उन्मनी और सुषुप्ति अवस्था । एकसी ही लगे तत्त्वता । परंतु विवेचन कर देखा जाता। तो भेद है ॥६३॥
खोटे खरे के समान भासते । परंतु परीक्षवंत चुनते । अथवा कुरंग' भ्रमित होते । देखकर मृगजल को ॥६४॥
अब रहने दो यह दृष्टांत । कहा गया समझाने को संकेत । इसकारण भूत और अनंत । एक नहीं ॥६५॥
आकाश देखें दूर रहकर । स्वरूप में रहें स्वरूप होकर । वस्तु को देखना सहज । ऐसा है ॥६६॥
यहां आशंका मिटी । संदेह वृत्ति अस्त हुई । भिन्नता से अनुभव न मिलती । स्वरूप स्थिती ॥६७॥
आकाश अनुभव में आये । स्वरूप अनुभव से परे । इस कारण आकाश से । साम्यता न होती ॥६८॥
दुग्धसमान जलांश । चुनना जानते राजहंस । वैसे स्वरूप और आकाश । संत जानते ॥६९॥
सकल माया है उलझन जैसे । उसे सुलझाये संत संग से। मोक्ष की पदवी पायें। सत्समागम से ॥७०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदोनाम समास पांचवां ॥५॥
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Last Updated : December 06, 2023
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